सिनेमा न केवल मनोरंजन का साधन है बल्कि संवेदनशील एवं विवेकशील फ़िल्मकारों के द्वारा इसके माध्यम से समाज को उपयोगी संदेश देने का कार्य भी इसके प्रारम्भिक वर्षों से ही किया जाता रहा है। भारत में अपने उद्भव (दादासाहब फाल्के द्वारा १९१३ में निर्मित 'राजा हरिश्चंद्र' के रूप में) के साथ ही सिनेमा आम जनता में लोकप्रिय हो गया क्योंकि यह मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन सिद्ध हुआ जिसने नौटंकियों, तमाशों तथा नाटकों को पीछे छोड़ते हुए 'बाइस्कोप' के नाम से अमीर एवं ग़रीब दोनों ही वर्गों के दिलों में स्थायी जगह बना ली (आज स्थिति परिवर्तित हो चुकी है तथा मल्टीप्लेक्स में जाकर सिनेमा देखना निर्धन तो क्या संपन्न वर्ग के लोगों हेतु भी बारम्बार सम्भव नहीं होता है, अब तो घर बैठे-बैठे छोटे आकार के पट पर सिनेमा देखना ही सस्ता पड़ता है)। अट्ठारह वर्षों के उपरांत मूक फ़िल्में बोलने भी लगीं (१९३१ में प्रदर्शित 'आलम आरा' के साथ) तो फ़िल्मों में गीत-संगीत भी होने लगा एवं इस माध्यम की लोकप्रियता और भी परिवर्धित हो गई। लेकिन जैसा कि मैंने इस लेख की प्रथम पंक्ति में कहा, यह केवल मनोरंजन का साधन बनकर ही नहीं रह गया। समय-समय पर ऐसे साहसी, प्रतिभाशाली तथा संवेदनाओं से ओतप्रोत फ़िल्मकार जनसमुदाय के समक्ष हृदय को स्पर्श कर लेने वाली तथा समकालीन समाज को दर्पण दिखाने वाली सोद्देश्य फ़िल्में लेकर आए जिनमें से अनेक तो कालजयी सिद्ध हुईं। यह एक अत्यन्त संतोषजनक तथ्य है कि ऐसी उद्देश्यपरक तथा विचारोत्तेजक फ़िल्में आज तक बन रही हैं।
विगत एक सौ दस वर्षों में भारतीय दर्शकों के समक्ष अवतरित हुईं सैकड़ों उत्कृष्ट हिन्दी फ़िल्मों का तो एक लेख में नामोल्लेख तक नहीं किया जा सकता। अतः मैं अपने इस लेख में दस ऐसी (मुख्य-धारा की) श्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्मों की बात कर रहा हूँ जो मेरे हृदय के अति-निकट हैं। ये दस उत्तम हिन्दी फ़िल्में इस प्रकार हैं:
१. प्यासा (१९५७): भारत के महान फ़िल्मकार गुरु दत्त ने एक अंग्रेज़ी कविता पढ़ी - 'Seven cities claimed Homer dead where the living Homer begged his bread' जिसने उन्हें कुछ इस क़दर प्रभावित किया कि उसके भाव से प्रेरित होकर उन्होंने इस फ़िल्म की परिकल्पना अपने मन में कर डाली। प्रमुख भूमिका गुरु दत्त ने स्वयं निभाई जबकि अन्य प्रमुख भूमिकाओं हेतु उन्होंने वहीदा रहमान, माला सिन्हा, रहमान, जॉनी वाकर आदि कलाकारों को लिया। यह एक अजरअमर फ़िल्म है एवं मेरी दृष्टि में मुख्य-धारा की हिन्दी फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ है जो देश एवं समाज को दर्पण दिखाते हुए भी अंत में एक सकारात्मक बिन्दु पर समाप्त होती है। इसके कथानक को इस शेर से समझा जा सकता है - 'वो लिखता है ज़ीस्त की हद तक, मरने पर वो शायर होगा'। देश के स्वतंत्र होने के पश्चात कुछ ही वर्षों में लोगों में व्याप्त हो गई घोर स्वार्थपरता एवं नैतिक पतन के साथ-साथ नेहरूवादी आदर्शवाद से हुए मोहभंग का सजीव चित्रण करती है यह फ़िल्म। देश में स्त्रियों के शोषण को देखकर जहाँ नायक के मुख से निकल पड़ता है - 'जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं' तो समाज का ख़ुदगर्ज़ चेहरा देखकर उसके मुँह से बरबस ही यह आह फूट पड़ती है - 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। उसे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं है, उसे शिकायत है समाज की उस तहज़ीब से जहाँ मुरदों की पूजा की जाती है और ज़िन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है। संवेदनशील नायक को ऐसे वातावरण में कहाँ शांति मिलती ? लेकिन यह नायक कम-से-कम अपनी कहानी को पेश करने वाले शख़्स से ज़्यादा ख़ुशकिस्मत था जो उसे एक चाहने वाली, समझने वाली मिल जाती है जिसका हाथ पकड़कर वह ख़ुदगर्ज़ और बेरहम लोगों की बस्ती से दूर चला जाता है। मैं इस फ़िल्म को भारत ही नहीं, संसार की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक मानता हूँ।
२. ख़ामोशी (१९६९): मैंने अपनी सिविल सेवा की परीक्षा हेतु मनोविज्ञान विषय लिया तो उसके अन्तर्गत मुझे सिगमंड फ़्रायड के मनोविश्लेषणवाद (psyco-analysis) को पढ़ने एवं समझने का अवसर मिला। इसी सिद्धांत का एक भाग है - 'स्थानांतरण' (transference) तथा 'प्रति-स्थानांतरण'(counter-transference)। स्थानांतरण की स्थिति में अपना इलाज़ करवा रहा मनोरोगी अपना इलाज़ कर रहे मनोचिकित्सक से एक भावनात्मक संबंध जोड़ लेता है जबकि प्रति-स्थानांतरण वह स्थिति है जिसमें वह मनोचिकित्सक भी उस मनोरोगी से एक भावनात्मक संबंध अपने मन में स्थापित कर लेता है (क्योंकि वह भी अंततः एक मनुष्य ही है)। यह उत्कृष्ट फ़िल्म इन्हीं दो स्थितियों को लेकर लिखी गई एक भावुक कथा है जिसमें मनोरोगी (राजेश खन्ना) से अधिक महत्वपूर्ण पात्र उसकी चिकित्सा कर रही नर्स (वहीदा रहमान) का हो उठता है तथा फ़िल्म उसकी दमित भावनाओं एवं एक स्त्री के रूप में प्रेमाकांक्षी होने के मूक ही रह गए भाव का अद्भुत चित्रण करती है। सुप्रसिद्ध बांग्ला कथाकार आशुतोष मुखर्जी द्वारा रचित कथा पर आधारित यह फ़िल्म पहले बांग्ला में 'दीप ज्वेले जाय' के नाम से बनाई गई थी जिसमें नर्स की भूमिका सुचित्रा सेन ने निभाई थी। फ़िल्म का संगीत (हेमंत कुमार द्वारा रचित) भी कालजयी है तथा 'हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू', 'तुम पुकार लो, तुम्हारा इंतज़ार है' एवं 'वो शाम कुछ अजीब थी' जैसे गीत अजरअमर हैं। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब इस फ़िल्म को देखकर मेरे आँसू न निकल आए हों।
३. तारे ज़मीन पर (२००७): आमिर ख़ान द्वारा निर्मित-दिग्दर्शित यह फ़िल्म एक अद्भुत कलाकृति (मास्टरपीस) है जिसे सिनेमाघर में देखते समय मैं ज़ार-ज़ार रोया था। एक निर्दोष बालक जो डायसलेक्सिया नामक रोग से पीड़ित है, की भावनाओं पर आधारित यह फ़िल्म बाल-मनोविज्ञान पर किसी प्रशंसनीय पाठ्यपुस्तक के समान है। सभी माता-पिताओं एवं शिक्षकों को यह फ़िल्म अवश्य देखनी चाहिए। केन्द्रीय भूमिका में बाल कलाकार दर्शील सफ़ारी के असाधारण अभिनय से सजी यह फ़िल्म इक्कीसवीं शताब्दी की होकर भी पुरानी क्लासिक फ़िल्मों की श्रेणी में रखी जा सकती है। इसके गीत 'बम बम बोले' पर मेरे नन्हे पुत्र सौरव ने मंच पर दिल जीत लेने वाला नृत्य प्रस्तुत किया था।
४. मदर इंडिया (१९५७): सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान ने परतंत्र भारत में साहूकारी शोषण, निजी जीवन की पीड़ा तथा निर्धनता से आजीवन जूझने वाली एक भारतीय कृषक महिला की कथा पर १९४० में 'औरत' नाम से एक फ़िल्म बनाई जिसमें केन्द्रीय भूमिका सरदार अख़्तर नामक अभिनेत्री ने निभाई। सत्रह वर्ष के उपरांत देश तो स्वतंत्र हो चुका था लेकिन भारतीय ग्रामीण व्यवस्था में कृषकों की अवस्था में कोई अंतर नहीं आया था। अतः महबूब ख़ान ने उसी श्वेत-श्याम फ़िल्म को बड़ा बजट लेकर रंगीन स्वरूप में पुनः बनाया तथा जुझारू एवं आदर्शवादी कृषक महिला की मुख्य भूमिका में नरगिस को लिया। इस क्लासिक फ़िल्म को सभी सिने-विश्लेषकों एवं सिनेमा के विशेषज्ञों द्वारा एक मत से भारतीय सिनेमा के इतिहास की सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में सम्मिलित किया गया है। फ़िल्म में किशोरी से लेकर वृद्धा तक की भूमिका निभाने वाली नरगिस के अतिरिक्त सुनील दत्त एवं अन्य प्रमुख कलाकारों का अभिनय भी अविस्मरणीय ही है। 'औरत' में शोषक साहूकार की भूमिका निभाने वाले कन्हैयालाल ने ही 'मदर इंडिया' में भी वह भूमिका निभाई। संगीत सहित फ़िल्म के सभी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। यह फ़िल्म ऑस्कर पुरस्कार जीतने के अत्यन्त निकट जा पहुँची थी।
५. हक़ीक़त (१९६४): मेरी दृष्टि में यह भारत में बनी सर्वश्रेष्ठ युद्ध फ़िल्म है जो १९६२ के भारत-चीन युद्ध से अधिक उन भारतीय सैनिकों की पीड़ा को रूपायित करती है जिससे वे पीछे लौटते समय गुज़रते हैं। उनकी यह पीड़ा युद्ध में हुई पराजय की पीड़ा के समकक्ष ही है। सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद की यह फ़िल्म न केवल बलराज साहनी, धर्मेन्द्र, प्रिया राजवंश, जयंत, लेवी आरोन (बाल कलाकार) तथा सैनिकों की छोटी-छोटी भूमिकाओं में विजय आनंद, संजय, मैक मोहन, सुधीर आदि के मर्मस्पर्शी अभिनय से सजी है वरन मदन मोहन का कालजयी संगीत भी इसे एक कभी न भूली जा सकने वाली अद्भुत फ़िल्म का स्वरूप प्रदान करता है। कैफ़ी आज़मी ने दिल को छू लेने वाले गीत लिखे हैं। और एक गीत - 'हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा' तो न केवल सुनते समय बल्कि परदे पर देखते समय भी दिलोदिमाग़ में एक हूक-सी उठा देता है। मैं इस गीत को हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ गीत मानता हूँ जिसे भूपिंदर, मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद एवं मन्ना डे जैसे चार असाधारण गायकों ने मिलकर गाया है।
६. साहिब बीबी और ग़ुलाम (१९६२): महान बांग्ला उपन्यासकार बिमल मित्र के उपन्यास पर आधारित गुरु दत्त द्वारा निर्मित यह क्लासिक फ़िल्म उन्नीसवीं सदी के बंगाल में ज़मींदारों के रहन-सहन, मानसिकता, अंग्रेज़ी शासन के दौरान गिरती हुई उनकी आर्थिक स्थिति तथा उस युग के बंगाली सामाजिक परिवेश का सजीव चित्र एक मर्मस्पर्शी कथा के द्वारा प्रस्तुत करती है। बिमल मित्र ने जीवन तथा समाज को अत्यन्त निकट से देखा-जाना था, यह बात उनकी किसी भी कृति को पढ़कर जानी जा सकती है। अबरार अल्वी ने फ़िल्म का कुशलता से निर्देशन किया है जबकि मीना कुमारी ने छोटी बहू की भूमिका में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। अन्य प्रमुख भूमिकाओं में गुरु दत्त, रहमान तथा वहीदा रहमान ने भी अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इस फ़िल्म को देखना ही अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। हेमंत कुमार का संगीत भी हृदय-विजयी है।
७. दो बीघा ज़मीन (१९५३): 'मदर इंडिया' की ही भांति यह फ़िल्म भी ग्रामीण भारत में सूदख़ोर साहूकारों द्वारा कृषकों के शोषण का मर्मस्पर्शी चित्रण करती है। 'मदर इंडिया' जहाँ एक स्त्री के साहस की कथा है, वहीं 'दो बीघा ज़मीन' एक कृषक दंपती की हृदय-विदारक दुखद गाथा है। बिमल रॉय द्वारा निर्मित-निर्देशित यह फ़िल्म बलराज साहनी तथा निरूपा रॉय के सजीव अभिनय से सुशोभित है एवं कहीं से भी कोई कल्पित कथा प्रतीत नहीं होती। शैलेन्द्र के लिखे सुंदर गीतों हेतु सलिल चौधरी ने ऐसा सुमधुर संगीत दिया है कि वे गीत कालजयी हो गए हैं तथा संगीत-प्रेमियों द्वारा आज भी बार-बार सुने जाते हैं।
८. मुग़ल-ए-आज़म (१९६०): निर्माता-निर्देशक करीम आसिफ़ की यह फ़िल्म निर्विवाद रूप से अब तक की सबसे भव्य हिन्दी फ़िल्म है। सलीम-अनारकली की कल्पित गाथा पर आधारित इस फ़िल्म में न केवल भव्यता है वरन नौशाद का अमर संगीत भी है तथा एक मन को झकझोर देने वाली कहानी है। प्रमुख भूमिकाओं में पृथ्वी राज कपूर, दिलीप कुमार तथा मधुबाला के अभिनय से सजी यह फ़िल्म बार-बार देखी जा सकती है क्योंकि इसे देखना अपने आप में ही एक कभी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव है। मनोरंजन से भरपूर मूल फ़िल्म के कुछ दृश्य रंगीन थे लेकिन सन २००४ में सम्पूर्ण फ़िल्म को ही रंगीन बनाकर पुनः प्रदर्शित किया गया और नवीन रंगीन संस्करण भी मूल श्वेत-श्याम फ़िल्म की भांति ही अत्यन्त सफल रहा।
९. सत्यकाम (१९६९): निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने अपनी इस अत्यंत यथार्थपरक फ़िल्म में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हमारे पाखंडी समाज के बदसूरत चेहरे को नग्न कर दिया और बता दिया कि आज की दुनिया में सबसे बड़ा गुनाह है ईमानदारी और शराफ़त। बेईमानों से भरी व्यवस्था में कितना मुश्किल होता है सच्चा और ईमानदार होना, इसे बताती है पत्थर जैसी चोट करने वाली यह फ़िल्म। फ़िल्म इस सूक्ष्म तथ्य को भी निरूपित करती है कि संसार से कटकर आदर्शवादी बातें करना सरल है, संसार के मध्य रहकर दैनंदिन कष्टों एवं समस्याओं से जूझते हुए आदर्शों पर चलना अत्यंत कठिन। और जो इस कठिन काम को बिना अपने पथ से तनिक भी विचलित हुए करे, सत्य का उद्घोष करने का वास्तविक अधिकार उसी को है। केन्द्रीय भूमिका में धर्मेन्द्र ने प्राण फूंक दिए हैं जबकि अन्य भूमिकाओं में शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, सारिका (बाल कलाकार) एवं अशोक कुमार ने भी अत्यन्त प्रभावी अभिनय किया है। सत्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने वाले पथिक की कथा दुखांत ही हो सकती थी, दुखांत ही है। तथापि अंधकार में फूटने वाली एक किरण की भांति अंत में आशा का संकेत भी है।
१०. काग़ज़ के फूल (१९५९): गुरु दत्त द्वारा निर्देशित अंतिम फ़िल्म है यह जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही थी लेकिन आज इसे एक असाधारण फ़िल्म माना जाता है। फ़िल्म-संसार की ही पृष्ठभूमि पर आधारित यह फ़िल्म बिना किसी लागलपेट के देश एवं काल के पार की इस सच्चाई को बताती है कि समाज गुणों का बखान चाहे जितना कर ले, वास्तव में सफलता को ही पूजता है। भौतिक रूप से असफल व्यक्ति चाहे कितने ही गुणी हों, समाज उनके साथ निर्ममता की सीमा तक जाने वाली क्रूरता से ही पेश आता है। जो सफल है, सब उसके हैं और जो असफल है, उसका कोई नहीं। ऐसा लगता है कि नाकामयाब इंसान के लिए इस दुनिया में कोई जगह ही नहीं है। काग़ज़ के सुंदर मगर बिना ख़ुशबू वाले फूलों से भरी है यह दुनिया। कैफ़ी आज़मी के यथार्थपरक गीतों को सचिन देव बर्मन ने सुंदर संगीत से सजाया है। श्वेत-श्याम फ़िल्म में भी वी.के. मूर्ति का छायांकन अपनी अमिट छाप छोड़ता है तथा तत्कालीन बम्बई में चलने वाली स्टूडियो-व्यवस्था के पतन को प्रभावी ढंग से अंकित करता है। केन्द्रीय भूमिका में गुरु दत्त ने दिल की गहराई में उतर जाने वाला अभिनय किया है जबकि नायिका के रूप में वहीदा रहमान भी पीछे नहीं रही हैं। यह महान फ़िल्म एक ऐसे सुंदर गीत की भांति है जिसे ठीक से गाया नहीं जा सका, एक ऐसी सुंदर मूरत की भांति है जो अनगढ़ ही रह गई, एक ऐसी सुंदर कथा की भांति है जिसके कुछ अंश अनकहे ही रह गए। अपने अंतिम क्षणों में रुला देने वाली इस दर्दभरी फ़िल्म की तुलना मोना लिसा के उस महान चित्र से की जा सकती है जिसमें स्त्री की भौहें ही नहीं हैं।
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