मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

देश-प्रेम : तब और अब

मैंने १९८८ में अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण करके उच्च शिक्षा हेतु कोलकाता (तब वह नगर कलकत्ता कहलाता था) प्रस्थान किया एवं चार्टर्ड लेखापालन के पाठ्यक्रम की आवश्यकता के अनुरूप चार्टर्ड लेखापालों की एक संस्था में प्रवेश प्राप्त किया। राजस्थान के सांभर झील नामक एक छोटे-से कस्बे से आया मैं महानगरीय युवकों (जिनका सान्निध्य मुझे उस संस्था से संबद्ध होने के उपरांत प्राप्त हुआ) हेतु एक परिहास का विषय बन गया। इसका एक कारण तो मेरा शुद्ध हिन्दी बोलना था, साथ ही कुछ अन्य कारण भी थे (अनेक महानगरीय युवक छोटे स्थानों से आने वाले छात्रों को हीनता की दृष्टि से भी देखते थे)। किंतु जिस कारण ने मुझे आज साढ़े तीन दशकों के उपरांत इस लेख के सृजन हेतु प्रेरित किया है, वह है उनके द्वारा किया जाने वाला देश-प्रेम जैसे आदर्श जीवन मूल्यों का उपहास एवं तिरस्कार।

मैं (न जाने कैसे) बालपन से ही आदर्शवादी बन गया था एवं महात्मा गांधी की भांति सत्य को ही ईश्वर का स्वरूप मानने लगा था। इसके अतिरिक्त मैंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले एवं प्राणाहुति तक देने वाले अनेक देशभक्तों की जीवनियां पढ़ी थीं। चंद्रशेखर आज़ाद, खुदीराम बोस, रासबिहारी बोस, बाघा जतीन, सूर्य सेन, कित्तूर की रानी चेन्नम्मा  आदि मातृभूमि पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने वाले देशभक्तों की जीवनियां पढ़कर न जाने कब मेरे मन में भी देश-प्रेम के बीज अंकुरित हो गए तथा मैं भी देश-प्रेम को एक बहुत उच्च आदर्श के रूप में अपने व्यक्तित्व में स्थापित कर बैठा। एकांत में जब भी मैं इन अमर देश-प्रेमियों की जीवन-कथाओं को (पुनः-पुनः) पढ़ता था तो कई बार मेरे नयन सजल हो उठते थे (ऐसा अब भी हो जाता है)। अपने विद्यालय तथा महाविद्यालय के जीवन में भी मैं अपने साथियों से इस संदर्भ में वार्ता किया करता था तो पाता था कि वे मेरी बातों को काटते तो नहीं थी किन्तु उनमें गंभीर रुचि भी नहीं लेते थे। इसका कारण मैंने यही समझा कि वे मेरी तुलना में कहीं शीघ्र ही परिपक्व एवं व्यावहारिक हो गए थे।

पर आगे के वर्षों में अपने कोलकाता प्रवास तथा (विभिन्न लेखा-परीक्षण संबंधी कार्यों हेतु) बाह्य स्थलों के लंबे-लंबे दौरों के मध्य जब मैंने ऐसी ही वार्ताएं अपने उन साथियों से कीं जो महानगरीय एवं साधन-संपन्न परिवेश में पले थे एवं अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा-प्राप्त थे तो मुझे अधिकांश साथी-विद्यार्थियों की प्रतिक्रियाओं ने पीड़ा-मिश्रित आश्चर्य से भर दिया। मेरे अधिकांश साथी-छात्र देश-प्रेम ही नहीं वरन अन्य आदर्शों एवं जीवन मूल्यों को भी उपहास की वस्तु ही समझते थे तथा (मेरे जैसा) आदर्शवादी एवं देश-प्रेमी युवक उनकी दृष्टि में मूर्ख के अतिरिक्त कुछ नहीं था। देश और समाज के विषय में सोचना भी उन युवाओं के बहुमत की दृष्टि में मूर्खता ही थी। और सत्य, न्याय, परोपकार एवं अन्य सद्गुण पुस्तकीय शब्द मात्र थे। उनके लिए जीवन का अर्थ मौज-मस्ती तथा अधिकाधिक धनार्जन ही था, और कुछ नहीं।  उस साढ़े तीन वर्षों की अवधि में तथा तदोपरांत अपने तीन दशक से अधिक लम्बे करियर में मैंने प्रायः यही जाना कि इस संसार का सबसे बड़ा सत्य है निहित स्वार्थ जिसके समक्ष समस्त जीवन मूल्य एवं सतोगुण गौण प्रतीत होते हैं। निज हित से हटकर कुछ और सोचने-देखने-चाहने वाला व्यक्ति सांसारिकता में रचे-बसे लोगों की राय में एक भावुक-मूर्ख (इमोशनल फ़ूल) ही होता है। रही बात देश-प्रेम की तो जिन्हें स्वतंत्रता बिना उसका मूल्य चुकाए तथा बिना उसके लिए कोई त्याग किए मिल गई, वे देश-प्रेम (और वीर बलिदानियों) का मोल क्या जानें ? 

सन २००६ में भारत के गणतंत्र दिवस के दिन एक हिन्दी फ़िल्म प्रदर्शित हुई - रंग दे बसंती। इसके कथानक में भी फ़िल्मकार (राकेश ओमप्रकाश मेहरा) ने कुछ ऐसे ही युवा दिखाए हैं जो मौज-मस्ती के अतिरिक्त जीवन का कोई अर्थ, कोई मूल्य नहीं समझते। देश-प्रेम जैसी बातें और देश की स्वाधीनतार्थ अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले अमर शहीदों की कथाएं तो उनके लिए मानो किसी अपरिचित भाषा की उक्तियां हैं। ऐसे में एक विदेशी युवती अपने स्वर्गीय पिता की दैनंदिनी (डायरी) के आधार पर मातृभूमि के हित अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले कतिपय क्रांतिकारियों पर एक वृत्तचित्र बनाने हेतु आती है। उसके पिता एक अंग्रेज़ अधिकारी थे जो माँ भारती की दासता की बेड़ियां काटने के लिए हँसते-हँसते फाँसी पर झूल जाने वाले क्रांतिकारियों के निकट सम्पर्क में रहकर उनसे बहुत प्रभावित हुए थे तथा उनकी गाथा ही उन्होंने लेखबद्ध की थी (ऐसे अनेक अंग्रेज़ अधिकारी वास्तव में थे जो देशभक्तों के अदम्य साहस, मातृभूमि पर मर-मिटने की उनकी भावना तथा उनके उदात्त विचारों से अत्यन्त प्रभावित हुए थे)। 
यह अंग्रेज़ युवती अपनी एक भारतीय सखी की सहायता से अपना वृत्तचित्र बनाने हेतु क्रांतिकारियों - चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ां तथा राज गुरु की भूमिकाओं हेतु इन्हीं खिलंदड़े युवकों को चुनती है जो पहले तो उसकी हँसी ही उडाते हैं किन्तु एक बार इन भूमिकाओं को निभाना स्वीकार कर लेने के उपरांत जब वे उन महान देशभक्तों के चरित्रों को समझते हैं तो उनके अपने विचारों में भी परिवर्तन आता है। दुर्गा भाभी की भूमिका हेतु वह अंग्रेज़ युवती अपनी भारतीय सखी को ही चुनती है जबकि पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की भूमिका हेतु एक ऐसे युवक को चुना जाता है जो इन युवकों के दल का नहीं है तथा जिसका इनसे सदा ही मतभेद बना रहता है। सब कुछ ठीकठाक हो रहा होता है कि एक दुखद घटना इन्हें बताती है कि स्वाधीन भारत में भी स्थितियां पराधीन भारत से मिलती-जुलती-सी ही हैं। और तब जिन क्रांतिकारियों का ये केवल अभिनय ही कर रहे थे, उन्हीं के जैसे भाव इनके मनोमस्तिष्क में उमड़ने लगते हैं। फ़िल्म का दुखद अंत होता है। दुखद ही हो सकता था। पर दर्शकों को तथा विशेषतः उन युवाओं को जिनके लिए खाना-पीना-मौज उड़ाना ही सब कुछ है, यह फ़िल्म बहुत कुछ सोचने के लिए दे जाती है।

कुछ कमियों के बावजूद 'रंग दे बसंती' में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे साधारण फ़िल्मों से अलग करता है। फ़िल्म में अभिनय, गीत-संगीत तथा तकनीकी पक्ष उच्च-स्तरीय हैं। पर जो सबसे बड़ी बात इसमें है, वह यह है कि फ़िल्मकार यह मानता है कि वतन पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले देशभक्तों में जो वतनपरस्ती का जज़्बा मौजूद था, वह आज की पीढ़ी में भी हो सकता है। किसी की भी आँखें कभी भी खुल सकती हैं। इस फ़िल्म में उस युग के क्रांतिकारियों तथा इस युग के (देशभक्त बन चुके) युवकों के मध्य जो समानांतर रेखाएं खींची गई हैं, वे अद्भुत हैं। साथ ही बिस्मिल और अशफ़ाक़ का भावनात्मक जुड़ाव यह बताता है कि वे देश-प्रेमी आपस में भी उतना ही प्रेम करते थे एवं धार्मिक विभाजन से ऊपर उठ चुके थे। यद्यपि मैं यह मानता हूँ कि मानवता का भाव देश-प्रेम से भी उच्च होता है, तथापि यदि केवल देश-प्रेम की ही बात की जाए तो सत्य यही है कि अपने देश को सुधारने तथा उच्चताओं पर ले जाने का दायित्व किसी अन्य का नहीं हमारा ही है। क्यों ? इसलिए कि यह देश हमारा है। अमर बलिदानी तो तूफ़ान से कश्ती निकाल कर ले आए, अब इस देश को सम्भाल कर रखना हमारी ही ज़िम्मेदारी है। देश तथा व्यवस्था में बहुत-सी कमियां हैं, माना। पर जैसा कि 'रंग दे बसंती' के ही एक पात्र का संवाद है - 'कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता, उसे परफ़ेक्ट बनाना पड़ता है।' 

तो आइए, आज़ादी का और इसके लिए मर-मिटने वाले अमर शहीदों की शहादत का मोल समझें और अपनी आने वाली नस्ल को भी समझाएं।

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14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छी पिक्चर है रंग दे बसंती। उसमें आपकी समीक्षा का क्या कहना? बहुत सुंदर, जितेंद्र भाई।

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  2. अत्यंत विवरणात्मक, सूक्ष्म बिंदुओं को छूती हुई गहन समीक्षा सर।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. अपने जीवनानुभवों की स्मृतियों के साथ “रंग दे बसंती” फ़िल्म की बेहतरीन समीक्षा जितेंद्र जी ! सादर वन्दे !

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  4. हमारी सबसे बड़ी पाठशाला जीवन का अनुभव ही है जो हमें बहुत कुछ सीखने और समझने के लिए प्रेरित करता है। "रंग दे बसंती "फिल्म की बहुत ही अच्छी समीक्षा की है आपने और निर्देशक कहना क्या चाहता है ये भी समझाया है। बच्चों में देश प्रेम की भावना तो बचपन से ही जगानी चाहिए। बहुत सुंदर प्रेरक लेख आदरणीय,सादर नमन

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  5. देश प्रेम प्रथम फिर कुछ और...ये जज्बा बहुत ज़रूरी है...👏👏👏

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    1. जी हाँ वाणभट्ट जी। आगमन एवं विचाराभिव्यक्ति हेतु आपका हार्दिक आभार।

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  6. सत्य और देशप्रेम की बातें करना मूर्खतापूर्ण ही लगता है ।मेरा जन्मदिन 2 अक्टूबर है मेरे लिए भी सत्य ही ईश्वर स्वरूप है और मेरा बचपन क्या आज भी महापुरुषों की जीवनी या समाज के लिये किया गया कार्य मुझे प्रेरणा देता है
    पर किसी के सामने बोलो तो वही भाव लोगो के रहते हैं

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    1. आप ठीक कह रही हैं। आपका आगमन मेरे लिए अत्यन्त सम्मान की बात है। आपके जन्मदिवस एवं विचारों को जानकर बहुत अच्छा लगा। हृदय की गहनता से आभार आपका।

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