बुधवार, 13 नवंबर 2024

यह लिखा है

हिन्दी फ़िल्म 'ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा' (२०११) में विश्व-भ्रमण पर निकले तीन मित्र - ऋतिक रोशन, फ़रहान अख़्तर तथा अभय देओल अपनी यात्रा के दौरान एक दिन पुरानी बातों को याद करते हुए उन बातों के संदर्भ में एकदूसरे से कहते हैं - 'यह भी लिखा था, वो भी लिखा था'। अर्थात् जो बातें वाक़या हुईं, उनका होना पहले से ही क़िस्मत ने लिख दिया था यानी नियत था उनका होना; वह टल नहीं सकता था। क्या यह सच है ? क्या होनी (या अनहोनी) पहले से तय हो जाती है ? 

मुझे ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलियनेअर' विशेष पसंद नहीं आई थी किन्तु जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा था, वह इस प्रकार थी - फ़िल्म के प्रथम दृश्य में परदे पर प्रश्न आता है - जमाल प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में भारी धनराशि जीतने की अवस्था में कैसे पहुँचा ? इस प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर भी परदे पर दिए गए हैं - अ‍. उसने बेईमानी की, ब. वह भाग्यशाली है, स. वह अत्यंत प्रतिभाशाली (genius) है, द. ऐसा होना लिखा है (it is written) अर्थात् ऐसा होना पहले से नियत था; उसके पश्चात् पूरे ढाई घंटे की फ़िल्म गुज़र जाती है तथा फ़िल्म के अंतिम दृश्य में प्रश्न का सही उत्तर परदे पर प्रकट होता है - द. ऐसा होना लिखा है (अर्थात् यह प्रारब्ध ने तय कर दिया था)।

मैं पुरुषार्थ की महिमा से भली-भांति परिचित हूँ तथा मानता भी हूँ कि मानव को पुरुषार्थ से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। कृष्ण भी गीता में यही कहते हैं कि अकर्म में आस्था नहीं होनी चाहिए एवं गोस्वामी तुलसीदास भी मानस में यही कहते हैं-'दैव दैव आलसी पुकारा'। किन्तु कृष्ण गीता में यह भी कहते हैं कि आपका कर्म पर ही अधिकार है, फल पर नहीं। क्या अर्थ है इस बात का ? यही न कि कर्म करते रहो पर उसका फल या अभीष्ट आपके भाग्यानुसार (जैसा कि प्रारब्ध ने आपके लिए नियत कर दिया है) ही आपको मिलेगा ? 

मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिनके होने की मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। और ऐसी भी अनेक घटनाएं घटते‌-घटते रह गई हैं जिनके होने के लिए मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार था और मानकर चलता था कि वे तो होंगी ही। अर्थात् जो सोचा, वो न हुआ एवं जिसके होने की दूर-दूर तक अपेक्षा न की, वो हो गया। क्या है इसका राज़ ? यही कि सृष्टि में जो कुछ भी होता है, वह पहले से तय है। विधि का विधान है वह जो टलता नहीं। और जो विधि के विधान में होना नहीं लिखा है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं होने वाला।

आप मुझे भाग्यवादी कह सकते हैं। पर मैं सदा से भाग्यवादी नहीं था। मुझे भाग्यवादी बनाया है जीवन के निरंतर होते रहने वाले अनुभवों ने। अप्रैल २०२१ में जब मूर्धन्य कवयित्रियों वर्षा सिंह तथा शरद सिंह की माताजी विद्यावती जी अस्वस्थ थीं तो मेरे मन में कई बार आता था कि मैं किसी प्रकार उनसे सम्पर्क साधकर उनकी माताजी का कुशल-क्षेम पूछूं किन्तु मैं उनसे सम्पर्क करने का कोई साधन ढूंढ़ ही नहीं पाया। फिर जब उनकी माताजी के देहावसान का समाचार मिला तो उनके दुख में मैंने भी स्वयं को सम्मिलित अनुभव किया। लेकिन जब उनकी माताजी के देहांत के मात्र बारह दिन बाद ही वर्षा जी अकस्मात् चल बसीं तो मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ। इतना समय बीत चुकने के उपरांत भी यदि मैं कहूँ कि मैं उस आघात से पूर्णतः उबर गया हूँ तो यह असत्य ही होगा। क्या स्पष्टीकरण है उनके असामयिक निधन का सिवाय इसके कि उनका जाना ऐसे ही लिखा था ? क्या हैं हम लोग ? क़िस्मत या प्रारब्ध या नियति के हाथ की कठपुतलियां, बस! होना तो वही है जो कर्म की रेख ने पहले ही लिख दिया है, आप चाहे जो कर लें। जो होना है, अपने वक़्त पर होकर ही रहेगा आप बचने के जितने चाहे प्रयास कर लें। और इसी तरह जो नहीं होना है, वो नहीं ही होगा आप उसे करने के चाहे जितने जतन कर लें।

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा ने अपने उपन्यास 'रामबाण' में इस बात को रेखांकित किया है कि विधि के विधान में हस्तक्षेप किसी को नहीं करना चाहिए। विधि ने हमारे जीवन में जो एक अनिश्चितता रखी है (हम अपना भविष्य नहीं जान सकते), उसे स्वीकार करना चाहिए। जब होनी टल नहीं सकती और जो अनहोनी है, वो हो नहीं सकती तो भविष्य को जानकर भी हम क्या करेंगे ? 

जोसेफ़ मर्फ़ी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक 'आपके अवचेतन मन की शक्ति' में यह प्रतिपादित किया है कि मनुष्य के अवचेतन मन में यह शक्ति है कि वह आपकी इच्छाओं को पूरा कर सकता है। कुछ सीमा तक उनका यह सिद्धांत ठीक लगता है किन्तु जब विभिन्न व्यक्तियों की इच्छाएं परस्पर विरोधी हो जाएं तो क्या होगा ? उत्तर स्पष्ट है - वही होगा जो पहले से नियत है, जो प्रारब्ध ने पहले ही सुनिश्चित कर दिया है। 

पच्चीस वर्ष पूर्व उनतीस मार्च, सन उन्नीस सौ निन्यानवे को मैं मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर चलती हुई रेलगाड़ी से नीचे जा गिरा। मेरे बाएं हाथ की हड्डी गंभीर रूप से टूट गई तथा मुझे दो बार शल्य-क्रिया से गुज़रना पड़ा। ठीक होने में महीनों लगे तथा मेरे हाथ में एक असामान्यता स्थायी रूप से आ गई। इसके कारण मैंने बहुत कुछ सहा पर अंततः यही माना कि शायद यह मेरे प्रारब्ध में लिखा था। मैंने इस घटना का उल्लेख अपने संघर्ष फ़िल्म पर लिखे गए लेख में किया है।

क़रीब दो माह पूर्व चार सितम्बर को मैं पुनः दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा मेरे हाथ की पच्चीस वर्ष पूर्व टूटी हड्डी पुनः टूट गई। एक बार पुनः मुझे शल्य-क्रिया तथा उसके बाद की जाने वाली चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ा। इन दिनों मेरी फ़िज़ियोथेरापी चल रही है। एक बार फिर बहुत कुछ मैं सह गया (और अभी भी सह रहा हूँ)। मेरे साथ-साथ मेरे परिवार ने भी इसके कारण बहुत सहा है। इस बार तो दुर्घटना के पीछे मैं अपनी कोई ग़लती भी नहीं ढूंढ़ पा रहा। फिर यह क्यों हुई ? क्योंकि होनी लिखी थी। और इसका क्या स्पष्टीकरण हो सकता है ?

दुर्घटना तो फिर भी बड़ी बात है। मैंने तो अपने जीवन में पाया है कि ज़िन्दगी आपको क़दम-क़दम पर चौंकाती है (सरप्राइज़ देती है)। अच्छे सरप्राइज़ भी मिलते हैं, बुरे भी। जो आपको उल्लास से भर दें, ऐसे सरप्राइज़ भी और जो आपको आघात पहुँचाएं, ऐसे सरप्राइज़ भी। जीवन की छोटी-से-छोटी घटनाओं के पीछे ऐसे कारक हो सकते हैं जिन्हें समझ पाना अथवा जिनकी व्याख्या कर पाना संभव नहीं। आप कुछ न करना चाहें पर अगर आपके हाथ से कुछ ऐसा होना बदा हो तो बानक आप-से-आप ही ऐसे बनते चले जाते हैं कि आप वही करते हैं जो नहीं करने के लिए मन पक्का कर चुके थे। आपकी नियति आपको खींचकर उसी पथ पर ले जाती है और आप नियति की शक्ति के समक्ष विवश हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है - मेरे मन कछु और है, विधना के कछु और।

मैं आत्म-सुधार का विरोधी नहीं। अपनी भूलों को महसूस करके उनसे सबक़ सीखना और आगे के लिए ख़ुद में सुधार करना ही जीवन जीने का सही मार्ग है। बस बात इतनी-सी है कि हम प्रारब्ध (या नियति या विधि का विधान या कर्म की रेख या भाग्य) के अस्तित्व को स्वीकारें तथा बात-बात पर ख़ुद को (या दूसरों को) न कोसें। कभी-कभी इसी सोच से अपने मन को सांत्वना दें कि यही होना लिखा था।

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