लिखना-पढ़ना
दोनों ही तक़रीबन छोड़ चुका हूँ। मगर आज रहा नहीं जा रहा। दिल में जो घुमड़ रहा है, उसे
अल्फ़ाज़ की शक्ल में न उतारा तो यह उस क़लम के साथ बेईमानी होगी जिसने मुझे हमेशा ही
सुकून बख़्शा है। मुझे क़लम उठाने पर मजबूर कर दिया है हिन्दुस्तान की उन बेटियों ने
जो दुनिया में अपने वतन का नाम रौशन करने के बावजूद उसी वतन में इंसाफ़ की गुहार
लगाती हुईं देहली की ज़मीन पर बैठी हैं, बेतहाशा गर्मी में भी खुले
आसमान के नीचे सो रही हैं और मुल्क के निज़ाम से बार-बार कह रही हैं - हमने तो
हमेशा मुल्क का नाम रौशन ही करना चाहा है, हमारी आवाज़ भी तो सुनो।
यह है
मेरा देश जहाँ नेता 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा तो दे सकते हैं लेकिन उन्हीं बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त की
ज़िन्दगी देने में उन्हें मौत आने लगती है। यह देखना पड़ने लग जाता है कि बेटियों
की इज़्ज़त पर नज़र गड़ाए बैठा शख़्स कोई वोटों का सौदागर तो नहीं जिसके बरख़िलाफ़ जाने
पर वोटों का नुक़सान हो सकता हो। दूसरी पार्टी का होता तो अब तक सींखचों के पीछे
होता पर अपनी पार्टी का है तो क्या करें ? चुनावी जीत और सत्ता से
बढ़कर क्या है ? कुछ नहीं ! वतन की बेटियों की इज़्ज़त भी नहीं। अब हिन्दुस्तान की ये
बेयारोमददगार बेटियां करें तो क्या करें ? कौन है इनका मुहाफ़िज़ ? किससे
उम्मीद की जा सकती है इस बाबत ? मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री के देश में इन बेटियों के मन की पी
कुछ वर्षों पूर्व हिन्दी फ़िल्म 'दंगल' की समीक्षा में मैंने कहा था कि महावीर सिंह फोगाट की दो बेटियों गीता और बबीता की सफलता की यह कहानी केवल एक फ़िल्म नहीं, एक सामाजिक अभिलेख है, एक महागाथा है भारतीय ललनाओं की अथाह प्रतिभा की और सभी बाधाओं को पार करके गंतव्य तक पहुँचने के उनके अदम्य साहस और स्पृहणीय जीवट की । आज गीता और बबीता की चचेरी बहन विनेश संघर्ष कर रही है अपनी अन्य पहलवान बहनों के साथ उस जंगल में जिसे हम 'भारतीय व्यवस्था' कह सकते हैं - एक क्रूर व्यवस्था, एक हृदयहीन व्यवस्था जिसमें न्याय तो न्याय, संवेदना के निमित्त भी कोई स्थान दृष्टिगोचर नहीं होता।
छह
अगस्त दो हज़ार सोलह को सभी भारतीय उस समय प्रसन्नता से झूम उठे थे जब साक्षी मलिक
ने रियो ओलम्पिक में महिला कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया था। रियो
ओलंपिक में कुल मिलाकर भारत का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था एवं केवल दो ही पदक
प्राप्त हो सके थे जो महिला खिलाड़ियों ने ही जीते थे (दूसरा पदक पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में
जीता था)। ऐसे में साक्षी की सफलता सम्पूर्ण देश की कन्याओं हेतु प्रेरणा बन गई
थी। आज वही साक्षी कड़ी धूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठी है ताकि उसे तथा उस
जैसी अन्य उत्पीड़ित महिला पहलवानों को न्याय मिले। क्या मिलेगा ?
बहुत दुख होता है यह देखकर कि देश की इन प्रतिभाशाली किन्तु पीड़ित बेटियों का साथ देने वाले बहुत कम हैं। सत्ता से तो आशा ही क्या होती, निराशा तो समाज से हो रही है। विनेश की चचेरी बहन बबीता तो अब सत्ताधारी दल का ही अंग हैं। क्या वे सत्ता को (अथवा सत्ताधारी दल को) इस दिशा में जागृत कर सकेंगी ? इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा करना भी चाहेंगी क्योंकि राजनीति सब कुछ लील जाती है - कला, साहित्य, पत्रकारिता, खेल, समाज-सेवा और यहाँ तक कि मानवता को भी। यह काजल की वो कोठरी है जिसमें जाकर कोई कलाकार नहीं रहता, साहित्यकार नहीं रहता, पत्रकार नहीं रहता, खिलाड़ी नहीं रहता, समाज-सेवी नहीं रहता; प्रत्येक प्रतिभा कलंकित हो जाती है (एक लीक काजर की लागि है पै लागि है) और बचती है केवल घात-प्रतिघात की राजनीति। और मीडिया ? वह तो कभी का सत्ता के हाथों बिक चुका है।
मैं नमन
करता हूँ बजरंग पूनिया तथा रवि दहिया जैसे पहलवानों को जो अपनी बहनों को न्याय
दिलाने के लिए (अपना फलता-फूलता खेल-जीवन दांव पर लगाकर भी) उनके साथ हैं तथा इस
संघर्ष में उन्हें एकाकी नहीं पड़ने दे रहे। नारी-मुक्ति का शोर मचाने वालियों को
यदि इन पुरुषों का नैतिक साहस देखकर भी लज्जा नहीं आ रही है तथा वे जंतर-मंतर पर
बैठी उत्पीड़ित प्रतिभाओं के समर्थन में आगे नहीं आ रही हैं तो धिक्कार है उन पर !
देश की अनमोल धरोहर ये बेटियां कोई पहली बार न्याय हेतु धरने पर नहीं बैठी हैं। असह्य गर्मी से पूर्व वे असह्य सर्दी में भी ऐसा कर चुकी हैं। तब इन भोली-भाली बच्चियों को एक समिति बनाकर भरमाया गया था यह कहकर कि समिति की जाँच के अनुरूप उन्हें न्याय प्रदान करने के निमित्त उचित क़दम उठाए जाएंगे। धोखा हुआ इनके साथ। समिति ने क्या जाँच की और क्या रिपोर्ट दी, यह प्रकाश में ही नहीं आने दिया गया। हालत यह है कि सत्ता के इशारों पर नाचती पुलिस इन बच्चियों के द्वारा की जा रही अपने उत्पीड़न की शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ़.आई.आर.) दर्ज़ करने जैसा मामूली काम भी नहीं कर रही है। अगर देश की चैम्पियन बेटियों को अपने साथ हुए अत्याचार की एफ़.आई.आर. लिखवाने के लिए भी धरना देना पड़े तो कैसे कहें - मेरा भारत महान ? क्या 'दंगल' फ़िल्म में 'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के ?' पूछने वाले आमिर ख़ान (तथा उनके साथ मिलकर 'दंगल' का निर्माण करने वाला पूरा दल) इस संदर्भ में कोई टिप्पणी करना चाहेंगे ? हिम्मत बची है उनमें ? या सत्ता के ख़ौफ़ ने उनके भीतर की आग को बुझा दिया है।
अब कौन माता-पिता अपनी बेटियों को जीवन में आगे बढ़ने हेतु खेल प्रशिक्षण केन्द्रों में निस्संकोच जाने देंगे ? कौन माता-पिता खेल के मैदान में प्रगति करने हेतु घर से दूर जाने वाली अपनी बच्चियों की सुरक्षा के निमित्त चिंतित नहीं होंगे ? क्या अब माता-पिता अपनी बेटियों को यह कहकर रोकेंगे नहीं कि बेटा, ठहर जाओ, आगे ख़तरा है ? और जब ओलंपिक, विश्व चैम्पियनशिप, एशियाई खेल तथा राष्ट्रमंडल खेल जैसी प्रतियोगिताओं में देश के लिए पदक जीतने वालों की कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो सामान्य उत्पीड़ितों (तथा उत्पीड़िताओं) के लिए क्या उम्मीद रहती है, सहज ही समझा जा सकता है।
श्रेष्ठ
कवि-कवयित्रियों से सुसंपन्न ब्लॉग जगत के इस संदर्भ में चुप्पी साधे रहने के विषय
में मेरा कुछ न कहना ही सब कुछ कह देने हेतु पर्याप्त रहेगा, ऐसा मेरा मानना है। वैसे भी इस परिप्रेक्ष्य में
अपनी पीड़ा मैं अपनी विगत पोस्ट में ही अभिव्यक्त कर चुका हूँ।
बहुत मुश्किल है यह दंगल विनेश, साक्षी
और उनकी साथी बहनों (तथा उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े उनके पहलवान भाइयों) के
लिए क्योंकि यहाँ उनके सामने उनके जैसे प्रतिस्पर्द्धी नहीं हैं, व्यवस्था
है जो बहुत शक्तिशाली है। क्या उनका जीवट उस ताक़त से लोहा ले सकेगा जो कुर्सियों
में होती है (और है) ?
भारत के
प्रधानमंत्री तक जिनसे हँस-हँसकर बातें कर चुके हैं, जिन्हें सम्मानित कर चुके हैं, जिन्हें राष्ट्र के युवाओं हेतु प्रेरणा-स्रोत बता चुके हैं; संसार में देश का मान बढ़ाने वाली उन युवा
प्रतिभाओं का दर्दभरा स्वर क्या रायसीना की पहाड़ियों में कहीं किसी को सुनाई दे रहा है ?
कौन जाने ?
© Copyrights reserved
आपका इस मुद्दे पर लेख देख कर अच्छा लगा !इससे अधिक बुरा क्या होगा कि जिन्हें जेल में होना चाहिए वे कुर्सी पर बैठे गुलछर्रे उड़ा रहे हैं और जिन्हें मैट पर प्रैक्टिस करना चाहिए वे सड़क पर प्रैक्टिस करने पर मजबूर है क्योंकि उन्हें अपने आत्मसम्मान के लिए लड़ना है पर सरकार ने तो जैसे आंखों में पट्टी बाँध रखी है कुछ दिख ही नहीं रहा ! कड़वा सच तो यह है कि विपक्षियों के लिए बुलडोजर चलाने का एक अलग ही नियम बना रखा है लेकिन अपनो के सात खून माफ़ करने का नियम!
जवाब देंहटाएंमैंने भी इस मुद्दे पर कुछ महीने पहले एक लिखा था आप चाहें तो पढ़ सकते हैं!
शुक्रिया मनीषा जी. मैं आपका लेख ज़रूर पढूंगा. मैंने पढ़ना और लिखना दोनों ही लगभग छोड़ दिए है. वजह पिछले लेख में बताई थी. हमारे ब्लॉगरों का इस बारे में चुप बैठे रहना भी क्या यह नहीं बताता कि यहाँ भी संवेदनहीनता ही बसी है?
हटाएंसबकी हिम्मत जवाब दे चुकी है और जिनमे हिम्मत बची भी है तो कब तक, कहा नहीं जा सकता।जहां तक ब्लॉग जगत की बात है, यह पहले ही कई पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर कई खेमों में बटा हुआ है तो ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर यहां शायद ही कोई लेख या कविता दिखेगी। आपकी शुरुआत शायद चुप्पी साधे हुए लोगों के लिए प्रेरणा बनेगी। शुक्रिया सबको आईना दिखाने के लिए।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका यशवंत जी जो आप इस पृष्ठ पर आए तो। बाक़ी की तो हिम्मत यहाँ आकर कोई टिप्पणी करने की भी नहीं हो रही है। इस देश के तथाकथित मुखर लोग या तो थक चुके हैं या बिक चुके हैं या डरे हुए हैं। ब्लॉग जगत के संबंध में आपकी बात ही सच है। यहाँ पूर्वाग्रहों का इस सीमा तक बोलबाला हो गया है कि सबकी संवेदनाएं मानो स्थायी रूप से सुप्त हो गई हैं।
हटाएंयह है मेरा देश जहाँ नेता 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा तो दे सकते हैं लेकिन उन्हीं बेटियों को हिफ़ाज़त और इज़्ज़त की ज़िन्दगी देने में उन्हें मौत आने लगती है। यह देखना पड़ने लग जाता है कि बेटियों की इज़्ज़त पर नज़र गड़ाए बैठा शख़्स कोई वोटों का सौदागर तो नहीं जिसके बरख़िलाफ़ जाने पर वोटों का नुक़सान हो सकता हो। दूसरी पार्टी का होता तो अब तक सींखचों के पीछे होता पर अपनी पार्टी का है तो क्या करें ? चुनावी जीत और सत्ता से बढ़कर क्या है ? कुछ नहीं ! वतन की बेटियों की इज़्ज़त भी नहीं।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने जितेन्द्र जी मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ परन्तु एक और प्रश्न भी मन में उठता है कि ये सभी महिलाएं सक्षम एवं आत्मनिर्भर होकर भी अभी तक सब सहन क्यों करती रही ।क्यों नहीं आवाज उठाई इन्होंने तब ही जब इन पर गुजर रही थी ? क्या कैरियर आत्मसम्मान और इज्ज़त से बढ़कर था ? जब आत्मनिर्भर और सक्षम होकर इन्होंने सही समय और सही मंच का इंतजार किया तो बाकी स्त्रियों को तो क्या ही कहने ...
ऐसे मे न्याय के इंतजार को भी सब्र से देख रहे है ।फिर लिखें तो क्या लिखे ।बस यही लगता है कि ये सियासत समझना आसान नहीं यहाँ सब गोलमाल है...।
आगमन हेतु धन्यवाद आदरणीया सुधा जी। देश का प्रतिनिधित्व करने का अवसर प्राप्त करने के लिए भी बहुत कुछ सहना पड़ता है जिसे देने का अधिकार ऐसे ही शक्तिशाली लोगों के पास होता है जो ऊंची कुर्सियों पर बैठे होते हैं। इन बच्चियों ने पहले भी उपलब्ध प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने साथ हो रहे अनाचार को सूचित किया था लेकिन प्रक्रियाएं भी उसी हृदयहीन व्यवस्था का अंग होती हैं जो शक्तिशाली व्यक्तियों के संकेतों पर चलती हैं, इसीलिए इनकी व्यथा को उजागर ही नहीं होने दिया गया, इनके पीड़ायुक्त स्वर को दबा दिया गया। जिस व्यक्ति के विरूद्ध बात हो रही है उसने तो एक हत्या की होने की बात कैमरों के समक्ष स्वीकारी है (जिसका वीडियो सर्वत्र उपलब्ध है), तिस पर भी वह न केवल स्वतंत्र है एवं खेल प्राधिकरण का प्रमुख बना बैठा है वरन जनप्रतिनिधि भी है। ऐसे ताक़तवर लोगों के पास पीड़ितों को धमकाने के भी अनेक मार्ग होते हैं। अभी भी इन बच्चियों तथा इनका साथ देने वाले पुरुष पहलवानों को धमकाया जा रहा है। ये कोई सियासत नहीं, औरतों के दर्द का सवाल है जिससे औरतें ही बेख़बर मालूम होती हैं। दूसरे के दर्द का अहसास तभी होता है जब ख़ुद पर गुज़रती है। जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई।
हटाएंआपद घड़ी में अपना साया भी साथ छोड़ देता है ।
जवाब देंहटाएंयह कहावत यूँ ही नहीं बनी जितेन्द्र जी । अपने स्वार्थ जहाँ बड़े हो वहाँ मानवता पूर्ण व्यवहार की आशा व्यर्थ है । विनेश फोगाट और उसकी साथी बहनों की पीड़ा में उनका साथ देने वाले पहलवान बन्धुओं का मानवता के भाव को पोषित करने वाला कदम सराहनीय है । सामयिक सामाजिक मुद्दे पर गहन सृजन ।
हृदय के तल से आपका आभार प्रकट करता हूँ माननीया मीना जी।
हटाएंजी जितेन्द्र जी,हरियाणा की बेटियों के न्याय और संघर्ष पर आपका ये लेख बेटियों के लिये व्याय की सशक्त पैरवी करता है।और हर संवेदनशील व्यक्ति को ये करना भी चाहिये।सच तो ये है कि पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्रों में जब से बेटियों ने पैर रखा है प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके साथ होने वाले अनैतिक व्यवहार की खबरें जब -तब सुनाई पड़ती रही हैं जिन्हें कुछ समय बाद दबा दिया जाता है।पर यदि नारी सशक्तीकरण का प्रतीक ये बेटियाँ शुरुआत में ही इस तरह के दुस्साहसॉ की कलई खोल दें तो अपने साथ दूसरी बेटियों का जीवन तबाह होने से बच सकता है।दूसरे अवसरवादी लोग हर जगह मौजूद हैं।अपना काम निकालकर दूसरों को गिराने वाले
जवाब देंहटाएंस्वार्थी लोग कम नहीं हैं।किसी समय फिर भी ईमानदारी रही होगी पर अब हर जगह भाई भतीजावाद का वर्चस्व कायम है।कितने साल वर्ग विशेष की सरकार ने अपने समाज के लोगों का खूब भला किया और हर सरकारी नौकरी विशेषकर बड़ी नौकरियों में ये ही वर्ग हावी रहा। बहुत मेहनत के बावजूद आम वर्ग के कितने लोगों के हाथ नौकरी ना लग पाई। उम्र निकल गयी,सो इस तरह के प्रकरण राजनीति से अछूते हों ये नहीं हो सकता।हाँ अगर आरोप सच्चे हैं तो देर -सवेर बेटियों के साथ न्याय जरुर हो यही कामना है।संवेदनशील लेख के लिए साधुवाद
पीड़ित को न्याय मिले एवं यथाशीघ्र मिले, मेरी तो यही कामना है आदरणीया रेणु जी. देश की बेटियाँ हैं ये जिनका इनके संघर्ष में साथ देना सभी का कर्तव्य है. बहुतबहुत आभार आपका.
जवाब देंहटाएं