गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

ससुराल की रोटियां मत तोड़िए

(यह लेख मूल रूप से विगत वर्ष होली के त्योहार के उपरांत 18 मार्च, 2020 को प्रकाशित हुआ था) 

होली गए हुए सप्ताह भर से ऊपर हो गया है । प्रत्येक रविवार की तरह इस आठ मार्च को भी दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर प्रातः 'रंगोली' कार्यक्रम आया था जो हिंदी फ़िल्मी गीतों पर आधारित होता है तथा जिसे इन दिनों 'फूल और कांटे' (१९९१) तथा 'रोजा' (१९९२) जैसी फ़िल्मों से प्रसिद्ध हुईं वरिष्ठ अभिनेत्री मधु प्रस्तुत करती हैं । स्वाभाविक ही है कि जब होली के पर्व से ठीक पहले 'रंगोली' प्रस्तुत किया जा रहा था तो होली से संबंधित गीत ही दिखाए जाने थे । उस दिन इस कार्यक्रम में दर्शाए गए विभिन्न होली गीतों में से एक गीत था - 'मल दे गुलाल मोहे, आई होली आई रे' । यह गीत एक अत्यंत मर्मस्पर्शी गीत है क्योंकि इसमें केवल होली का उत्साह ही नहीं, विरहिणी नायिका की अपने पति के वियोग की व्यथा भी दिखाई गई है जो अपने बहन-बहनोई को प्रेमपूर्वक एकदूसरे को रंग लगाकर होली खेलते हुए देखकर और भी बढ़ जाती है । दीर्घकाल के अंतराल के उपरांत इस गीत को देख-सुनकर न केवल मुझे बहुत अच्छा लगा बल्कि मुझे उस फ़िल्म की भी स्मृति हो आई जिसका यह गीत है । इस गीत को लेकर आने वाली हिंदी फ़िल्म थी - कामचोर (१९८२) ।

 

'कामचोर' यद्यपि व्यावसायिक दृष्टि से सफल फ़िल्म थी तथापि फ़िल्म की उत्तम गुणवत्ता को देखते हुए मैं यही कहूंगा कि इस फ़िल्म को वह सराहना नहीं मिली जिसकी यह अधिकारिणी है । फ़िल्म मनोरंजक तो है ही, प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी भी है । अभिनेता राकेश रोशन ने इसी फ़िल्म से प्रथम बार फ़िल्म-निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा ।  इस फ़िल्म के निर्देशक के. विश्वनाथ हैं जिनकी तेलुगु फ़िल्म 'सुभोदयम' (१९८०) का ही यह हिन्दी संस्करण है । राकेश रोशन ने स्वयं ही फ़िल्म के नायक की भूमिका (शीर्षक भूमिका) निभाई है जबकि नायिका की भूमिका में जयाप्रदा हैं । एक हास्य फ़िल्म की भाँति आरंभ होकर यह फ़िल्म कब एक भावपूर्ण तथा प्रेरक फ़िल्म में ढल जाती है, दर्शक को पता ही नहीं चलता । फ़िल्म आदि से अंत तक बाँधे रखती है एवं समाप्त हो जाने के उपरांत भी एक मधुर स्मृति के रूप में दर्शक के साथ रहती है । 



यह कथा है एक कामचोर युवक की जो बिना परिश्रम किए विलासितापूर्ण जीवन जीना चाहता है तथा इसके निमित्त एक उद्योगपति की पुत्री को अपने प्रेमजाल में फंसाकर उससे विवाह कर लेता है । उसकी सोच यह है कि अब घर-जमाई बनकर जीवन भर ससुराल वालों के धन के बल पर ऐश्वर्यपूर्वक रहना है । उसकी इस सोच को बल इस तथ्य से मिलता है कि उसकी बड़ी साली विवाह के उपरांत भी अपने पिता के घर में ही रहती है एवं उसका साढ़ू पहले से ही घर-जमाई बनकर ससुराल के घर ही नहीं ससुर के व्यवसाय पर भी अधिकार किए बैठा है । किन्तु उसकी स्वाभिमानी पत्नी की सोच यह नहीं है । वह विवाह के उपरान्त अपने पीहर में नहीं, अपने पति के घर में रहना चाहती है चाहे उसके पति की आय कम हो तथा पति के घर में उसे अपने पिता के घर जैसा वैभवशाली जीवन न मिले । उसके लिए अपना ही नहीं, अपने पति का भी सम्मान महत्वपूर्ण है तथा वह चाहती है कि उसका पति उसके जीजा की तरह घर-जमाई न बनकर उसे अपने घर ले जाए जहाँ वह सच्चे अर्थों में गृहस्वामिनी बनकर रहे, पति कम कमाए तो रूखी-सूखी खाकर ही जिये लेकिन आत्मसम्मान के साथ जिये ।

विवाह के उपरान्त अपनी पत्नी के ये विचार जानकर कामचोर नायक दुविधा में पड़ जाता है कि क्या करे तथा किस बहाने से अपने ससुराल में ही रहता रहे । पत्नी को यह तो बता नहीं सकता कि उसके पिता की धन-सम्पत्ति तथा ससुराल के राजसी जीवन के लिए ही उसने उस निर्दोष कन्या को अपने प्रेमजाल में फंसाया था । पर सत्य कब तक छुप सकता है ? एक दिन नशे की हालत में उसके मुँह से सच्चाई पत्नी ही नहीं, सबके सामने निकल जाती है । और तब अपने अंदर एक गहरा घाव लिए हुए उसकी पत्नी टूटे दिल से उसे अपनी निगाहों तथा ज़िन्दगी से दूर कर देती है । प्रेमपूर्ण मिलन का समय समाप्त हो जाता है तथा विरह की लंबी घड़ियां आरंभ हो जाती हैं । नायिका को तो सदा से ही नायक से सच्चा प्रेम था लेकिन अब बिछुड़ने के उपरान्त नायक को भी उसके प्रति अपनी सच्ची भावनाओं का पता चलता है । उसे अपनी भूल भी समझ में आती है । उसे उसकी पत्नी ही नहीं, भाई-भाभी भी ग़लत ही समझते हैं और वह एकदम अकेला हो जाता है । कई मोड़ लेने के बाद फ़िल्म की कहानी नायक-नायिका के मिलन के साथ सुखद अंत को प्राप्त होती है ।

 

इस मनोरंजक फ़िल्म की कहानी जितनी अच्छी है, उतना ही अच्छा उसका प्रस्तुतीकरण है । फ़िल्म के कई दृश्य सीधे मन की गहराई में उतर जाते हैं । ससुराल पर निर्भर न रहकर अपने सामर्थ्य के आधार पर जीने का अनमोल संदेश भी यह फ़िल्म उपदेशात्मक रूप में न देकर सहज-स्वाभाविक एवं मनोरंजक रूप में देती है । फ़िल्म के संवाद भी अच्छे हैं तथा कला-निर्देशन एवं अन्य पक्ष भी प्रभावी हैं । निर्माता तथा नायक के भाई राजेश रोशन ने सुमधुर संगीत दिया है जबकि इंदीवर ने सुंदर गीत लिखे हैं ।

शीर्षक भूमिका में राकेश रोशन ने प्रभावशाली अभिनय किया है । माथे पर बिंदिया और माँग में सिंदूर लिए, गले में मंगलसूत्र डाले, बालों की लंबी चोटी बनाकर साड़ी में सजी एक भरीपूरी भारतीय विवाहिता की भूमिका के लिए जयाप्रदा से अधिक उपयुक्त और कोई अभिनेत्री हो ही नहीं सकती थी । धनी परिवार की पुत्री होकर भी अपना सम्मान अक्षुण्ण बनाए रखते हुए पति के साथ अभावों में जीने को तत्पर युवती के रूप में उन्होंने अभिनय भी अत्यंत प्रशंसनीय किया है । नायक के ससुर के रूप में स्वर्गीय श्रीराम लागू, भाई-भाभी की भूमिकाओं में स्वर्गीय सुजीत कुमार एवं तनूजा, नायिका के बहन-बहनोई की भूमिकाओं में नीता मेहता एवं सुरेश ओबराय आदि के साथ-साथ अन्य सहायक कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है ।

 

जैसा कि मैंने इस लेख के द्वितीय परिच्छेद में ही कहा है - यह फ़िल्म अंडर-रेटेड है अर्थात् उत्तम होकर भी अधिक चर्चित एवं प्रशंसित नहीं रही । लेकिन मैं सभी हिंदी सिने-प्रेमियों को इस फ़िल्म को देखने की सलाह देते हुए इसके सार-तत्व को रेखांकित करता हूँ - यदि आप विवाहित पुरुष हैं तो अपनी पत्नी तथा संतानों का भरण-पोषण स्वाभिमान के साथ अपने घर में रहकर अपने परिश्रम से अर्जित आय से कीजिए । यही शिक्षा है इस फ़िल्म की कि घर-जमाई मत बनिए और कभी ससुराल की रोटियां मत तोड़िए । घर-जमाई की कद्र न दुनिया करती है, न उसकी बीवी करती है ।

 

© Copyrights reserved 

27 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :

    pranita deshpandeMarch 18, 2020 at 5:55 AM
    Beautiful post.

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 19, 2020 at 2:33 AM
    Hearty thanks Pranita Ji.

    Vartika GoyalMarch 18, 2020 at 7:35 AM
    Nice post

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 19, 2020 at 2:34 AM
    Hearty thanks Vartika Ji.

    विकास नैनवाल 'अंजान'March 19, 2020 at 12:41 AM
    बेहतरीन पोस्ट। फिल्म शायद मैंने बचपन में देखी थी लेकिन अब इसकी याद धुंधली सी है। दोबारा जरूर देखूँगा। आभार।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 19, 2020 at 2:34 AM
    हार्दिक आभार विकास जी ।

    Jyoti DehliwalMarch 19, 2020 at 9:13 AM
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 23, 2020 at 10:18 PM
    हार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी ।

    GuthliyanMarch 19, 2020 at 9:26 AM
    Bahut sundar

    Reply
    जितेन्द्र माथुरMarch 23, 2020 at 10:19 PM
    Hearty thanks.

    रेणुJune 13, 2020 at 3:25 AM
    जितेंद्र जी हमारे लोक जीवन में एक युक्ति बहुत प्रसिद्धहै । बहन घर भाई कुत्ता , सास घर जँवाई कुत्ता। हालांकि ये युक्ति मुझे खराब लगती है , क्योकि आज के बदलते युग में बेटियों पर ही धीरज रखने वाले लोग अनेपक्षित रूप से बेटी -दामाद पर आश्रित हो जाते हैं। पर स्वाभिमान है तो सब है। खाली संपति के लालच में ससुराल में हो रहना और औपचारिक प्रेम दरशाने से खराब कुछ नहीं। कामचोर बहुत बचपन में देखी थी । फिर दुबारा सी d से देखी
    थी ।मुझे लगता है राकेश रोशन इस फिल्म से ज्यादा किसी फिल्म में नहीं जचे।

    Reply
    जितेन्द्र माथुरJune 14, 2020 at 3:41 AM
    आपकी बात बिल्कुल ठीक है रेणु जी । स्वाभिमान से बढ़कर कुछ नहीं होता । और सचमुच ही राकेश रोशन इतने प्रभावी किसी और फ़िल्म में नहीं लगे ।

    रेणुJune 17, 2020 at 12:05 PM
    आपके समर्थन की आभारी हूँ |

    Reply
    जितेन्द्र माथुरJune 17, 2020 at 7:58 PM
    और मैं भी रेणु जी |

    जवाब देंहटाएं
  2. मैंने यह फिल्म दो बार देखी है। राकेश रोशन और जयाप्रदा दोनोें ने अपना किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया। आपकी बात से सहमत हूँ कि स्वाभिमान से बढ़ा कुछ भी नहीं जीवन में।यह फिल्म देखकर काफ़ी लोगों ने इसमें छुपे संदेश को समझा होगा। बेहतरीन प्रस्तुति 👌👌

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी समीक्षा पसंद आई सर। यह फिल्म मैंने भी देखी है। बहुत अच्छी फिल्म है। सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्छा लगा जितेंद्र जी, लेख भी और आपका पुरानी प्रतिक्रियाओं को बखूबी संभालना। आभार और शुभकामनाएं🙏🙏🤗

    जवाब देंहटाएं
  5. राकेश रोशन और जयाप्रदा दोनोें ने अपना किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया...समीक्षा पसंद आई सर।

    जवाब देंहटाएं
  6. फिल्म जनित गहन भावों की सरलता और सहजता अलग ही आकर्षण उत्पन्न कर रहा है । बहुत ही सुन्दर कथ्य ।

    जवाब देंहटाएं
  7. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-०४-२०२१) को ' खून में है गिरोह हो जाना ' (चर्चा अंक-४०२५) पर भी होगी।

    आप भी सादर आमंत्रित है।

    --
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  8. हमारे समय की मूवी है ... बढ़िया समीक्षा कि है ... मुझे भी पसंद आई थी ...

    जवाब देंहटाएं
  9. स्वाभिमान से परे कुछ भी नही.. लाजवाब समीक्षा ।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत शानदार समीक्षा और साथ ही विस्तार से हर सोच पर प्रकाश डाला है आपने।
    नायिका के आत्माभिमान ने कामचोर पति को स्वाभिमान की सीख दी ।
    बहुत सुंदर जितेन्द्र जी।

    जवाब देंहटाएं
  11. आदरणीय माथुर जी,
    समयाभाव के कारण मैं आपके विचारोत्तेजक और गहन चिंतनयुक्त लेखों को यथा समय पढ़ने से वंचित रह गई थी। आज बहुत तसल्ली और फ़ुरसत से आपके लेखों को पढ़ कर स्वयं को प्रफुल्लित महसूस कर रही हूं।
    समें कोई संदेह नहीं कि कामचोर फ़िल्म ने राकेश रोशन के अभिनय पक्ष को रोशन किया था। लेकिन जयाप्रदा का अभिनय शानदार था। एक स्त्री की मनोदशा को बहुत गहराई से अभिव्यक्ति दी थी उन्होंने।
    बहुत सही विश्लेषण किया है आपने।
    साधुवाद 🙏

    हार्दिक शुभकामनाएं,
    सादर
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय से आपका आभार माननीया वर्षा जी । मै सहमत हूं आपसे कि जयाप्रदा ने एक आत्माभिमानी स्त्री की मनोदशा को बड़ी गहराई से अभिव्यक्ति प्रदान की थी । निश्चय ही यह उनकी एक अविस्मरणीय फ़िल्म है ।

      हटाएं