इस लेख के शीर्षक में 'एक फ़िल्म' की ओर इंगित किया गया है, अत: स्वाभाविक ही है कि उस फ़िल्म से संबंधित बातें मुझे लिखनी हैं । परंतु मुख्यतः इस लेख में मैं जो बताना चाहता हूँ, वह यह है कि ऐसा क्या है उस प्रत्यक्षतः मनोरंजनार्थ बनाई गई व्यावसायिक फ़िल्म में जो वह मेरे जीवन का एक अंग बन गई है । वह है बॉलीवुड के भट्ट बंधुओं (मुकेश भट्ट-महेश भट्ट) द्वारा १९९९ में बनाई गई तनूजा चंद्रा द्वारा निर्देशित अक्षय कुमार, प्रीति ज़िंटा एवं आशुतोष राना की प्रमुख भूमिकाओं वाली हिंदी फ़िल्म 'संघर्ष' ।
अभिनय पक्ष भी अत्यंत सबल है । खलनायक आशुतोष राना ने अपने दिल दहला देने वाले अभिनय के कारण इस फ़िल्म की अपनी भूमिका के लिए कई पुरस्कार जीते जिसके वे सर्वथा योग्य थे । फ़िल्म नायिका-प्रधान है तथा फ़िल्म जगत में उन दिनों नई-नई ही आईं प्रीति ज़िंटा ने अंधकार से डरने वाली तथा अपने अतीत से परेशान एक प्रशिक्षु सीबीआई अधिकारी की कठिन भूमिका में अत्यंत प्रभावशाली अभिनय किया है । फ़िल्म की जान हैं इसके नायक अक्षय कुमार जिनका प्रशंसक मैं इसी फ़िल्म को देखकर बना । एक निर्मल मन वाले अपराधी की भूमिका में अक्षय कुमार ने अपनी अन्य सभी छवियों को ध्वस्त करते हुए ऐसा हृदय-विजयी अभिनय किया है जिसे निर्विवाद रूप से उनके अभिनय-जीवन के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में रखा जा सकता है । सहायक भूमिकाओं में अमन वर्मा, विश्वजीत प्रधान, मदन जैन, अमरदीप झा, निनाद कामत, अभय चोपड़ा, एस.एम. ज़हीर आदि तथा बाल कलाकारों - मास्टर मज़हर, जश त्रिवेदी एवं आलिया भट्ट (जी हाँ, आज की अत्यन्त लोकप्रिय नायिका) ने भी उत्कृष्ट अभिनय किया है ।
फ़िल्म में कमियां हैं लेकिन कम ही हैं । ख़ूबियां उन पर भारी हैं । देखने वाले को शुरू से आख़िर तक दम साधे परदे से चिपकाए रखने वाली यह फ़िल्म टिकट खिड़की पर क्यों असफल रही, कहना मुश्किल है । प्रतिष्ठित समीक्षकों ने भी इस फ़िल्म के साथ न्याय नहीं किया एवं इसकी आलोचना ही की, प्रशंसा नहीं ।
अब इस फ़िल्म में ऐसी भी क्या बात है जो मैंने इसे सिनेमा हॉल में ही पाँच बार देखा तथा आज यह मेरी शख़्सियत का एक हिस्सा बन चुकी है ? इस सवाल का जवाब मैं फ़िल्म समीक्षा करने में अपनी गुरू अरूणा त्यागराजन के इस कथन से देना आरंभ करता हूँ - 'Review is about feelings and what the movie evokes in one. Moviemaking and movie viewing is so subjective. Never know who it reaches out to and how:' (समीक्षा उन भावनाओं से संबंध रखती है जो कि फ़िल्म व्यक्ति में जगाती है । फ़िल्म बनाना तथा फ़िल्म देखना अत्यन्त व्यक्तिपरक बात है । कुछ पता नहीं लगता कि वह किस तक पहुँचती है एवं कैसे पहुँचती है ।)
जी हाँ, यह बात फ़िल्मों, धारावाहिकों तथा पुस्तकों; सभी पर लागू है । पेशेवर समीक्षकों की बात यदि छोड़ दी जाए जिनका करियर ही यही है तो कोई भी समीक्षा उस समीक्षक में उस फ़िल्म, धारावाहिक या पुस्तक द्वारा उत्पन्न की गई भावनाओं की ही अभिव्यक्ति होती है । कम-से-कम मुझ पर तो यह उक्ति पूरी तरह खरी उतरती है । मैंने विभिन्न जाने-माने फ़िल्म समीक्षकों की पक्षपातपूर्ण एवं आधी-अधूरी समीक्षाएं पढ़कर ही अनुभव किया था कि उनसे बेहतर समीक्षाएं तो मैं लिख सकता था एवं इसीलिए मेरी लेखनी इस क्षेत्र में उतर पड़ी लेकिन मैं यह काम दिमाग़ से नहीं, दिल से करता हूँ और वही लिखता हूँ जो मैंने फ़िल्म के द्वारा अनुभव किया । 'संघर्ष' एक ऐसी ही फ़िल्म है जिसे मैंने अपने जीवन की एक विषम परिस्थिति में देखा एवं जिसने मेरे व्यक्तित्व को अत्यन्त गहनता से प्रभावित किया ।
२९ मार्च, १९९९ को जब मैं कर्णावती एक्सप्रेस द्वारा मुम्बई जा रहा था, तब (अपनी ही भूल से) मैं चलती हुई रेलगाड़ी से बांद्रा के प्लेटफ़ॉर्म पर जा गिरा जिसके परिणामस्वरूप मेरा बायां हाथ बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया । उस अपरिचित नगर में मेरी सहायता पहले तो प्लेटफ़ॉर्म पर ही कुछ सहृदय व्यक्तियों ने की एवं तदोपरांत मेरे एक मित्र (रमेश गुप्ता) ने मुझे संभाला एवं मुम्बई में ही मेरी शल्य-चिकित्सा का प्रबंध किया । किन्तु वह शल्य-चिकित्सा अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल नहीं रही एवं मुझे कुछ माह के उपरान्त जोधपुर (राजस्थान) में पुनः शल्य-चिकित्सा करवानी पड़ी । दोनों ही बार मेरे हाथ के साथ-साथ कमर की भी शल्य-चिकित्सा हुई क्योंकि हाथ की हड्डी इतनी अधिक टूटी थी कि रिक्त स्थान को भरने के लिए कमर की हड्डी से कुछ भाग लेना पड़ा था (अब मेरा वह हाथ कभी अपनी सामान्य स्थिति में नहीं आ सकता) । महीनों-महीनों मेरे हाथ पर भारी प्लास्टर चढ़ा रहा जो गर्मी के मौसम में एक अत्यन्त दुखदाई अनुभव था । मेरे परिजन अपरिहार्य कारणों से मेरे साथ नहीं रह सकते थे एवं मैं उदयपुर (राजस्थान) में अकेले ही रहकर भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहा था जिसकी प्रारंभिक परीक्षा मैंने उस कठिन समय में भी उत्तीर्ण कर ली थी एवं अब मैं दो-दो बार शल्य-चिकित्सा हो चुकने पर भी मुख्य परीक्षा देने के लिए कटिबद्ध था । भोजन के लिए मैंने एक टिफ़िन-सेवा का प्रबंध कर लिया था । घर के तथा अपने शेष कार्य मैं स्वयं करता था । लेकिन परीक्षा देने के मेरे दृढ़ संकल्प पर उस अवसाद की छाया थी जो अपनी शारीरिक अवस्था, मानसिक स्तर पर एकाकीपन, भारी आर्थिक हानि एवं इन सबसे बढ़कर परीक्षा की तैयारी का मूल्यवान समय नष्ट होने से उपजा था । वक़्त-बेवक़्त एक गहरी उदासी मुझ पर तारी हो जाती थी एवं मेरे लिए पढ़ाई में मन लगाना बहुत मुश्किल हो जाता था जबकि पहले ही मेरे पास उसके लिए वक़्त बहुत कम बचा था ।
ऐसे में तीन सितम्बर, १९९९ को 'संघर्ष' प्रदर्शित हुई जिसकी समीक्षा मैंने हिंदी समाचार-पत्र 'राजस्थान पत्रिका' में पाँच सितम्बर, १९९९ को उसके रविवारीय परिशिष्ट में पढ़ी । अब मैंने पढ़ाई से एक दिन का ब्रेक लिया एवं फ़िल्म देखने के लिए उदयपुर के 'पारस' सिनेमा पर जा पहुँचा । फ़िल्म समाप्त होने के उपरांत जब मैं सिनेमा हॉल से बाहर निकला, तब मैं वह नहीं था जो सिनेमा हॉल में प्रवेश करते समय था । मेरे भीतर बहुत कुछ बदल गया था । फ़िल्म देखकर मैं इतना अच्छा महसूस कर रहा था कि मैं कोई सवारी न लेकर बहुत दूर तक पैदल ही चला ।
वैसे तो संघर्ष शब्द ही मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है । हालात से संघर्ष करते-करते ही मैं बड़ा हुआ और किस्मत वक़्त-वक़्त पर ऐसी करवटें बदलती रही कि सही मायनों में मेरा संघर्ष कभी ख़त्म हुआ ही नहीं । वह आज भी जारी है । लेकिन वह मेरी ज़िन्दगी का एक ऐसा वक़्त था जब मुझे अपने आगे अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता था । ऐसे में मैंने यह फ़िल्म देखी तथा इसकी नायिका (रीत ओबराय) जो कि अपने भाई तथा पिता के असामयिक निधन के उपरांत अपनी विधवा माता के साथ रहने वाली एक पंजाबी युवती है, के संघर्ष एवं पीड़ा ने मेरे मन को छू लिया । उसके सत्य के पथ पर चलने के अडिग निश्चय ने एवं इस विश्वास ने कि 'जीत हमेशा सच की होती है' (कम-से-कम तब मेरा भी यही विश्वास था) मेरे टूटते हुए मन को संबल दिया । फ़िल्म का गीत 'नाराज़ सवेरा है, हर ओर अंधेरा है, कोई किरण तो आए कहीं से, आए' जब चल रहा था तो मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरी रग-रग में जमा हुआ दर्द पिघलकर बाहर निकल रहा हो । और जब मध्यान्तर के उपरांत 'मंज़िल न हो, कोई हासिल न हो तो है बस नाम की ज़िन्दगी, कोई अपना न हो, कोई सपना न हो तो है किस काम की ज़िन्दगी' चल रहा था तो उसका एक-एक शब्द मेरे हृदय के भीतर उतरकर मानो मुझे जीना सिखा रहा था ।
इस नायिका-प्रधान फ़िल्म में नायक के चरित्र को भी अत्यन्त सुघड़ता से आकार दिया गया है । ज़रूरी नहीं कि कानून का मुजरिम इंसानियत और इंसाफ़ का भी मुजरिम हो । अपराधी होकर भी नायक (अमन वर्मा) को एक अत्यन्त अध्ययनशील तथा बुद्धिमान (लगभग जीनियस) व्यक्ति बताया गया है जो सिद्धांतवादी है तथा नायिका की सरलता एवं सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर उसकी सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है । उसे अपने इंसान होने पर कोई फ़ख़्र नहीं क्योंकि उसने इंसानियत का बदसूरत चेहरा देखा है । लेकिन नायिका के रूप में इंसानियत के दूसरे चेहरे से तआरूफ़ उसे बदल डालता है । उसे नायिका से प्रेम हो जाता है लेकिन वह तब तक उसे अपने मन में ही रखता है जब तक परिवर्तित परिस्थितियों में नायिका से उसकी अनपेक्षित भेंट नहीं होती । सच्चा प्यार ऐसा ही होता है जिसके इज़हार को लम्बी-चौड़ी बातों और शोरशराबे की ज़रूरत नहीं होती । नायक को अपने प्रेम का प्रतिदान नायिका से अपने जीवन के अंतिम क्षणों में मिलता है पर उसके लिए उतना भी बहुत है । सच्ची मुहब्बत की एक नज़र और सच्चे प्यार में डूबा हुआ एक पल ज़िन्दगी भर के दिखावटी प्यार से कहीं बेहतर है जिसके मिल जाने के बाद इंसान सुकून से मर सकता है ।
मैं फ़िल्म के कुछ संवादों का उल्लेख करूंगा क्योंकि उसके बिना इस फ़िल्म से संबंधित मेरी अभिव्यक्ति अपूर्ण ही रह जाएगी :
१. अमन से अपनी प्रथम भेंट में रीत का उससे कहना - 'किताबों के काले अक्षर घोटकर पी लेने से जानवर इंसान नहीं बन जाता । ज्ञान किताबों में लिखी बातों पर अमल करने से आता है, यूं किताबों का ढेर लगा लेने से नहीं ।'
२. अमन और रीत की दूसरी मुलाक़ात में अमन का रीत से कहना - 'इंसानियत की बात मुझसे मत कीजिए । मुझे अपने इंसान होने पर कोई फ़ख़्र नहीं । दुनिया कल जलती हो, आज जल जाए, माचिस चाहिए, मैं दे दूंगा ।'
३. अमन और रीत की अनाधिकृत भेंट में (जब अमन को पुलिस द्वारा यातनाएं दी जा रही हैं), अमन का रीत से कहना - 'बेचारी रीत, समझती है - दूसरों के ग़म बांटने से अपने ज़ख़्म भर जाते हैं ।'
४. पुलिस की गिरफ़्त से फ़रार हो जाने के बाद रीत के अमन से उसके छुपने के स्थान पर मिलने आने पर अमन का रीत से कहना - 'सपने सोच-समझकर देखने चाहिए । सच हो जाते हैं ।'
५. इसी मुलाक़ात में अमन का रीत से सिर्फ़ इतना कहना - 'तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो ।'
६. राज्य के गृह मंत्री के कार्यालय के बाहर रीत का अपने (सहृदय एवं कर्तव्यपरायण) वरिष्ठ अधिकारी से कहना - 'बचपन में मेरी दादी ने मुझसे कहा था कि ईमानदारी के रास्ते पर चलते हुए लोग तुझे रोकेंगे, डराएंगे, तेरे रास्ते में आ के खड़े हो जाएंगे लेकिन तू घबराना मत । लोगों से डरकर रास्ते में बैठ मत जाना बल्कि दुगने जोश के साथ आगे बढ़ना । याद रखना; झूठ चाहे जितना सर उठाए, जीत हमेशा सच की होती है ।'
७. एक आरंभिक दृश्य में रीत के संदर्भ में उसके वरिष्ठ अधिकारी का अपने एक सहकर्मी से कहना - 'जो लोग अंधेरे का अंजाम जानते हैं, वो रोशनी ढूंढ ही लेते हैं । इसके लिए उन्हें चाहे कितना ही संघर्ष क्यों न करना पड़े ।'
आज भी मेरे हताश और दुखी मन को सहारा देने वाली इस फ़िल्म का सार इसी एक संवाद में अंतर्निहित है ।
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मूल प्रकाशित लेख पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :
जवाब देंहटाएंशिवम् कुमार पाण्डेयOctober 28, 2020 at 10:42 PM
बहुत बढ़िया लिखा है आपने। मुझे इस फिल्म का एक गाना "मंजिल ना हो कोई हासिल ना तो बस नाम की ये जिंदगी" बहुत अच्छा लगा। बाकि मैंने इस फिल्म को डीवीडी प्लयेर के माध्यम से देखा था फिल्म बहुत अच्छी थी।
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जितेन्द्र माथुरOctober 29, 2020 at 12:12 AM
हार्दिक आभार आदरणीय पाण्डेय जी ।
Dr Varsha SinghNovember 4, 2020 at 8:44 PM
विश्लेषण सहित व्यक्त अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आपको 🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
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जितेन्द्र माथुरNovember 4, 2020 at 11:43 PM
बहुत-बहुत आभार आदरणीया वर्षा जी ।
बेहतरीन समीक्षा । फिल्म'संघर्ष'की समीक्षा में आपके द्वारा विश्लेषण पुनरावृत्ति करवा गया पूरी फिल्म की । आशा करती हूँ आप अब स्वस्थ कुशल होंगे । तुलनात्मक समीक्षा में आपका स्वयं का संघर्ष मर्मस्पर्शी लगा । प्रतिक्रिया का समापन आपकी समीक्षा के अंत से करती हूँ -'जो लोग अंधेरे का अंजाम जानते हैं, वो रोशनी ढूंढ ही लेते हैं । इसके लिए उन्हें चाहे कितना ही संघर्ष क्यों न करना पड़े ।'
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आपका आभार आदरणीया मीना जी ।
हटाएंये फिल्म मैंने 8-9 साल पहले दूरदर्शन पर देखी थी.पढ़कर लगा दोबारा देख रही हूं..बहुत अच्छी समीक्षा ..
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुक्रिया आपका ।
हटाएंऐसा लगा जैसे आपकी समीक्षा नहीं है, बल्कि इस फिल्म को लेकर मेरी ही समीक्षा है। इस फिल्म को मैनें जब पहली बार देखा था, तब से लेकर आजतक इस फिल्म से वैसे ही जुडा हुआ हूं, इस फिल्म और मेरे लगाव में कोई कमी इन २३ वर्षों में नहीं आया। आपने मेरे इस फिल्म को लेकर जो विचार थे, उन्हें शत प्रतिशत शब्द दे दिए हैं। इस फिल्म के बाद ही अक्षय कुमार, प्रिटी जिन्टा और आशुतोष राणा मेरे पसंदीदा फिल्म कलाकार हैं। प्रोफेसर अमन वर्मा का किरदार कहीं अपने अंदर ही ढूंढता रहता हूं या शायद खुदकर उस शख्सीयत में ढालने की असफल कोशिश करता रहता हूं। आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंहृदय से आपका आभार आदरणीय संजय जी।
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