कुछ समय पूर्व मैंने बायोपिक की भेड़चाल शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमें मैंने जनता को मूर्ख समझते हुए अपनी तिज़ोरियां भरने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर बनाई जा रही बायोपिकों की आलोचना की थी । वस्तुत: बहुत कम बायोपिक ईमानदारी से बनाई जाती हैं जो दर्शकों को प्रेरित और उत्साहित करते हुए जीवन के प्रति सकारात्मक भाव से भर दें । अपने पिछले जन्मदिन (तीस अक्टूबर) को मैंने अपनी धर्मपत्नी के साथ जो बायोपिक पुणे के वेस्टएंड सिनेमा में देखी, वह एक ऐसी ही बायोपिक निकली । इस बायोपिक का नाम है - 'साँड की आँख' जिसे देखते समय मेरी धर्मपत्नी के नयन भर आए और मेरे मुख से निकल पड़ा - 'बायोपिक हो तो ऐसी हो' ।
यह फ़िल्म उत्तर प्रदेश के
बागपत ज़िले के जौहड़ी गाँव की निवासिनी
दो लगभग अशिक्षित ग्रामीण वृद्धाओं - चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर के जीवन पर
आधारित है जो सम्पूर्ण राष्ट्र की उन नारियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बन गए हैं जो न
केवल साधनहीन हैं वरन पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियों में बुरी तरह से जकड़ी
हुई हैं । साठ वर्ष की आयु पार कर चुकने के उपरांत ये प्रतिभाशाली और साहसी
नारियां घर की चारदीवारी से बाहर निकलीं और निशानेबाज़ी सीखकर सफलता की ऐसी ऊंचाइयों को
उन्होंने छुआ कि वे शूटर दादियों के नाम से सारे देश में विख्यात हो गईं । एक ही
परिवार में दो भाइयों से ब्याही गईं इस जेठानी-देवरानी की जोड़ी ने अपनी सम्पूर्ण
युवावस्था एवं प्रौढ़ावस्था घर-परिवार में होम कर चुकने के उपरांत अपने वार्धक्य
में वह कमाल कर दिखाया जिस पर एकबारगी तो सुनने वाले को विश्वास ही न हो ।
इन शूटर दादियों की प्रेरक
जीवन-गाथा को दूरदर्शन पर आमिर ख़ान द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते' ने घर-घर पहुँचाया, भारत सरकार के 'महिला एवं बाल विकास
मंत्रालय' द्वारा
इन्हें ‘आइकन लेडी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा वर्ष २०१६ में इन्हें भारत
की १०० वीमेन अचीवर्स में सम्मिलित किया गया । ढेर सारे बेटे-बेटियों और पोते-पोतियों वाली इन
दादियों ने दो दशक पूर्व शूटिंग प्रतियोगिताओं में भाग लेना आरंभ किया था एवं आज
ये अस्सी पार कर चुकी हैं ।
प्रकाशी की पुत्री सीमा २०१० में
आईएसएसएफ़ द्वारा आयोजित निशानेबाज़ी विश्व कप में ट्रैप शूटिंग स्पर्धा में रजत पदक जीतकर
इस प्रतियोगिता में पदक
जीतने वाली प्रथम भारतीय महिला बनी । 'साँड की आँख' फ़िल्म इन दादियों के संघर्ष, जीवट तथा साहस से न केवल स्वयं जीवन में आगे बढ़कर कुछ असाधारण
उपलब्धि पाने वरन अपनी अगली पीढ़ियों की कन्याओं को भी सफलता और उन्नति की राह दिखाने
की गाथा है । इन दादियों ने अपने जीवन को वह देदीप्यमान दीप बनाया जिसके प्रकाश
में उनकी बेटियाँ एवं पोतियाँ अपना जीवन-मार्ग देख सकीं ।
'साँड की आँख' फ़िल्म भारतीय समाज में
व्याप्त पितृसत्तात्मक व्यवस्था की विडम्बनाओं से आरंभ होती है जिन्हें समझाने के
लिए तोमर परिवार के वयोवृद्ध मुखिया की यह बात ही पर्याप्त है - 'म्हारे घर की छोरियाँ आगे ना जावे है, दूसरा के घर जावे है' । अर्थात् कन्याओं के लिए
परिवार द्वारा नियत व्यक्ति से विवाह करके पराये घर जाने के अतिरिक्त अन्य कोई
मार्ग नहीं है । इसी बात
की अगली कड़ी यह है कि पराये घर में भी उनकी स्थिति में कोई सुधार होने वाला नहीं
है क्योंकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में परिवार की स्त्रियों से यही अपेक्षित है कि
वे सवेरे से रात तक घर तथा खेतों के कामकाज में खटती रहें, पुरुषों की सेवा-टहल करती
रहें तथा संतानोत्पत्ति की मशीन की भाँति साल-दर-साल प्रसूति में जाकर परिवार का
आकार बढ़ाती रहें । वंश-वृक्ष के लिए भूमि तथा परिवार के लिए बिना पारिश्रमिक की
सेविका के अतिरिक्त उनकी न कोई भूमिका हो, न ही कोई महत्व तथा उन्हें वांछित सम्मान तक प्राप्त न हो एवं वे
अपने पतियों द्वारा कारण-अकारण प्रताड़ित होकर भी मूक पशु की भाँति सब कुछ सहती
रहें । पुरुष उन्हें पैर की जूती समझें एवं वे अपनी इस अवस्था को बिना किसी विरोध
के स्वीकार कर लें । उनकी अपनी न कोई इच्छा हो, न कोई राय । पुरुष-प्रधान समाज की सदियों से चली आ रही इस अनुचित
मानसिकता का दंश लाखों-करोड़ों भारतीय नारियों ने भोगा है और आज भी भुगतती हैं ।
फ़िल्म यह बताती है कि चंद्रो और प्रकाशी भी ऐसी ही अभागी नारियों की श्रेणी में
रहीं जब तक कि
वृद्धावस्था में पहुँच कर उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ नहीं आया ।
उनके गाँव जौहड़ी के ही
डॉक्टर राजपाल सिंह जो विभिन्न स्थानों पर निशानेबाज़ी को प्रोत्साहन देने एवं युवा
निशानेबाज़ों को तैयार करने का कार्य कर रहे थे, ने अपने ही गाँव में एक शूटिंग रेंज स्थापित की और गाँव के
बालक-बालिकाओं को शूटिंग सीखने के लिए आमंत्रित किया । तोमर परिवार की बच्चियों के
लिए पारिवारिक बेड़ियों से छुटकारा पाकर वहाँ जाना सहज नहीं था क्योंकि परिवार के
पुरुष उन्हें इसकी अनुमति देने वाले नहीं थे । चंद्रो एवं प्रकाशी ने अपनी
बच्चियों के लिए चुपचाप (बिना परिवार के पुरुषों की जानकारी के) वहाँ जाना
सुनिश्चित किया क्योंकि वे नहीं चाहती थीं कि जैसे वे सारा जीवन घुट-घुटकर जीती
रहीं, वैसे ही उनकी बच्चियाँ भी
जियें । वे उन्हें लेकर वहाँ पहुँचीं और जब वे बच्चियाँ (सीमा तथा शेफ़ाली) गोली
दाग़ने वाले हथियार से
लक्ष्य (टारगेट) पर निशाना लगाना सीखने लगीं तो चंद्रो और प्रकाशी ने भी यूँ ही
हथियार थामकर प्रयास किया और डॉक्टर राजपाल सिंह को दंग कर दिया क्योंकि उनके लगाए
हुए निशाने सीधे दूर स्थित टारगेट के बीचोंबीच जाकर लगे जिसे निशानेबाज़ी की ज़ुबान
में 'बुल्स आई' कहा जाता है ।
चकित एवं प्रसन्न डॉक्टर
साहब अब न केवल बालिकाओं के साथ-साथ इन वृद्धाओं को भी सिखाने लगे बल्कि कुछ समय
पश्चात् उन्हें स्पर्धाओं में भी भेजने लगे । अब स्पर्धाओं में भाग लेने के लिए
गाँव से बाहर जाने की समस्या आई तो इन मेहनतकश लेकिन ज़िन्दा दिल औरतों ने अपने
निशाना लगाने वाले हाथों के साथ-साथ अपने दिमाग़ों की भी तेज़ी दिखाई और नित नये बहाने
घड़े जाने लगे ताकि (मर्दों की
जानकारी में और उनकी
इजाज़त से) गाँव से बाहर का सफ़र किया जा सके । और स्पर्धाओं से आने लगे विजय के
प्रतीक पदक क्योंकि चंद्रो और प्रकाशी युवा प्रतिस्पर्धियों को लज्जित करती हुई
एक-के-बाद-एक प्रतियोगिताएं जीतती चली गईं ।
कूपमंडूक सरीखी मानसिकता
वाले अपने पुरुषों से और विशेषतः परिवार के मुखिया (जो कि गाँव के सरपंच भी थे) से
इन सुयोग्य महिलाओं को अपनी योग्यता और उसका उपयोग ही नहीं, उससे अर्जित उपलब्धियाँ भी
छुपानी पड़ीं क्योंकि उनकी संकीर्ण दृष्टि में तो यह सम्मान एवं गर्व की नहीं
परिवार की तथाकथित परम्परा को तोड़ने व इस प्रकार परिवार की प्रतिष्ठा को आघात
पहुँचाने वाली बात थी । लेकिन कोई भी तथ्य सदा के लिए तो नहीं छुपाया जा सकता ।
फिर सीमा और शेफ़ाली जैसी बालिकाओं के भविष्य का भी प्रश्न था जिनके सपनों की
मृत्यु इन दृढ़ निश्चयी स्त्रियों को स्वीकार्य नहीं थी जिनके तन बूढ़े थे पर मन
में जवानों जैसा जोश था । ऐसे में साँड की आँख (बुल्स आई) पर अचूक निशाना लगाने वाली चंद्रो
और प्रकाशी ने ज़िन्दगी के साँड का भी निडर होकर सामना किया और उसे सीधे सींगों से
पकड़कर उसके साथ द्वंद्व में उसी तरह जीतीं जिस तरह वे निशानेबाज़ी की
प्रतियोगिताओं में विजयी होती आई थीं ।
पटकथा में सिनेमाई छूटें ली
गई होंगी जैसा कि वास्तविक व्यक्तियों के जीवन पर बनाई गई फ़िल्मों में होता ही है
लेकिन काफ़ी हद तक (सम्भवतः स्वयं चंद्रो व प्रकाशी तथा उनके परिजनों से बात करके)
यह फ़िल्म हक़ीक़त के नज़दीक है । फ़िल्म में संवादों की भाषा, पटकथा के प्रवाह एवं संपादन
से जुड़ी कई कमियाँ हैं लेकिन इसका समेकित भावात्मक प्रभाव इतना प्रबल है कि वह सारी कमियों
को ढक देता है । फ़िल्म एक ऐसे मानव-शरीर की तरह है जिसमें कई अंग ठीक नहीं हैं
किन्तु हृदय बिल्कुल ठीक जगह पर है । जो फ़िल्म देखने वालों के नयनों में नीर उमड़ा
दे, उसकी कमियों पर अधिक बात
करना उचित नहीं । पर यह भी मानना होगा कि कई स्थानों पर यह फ़िल्म दर्शकों को हँसा भी देती है ।
परिवार के मुखिया का चरित्र
पूरी तरह से नकारात्मक है जिसमें अपने फ़िल्म-निर्देशन के कौशल के लिए जाने जाने
वाले प्रकाश झा ने अत्यंत प्रभावशाली अभिनय से प्राण फूंक दिए हैं । डॉक्टर राजपाल
सिंह की भूमिका में विनीत कुमार सिंह, सेना में नौकरी कर रहे चंद्रो के पुत्र की भूमिका में शाद रंधावा, प्रतियोगिताओं में चंद्रो
और प्रकाशी से हारकर उन्हें अपने महल में बुलाकर सम्मानित करने वाली (भूतपूर्व)
रानी महेंद्र कुमारी की भूमिका में निकहत ख़ान तथा अनेक छोटी-बड़ी भूमिकाओं में
विभिन्न कलाकारों ने अच्छा अभिनय किया है । पर अंततः यह फ़िल्म चंद्रो की भूमिका
करने वाली भूमि पेडनेकर तथा प्रकाशी की भूमिका करने वाली तापसी पन्नू की फ़िल्म है
। इन दोनों का मेकअप दोषपूर्ण है जिससे ये वृद्धाएं नहीं, अपनी वास्तविक आयु के आसपास
ही दिखाई पड़ती हैं लेकिन इनका अभिनय ऐसा ज़ोरदार है कि इन्होंने चंद्रो तथा
प्रकाशी को रजतपट पर जीवंत कर दिया है । रूपहले परदे पर इनकी आपसी समझ-बूझ एवं
तालमेल भी इतना उम्दा है कि ये जेठानी-देवरानी नहीं, इक-दूजी पर जान छिड़कने वाली सखियाँ लगती हैं ।
कला-निर्देशक ने चित्रपट पर
ग्रामीण पृष्ठभूमि को सजीव कर दिया है तो गीतकार एवं संगीतकार ने सुमधुर तथा
हृदय-विजयी गीत प्रस्तुत किए हैं । आशा भोसले जी के स्वर में 'आसमां' गीत आँखें नम कर देने में
पूरी तरह सक्षम है । फ़िल्म अपने अंतिम चरण में बार-बार खिंचती-सी लगती है जो कि
पटकथा की कमी है लेकिन यह प्रेरक होने के साथ-साथ पूरी तरह रोचक एवं मनोरंजक है, इसमें कोई संदेह नहीं ।
मैंने फ़िल्म दंगल (२०१६) की समीक्षा में गीता फोगाट तथा बबीता फोगाट के
संदर्भ में लिखा है कि मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी भारतीय बेटियाँ ऐसी ही साहसी, जुझारू एवं आत्मविश्वास से
परिपूर्ण बनकर सफलता व सार्थकता के नये-नये आयाम छुएं । इस फ़िल्म को देखने तथा
चंद्रो व प्रकाशी की प्रेरक गाथा से भली-भाँति परिचित हो चुकने के उपरान्त मैं यह
प्रार्थना भी करता हूँ कि सभी
भारतीय माताएं एवं दादियाँ-नानियाँ भी उनके जैसी ही साहसी, जुझारू तथा आत्मविश्वास से
परिपूर्ण होकर न केवल सफलता के नवीन-से-नवीन लक्ष्य स्वयं वेधें वरन अपने परिवार व
समाज की बालिकाओं के लिए भी प्रेरणा की सतत सलिला बनकर रहें । पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के लिए ऐसा स्थायी
आदर्श (रोल मॉडल) बने कि उसे किसी और रोल मॉडल के लिए कहीं देखना ही न पड़े ।
अहंकारी तथा बंद दिमाग़ के पुरुषों को भी दर्पण दिखाने वाली यह फ़िल्म संपूर्ण
परिवार के साथ देखने योग्य है ।
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मूल प्रकाशित लेख (12 नवम्बर, 2019 को) पर ब्लॉगर मित्रों की प्रतिक्रियाएं :
जवाब देंहटाएंJyoti DehliwalNovember 13, 2019 at 8:21 PM
चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर के प्रेरणादाई जीवन के बारे में पढ़ कर और उन पर बनी फिल्म पर आपकी समीक्षा पढ़ कर सही में यहीं उदगार निकले की बायोपिक जो तो ऐसी ही हो।
Reply
जितेन्द्र माथुरNovember 13, 2019 at 8:28 PM
बहुत-बहुत आभार आदरणीया ज्योति जी । यदि यह फ़िल्म आपने नहीं देखी है तो अवश्य देखिए ।
विकास नैनवाल 'अंजान'November 18, 2019 at 5:35 AM
फ़िल्म के सभी पहलुओं को छूता हुआ एक और दिलचस्प लेख। वक्त लगेगा तो जरूर इस फ़िल्म को एक बार देखूँगा। आभार।
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जितेन्द्र माथुरNovember 18, 2019 at 7:21 PM
हार्दिक आभार विकास जी । इस फ़िल्म को ज़रूर देखिए ।
बहुत अच्छी फिल्म है ये ..मैंने भी देखी है.. कामर्शियल फिल्मों से इतर ऐसी फिल्मों के दर्शक थोड़े कम मिल पाते हैं लेकिन ये कालजयी होती हैं और उल्लेख करने योग्य भी..
जवाब देंहटाएंआपने बहुत अच्छा लेख लिखा है..सादर प्रणाम
हार्दिक आभार माननीया अर्पिता जी ।
हटाएंजबरदस्त वायोपिक है ये! एक बेहतरीन पोस्ट के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय वीरेन्द्र जी ।
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