(यह लेख मूल रूप से नौ जुलाई, 2018 को प्रकाशित हुआ था)
मैं हिन्दी उपन्यासकार सुरेन्द्र मोहन पाठक का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ, इस तथ्य से अब वे सभी लोग परिचित हैं जो नियमित रूप से मेरे लेख एवं समीक्षाएं पढ़ते हैं । सुरेन्द्र मोहन पाठक अपने उपन्यासों में समाज एवं सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों को टटोलते हैं लेकिन उनके नाम के साथ मिस्ट्री राइटर अथवा रहस्यकथा लेखक का बिल्ला लग गया है । उन्होंने स्वयं कभी फ़िल्मों के लिए नहीं लिखा लेकिन फ़िल्मी दुनिया (और टी.वी. की दुनिया भी) तथा फ़िल्मी लोगों से जुड़ी तल्ख सच्चाइयों को उन्होंने अपने कई उपन्यासों के कथानकों में छुआ है । उनका ऐसा ही एक उपन्यास है – ‘नौ जुलाई की रात’ जिसकी याद मुझे प्रत्येक वर्ष नौ जुलाई के दिन आ ही जाती है । आज भी आ गई और मेरी लेखनी इसी उपन्यास पर कुछ लिखने के लिए मचल पड़ी ।
‘नौ जुलाई की रात’ सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा रचित ‘सुनील सीरीज़’ का उपन्यास है । यह उनकी ऐसी लोकप्रिय सीरीज़ है कि अब तक इसके अंतर्गत वे एक सौ बाईस उपन्यास लिख चुके हैं । इस सीरीज़ का नायक एक खोजी पत्रकार है जिसका नाम है सुनील कुमार चक्रवर्ती और जो ‘ब्लास्ट’ नामक एक राष्ट्रीय समाचार-पत्र में नौकरी करता है । मूल रूप से बंगाली यह युवक अब ‘ब्लास्ट’ की नौकरी के सिलसिले में राजनगर नामक एक उत्तर-भारतीय महानगर में रहता है और अपने पेशे के प्रति इतना समर्पित है कि दिन हो या रात, धूप हो या बरसात; जब भी उसे किसी सनसनीखेज़ सामग्री के मिलने की संभावना दिखाई दे, वह तुरंत अपने सूत्र का पीछा करते हुए निकल पड़ता है उस कहानी की तलाश में जो उसे उस सूत्र के अंतिम सिरे पर मिल सकती है और जो ‘ब्लास्ट’ के पाठकों के लिए रोचक हो सकती है ।
‘नौ जुलाई की रात’ का आरंभ वस्तुतः नौ जुलाई के दस दिन बाद यानी कि उन्नीस जुलाई को होता है जबकि ‘ब्लास्ट’ के कार्यालय में समाचार संपादक (न्यूज़ एडिटर) जो कि राय नाम का एक अधेड़ व्यक्ति है, के पास एक गुमनाम टेलीफ़ोन कॉल आती है । कॉल करने वाले से राय को यह पता चलता है कि नौ जुलाई की रात को शहर के रूपनगर नामक एक इलाके में चौदह नंबर की कोठी में से गोली चलने की आवाज़ आई थी । राय इस सूत्र को टटोलने और वास्तविकता, यदि कोई है, का पता लगाने का दायित्व उपन्यास के नायक सुनील को सौंपता है । और इसके साथ ही शुरू हो जाता है सुनील का ख़बरें सूंघने का काम ।
इन सवालों के माकूल जवाब ढूंढ़ने के लिए सुनील अपनी खोजबीन शुरू करता है और उसके साथ-साथ उपन्यास के पाठक भी परत-दर-परत खुलते रहस्यों से रू-ब-रू होते हैं । सुनील फ़िल्मी दुनिया से जुड़े विभिन्न लोगों से मिलता है जिनमें जवाहर चौधरी के अतिरिक्त गौतम सान्याल नामक कला-निर्देशक (आर्ट-डायरेक्टर) तथा काली मजूमदार नामक अत्यंत प्रतिष्ठित फ़िल्म-निर्देशक सम्मिलित हैं । उसका वास्ता फ़िल्मों में नायिका बनने का स्वप्न लेकर आईं तथा क्षेत्र के दिग्गजों के हाथों की कठपुतली बन बैठी चंद युवतियों से भी होता है । पहले ही से गहराते इस रहस्य में बढ़ोतरी तब हो जाती है जब सुनील की नाक के नीचे ही रजनी बाला नामक एक ऐसी ही महत्वाकांक्षी युवती का क़त्ल हो जाता है । सुनील का साबका बैरिस्टर मंगल दास महंत नामक एक तिकड़मी वकील से भी पड़ता है जिसके दाव-पेच सुनील को ही नहीं, एक ईमानदार तथा निष्ठावान पुलिस अधिकारी इंस्पेक्टर प्रभुदयाल को भी उलझाकर रख देते हैं लेकिन अंत में सुनील मामले के सभी रहस्यों से परदा उठाकर वास्तविक अपराधी को कानून की पकड़ में ले आता है ।
‘नौ जुलाई की रात’ एक अत्यंत रोचक उपन्यास है जिसे एक बार पढ़ना शुरू कर देने के बाद बीच में छोड़ना किसी भी पाठक के लिए बेहद मुश्किल है । उपन्यास कोई अधिक लंबा नहीं है और आदि से अंत तक पढ़ने वाले को बाँधे रखता है । उपन्यास कोई चार दशक पहले लिखा गया था जब टी.वी. के धारावाहिकों का ज़माना नहीं आया था और रूपहले परदे की चकाचौंध से भरी दुनिया का हिस्सा केवल फ़िल्में ही थीं । लेकिन रूपहले परदे की चमक के पीछे का जो अंधेरा फ़िल्मी दुनिया में है, उससे टी.वी. के धारावाहिकों की दुनिया जिसका आग़ाज़ भारत में अस्सी के दशक में हुआ था, भी अछूती नहीं है । गाँव-खेड़ों से निकलकर नाम-दाम कमाने की इच्छुक युवतियों पर घर से भागने के बाद क्या बीतती है, यह उपन्यास में बहुत प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है । ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उपन्यास तथा इस सीरीज़ के नायक सुनील का चरित्र लेखक ने प्रारम्भ से ही ऐसा गढ़ा है कि वह अत्यंत संवेदनशील है और सदा ज़रूरतमंदों की मदद के लिए ही नहीं, वरन भटके हुओं को रास्ता दिखाने के लिए भी तैयार रहता है ।
मैं
आज नौ जुलाई सन दो हज़ार अट्ठारह के दिन हिन्दी उपन्यास ‘नौ जुलाई की रात’ को पढ़ने की अनुशंसा
उन सभी हिन्दी पाठकों के लिए करता हूँ जो रहस्यकथाओं को पढ़ने में रुचि रखते हैं ।
कोई चार दशक पहले लिखे गए इस उपन्यास की विषय-वस्तु आज भी प्रासंगिक है तथा इसे
पढ़कर किसी को भी कोई खेद नहीं होगा ।
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मूल प्रकाशित लेख पर ब्लॉगर मित्रों की टिप्पणियां :
जवाब देंहटाएंSahitya DeshJuly 13, 2018 at 9:28 AM
अच्छी समीक्षा के लिए धन्यवाद।
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जितेन्द्र माथुरJuly 13, 2018 at 8:44 PM
धन्यवाद ।
विकास नैनवालJuly 13, 2018 at 11:29 AM
बेहतरीन आलेख। किताब को पढने की उत्सुकता मन में जागृत करता है। जल्द ही पढूँगा।
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जितेन्द्र माथुरJuly 13, 2018 at 8:47 PM
हार्दिक आभार विकास जी ।
बढ़िया समीक्षा । बहुत पहले सुरेंद्र पाठक के उपन्यास पढ़े थे । आभार मेरे ब्लॉग तक आने के लिए ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार संगीता जी आपके आगमन तथा टिप्पणी के लिए ।
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा प्रस्तुति..उपन्यास की समीक्षा के साथ साथ समसामयिक विषयों का समागम रोचकता को बनाए रखता है..
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार अर्पिता जी ।
हटाएंबहुत बहुत रोचक प्रभावपूर्ण प्रस्तुति |समीक्षा के साथ यह कहानी जैसी सरसता अपने में समेटे हुए है | शुभ कामनाएं |
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद आलोक जी ।
हटाएंमैंने नही पढ़ा अभी तक पर आपकी प्रस्तुति बेहद उम्दा है...रोचक प्रभावपूर्ण प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय संजय जी ।
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