ग्यारह अक्टूबर को भारतीय सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन का जन्मदिवस पड़ता है जिसकी चर्चा सारे भारतीय मीडिया में होती है लेकिन इसी दिन एक और कलाकार का जन्म हुआ था जिसकी चर्चा कम-से-कम उसके जन्मदिवस पर होती हुई तो मैंने नहीं देखी । इस अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेता का नाम है रोनित रॉय जिसका नाम टी.वी. धारावाहिकों के कारण आज भारत के घर-घर में चित-परिचित है । एकता कपूर द्वारा निर्मित धारावाहिक 'कसौटी ज़िन्दगी की' अक्टूबर २००१ में स्टार प्लस चैनल पर प्रसारित होना आरम्भ हुआ था और तुरंत ही यह मेरा प्रिय धारावाहिक बन गया था जिसमें रोनित रॉय ने मिस्टर बजाज की भूमिका में अत्यंत प्रभावशाली अभिनय किया था । वे इक्कीसवीं सदी के संभवतः सबसे लोकप्रिय भारतीय टी.वी. धारावाहिक 'क्यूंकि सास भी कभी बहू थी' में भी आए तथा अनेक अन्य धारावाहिकों एवं रियलिटी शो में भी । वे छोटे परदे पर मिली इस सफलता के पूर्व एवं पश्चात् अनेक फ़िल्मों में भी विविध भूमिकाओं में दिखाई दिए थे जिनमें से विक्रमादित्य मोटवाने की बहुचर्चित फ़िल्म 'उड़ान' (२०१०) में उनके अभिनय को पर्याप्त सराहना तथा पुरस्कार भी प्राप्त हुए । और उसके तुरंत बाद ही सोनी चैनल के धारावाहिक 'अदालत' में सत्य को ही जीवन का सार मानने वाले आदर्शवादी वकील के.डी. पाठक के रूप में वे अपनी लोकप्रियता के शिखर पर जा बैठे ।
मैंने उन दिनों 'अदालत' धारावाहिक नहीं देखा जिन दिनों यह प्रसारित होता था लेकिन मेरे पुत्र ने बराबर देखा और वह उसके पसंदीदा टी.वी. कार्यक्रमों में से एक था । मैंने तो इसे स्मार्टफ़ोन लेने के बाद और अपने तबादले की वजह से अकेला रहने पर देखना शुरु किया और चंद कड़ियां देखने के बाद ही मैं 'अदालत' का ख़ासतौर से के.डी. पाठक का दीवाना हो गया । मैं स्वयं एक आदर्शवादी व्यक्ति रहा हूँ एवं उदारीकरण के इस युग में वास्तविक संसार के साथ-साथ काल्पनिक संसार से भी आदर्शवाद के विलोपन ने मुझे अत्यंत व्यथित किया है । ऐसे में जबकि सत्य की राह पर चलने वाले ढूंढे नहीं मिलते, के.डी. पाठक के आदर्शवादी व्यक्तित्व ने मेरे हृदय को ऐसा स्पर्श किया कि मैं अभिभूत हो गया । मेरा पुत्र इस तथ्य से प्रसन्न है लेकिन जो बात वह नहीं जानता, वह यह है कि मैं रोनित रॉय का प्रशंसक अब नहीं बना हूँ वरन १९९२ में ही बन गया था जब मैंने उनकी प्रथम फ़िल्म 'जान तेरे नाम' देखी थी ।
मैंने अपनी पसंदीदा रूमानी हिंदी फ़िल्मों पर लिखे गए अपने लेख में 'जान तेरे नाम' को भी स्थान दिया है जो कि प्रत्यक्षतः कॉलेज रोमांस पर आधारित एक साधारण फ़िल्म ही थी लेकिन उस फ़िल्म को असाधारण बनाया था नएनवेले युवा नायक रोनित रॉय ने विशेषतः फ़िल्म के अंतिम भाग में जब वे अपने प्रेम को खोने जा रहे प्रेमी के हृदय की वेदना और प्यार के जुनून को परदे पर जीवंत कर देते हैं । पहले 'रोने न दीजिएगा तो गाया न जाएगा' और फिर 'दिल क्या चीज़ है जानम अपनी जान तेरे नाम करता है' गीतों में, फिर फ़िल्म के अंतिम दो दृश्यों में रोनित ने नायिका (फ़रहीन) के लिए अपने प्यार के जिस जुनून को अपने हाव-भावों में झलकाया है, किसी को दिल से प्यार करने वाले के दिल में ऐसा ही जुनून होता है । वो मोहब्बत ही क्या, जिसमें जुनून न हो ? लेकिन यह जुनून अपने दिलबर को कोई नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं, प्यार के नाम पर ख़ुद मर-मिट जाने के लिए होता है । फ़िल्म के अंतिम दृश्य में मेरे नेत्र भर आए थे लेकिन उसके उपरांत मुझे फ़िल्म के सुखांत ने हर्षित भी किया । यह रोनित के अभिनय का ही कमाल था कि बिना किसी नाटकीयता के उन्होंने अपने दुखते दिल के दर्द को बयां कर दिया था । भावना की ऐसी तीव्रता कम ही देखने को मिलती है ।
मूलतः एक व्यवसायी परिवार से आने वाले रोनित को अपनी इस पहली फ़िल्म की सफलता का विशेष लाभ नहीं मिला तथा उसके उपरांत वे कुछ ही फ़िल्मों में और दिखाई दिए जिनमें से किसी को भी दर्शक वर्ग का अनुमोदन नहीं मिला । आख़िर छोटा परदा ही उनके भीतर के अदाकार के लिए सहारा बनकर आया और वे छोटे परदे पर मिली कामयाबी से बड़े परदे पर भी काम पाने लगे । लेकिन 'उड़ान' फ़िल्म में निभाई गई और ख़ूब सराही गई एक क्रूर पिता की नकारात्मक भूमिका के कुछ ही समय के उपरांत 'अदालत' धारावाहिक में एक पूर्णरूपेण विपरीत चरित्र, एक आदर्शवादी व्यक्ति का चरित्र जो सत्य के पथ पर चलने को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानता है, में उन्होंने विराट भारतीय दर्शक समुदाय का हृदय विजित कर लिया, यह भी किसी चमत्कार से कम नहीं ।
'जान तेरे नाम' की ही भाँति 'अदालत' की भी यूएसपी रोनित रॉय का अभिनय ही रहा यद्यपि मैं यह मानता हूँ कि अपनी दूसरी पारी में वह अधिक लोकप्रिय इसलिए नहीं रहा क्योंकि उसके कतिपय लोकप्रिय चरित्र यथा के.डी. पाठक का सहायक वरूण तथा इंस्पेक्टर दवे उसमें आने बंद हो गए एवं अपनी हरकतों और बातों से हास्य उत्पन्न करने वाले सरकारी वकील आई. एम. जायसवाल का आना भी कम हो गया । 'अदालत' की दूसरी पारी में पाठक साहब का शुद्ध हिंदी बोलना भी कम हो गया तथा उनके संवादों में अंग्रेज़ी का प्रयोग बढ़ गया, सम्भवतः यह भी इस धारावाहिक की लोकप्रियता पर विपरीत प्रभाव डालने वाला एक घटक रहा ।
जासूसी कथाओं में रूचि रखने के कारण ढेर सारी जासूसी कथा-सामग्री पढ़ने और देखने वाले इन पंक्तियों के लेखक को 'अदालत' की अधिकांश कड़ियों के कथानक विदेशी कथानकों की नक़ल अथवा अविश्वसनीय ट्विस्ट के साथ समाप्त होने वाली मामूली कथाएं प्रतीत हुए । कथानक की दृष्टि से 'अदालत' के अधिकांश एपिसोड मुझे प्रभावित नहीं कर सके हालांकि सरकारी वकीलों के रूप में जायसवाल और अंजलि पुरी जैसे वकीलों के साथ के.डी. पाठक की नोकझोंक तथा पाठक साहब के कार्यालय में नौकरी करने वाली मिसेज़ बिलीमोरिया की बातों ने मेरा भरपूर मनोरंजन किया ।
'अदालत' में के.डी. पाठक के बाद यदि किसी चरित्र को बड़ी सावधानी के साथ गढ़ा गया था तो वह उनके युवा सहायक वरूण का चरित्र था जो कि (कभी न दिखाई गई) किसी शेफ़ाली नामक युवती से प्रेम करता है लेकिन अपने काम के प्रति पूरी तरह पेशेवर दृष्टिकोण रखता है एवं अपने बॉस पाठक साहब द्वारा सौंपे गए प्रत्येक कार्य को संपूर्ण निष्ठा तथा समर्पण के साथ संपादित करता है । किसी रूमानी युवा नायक जैसे आकर्षक व्यक्तित्व वाले (जैसे रोनित रॉय स्वयं 'जान तेरे नाम' में थे) इस नो-नॉनसेंस चरित्र ने मुझे बहुत प्रभावित किया । इंस्पेक्टर दवे का चरित्र भी प्रभावी था जिसके अभाव की पूर्ति इस धारावाहिक में बाद में आए राठौर तथा पवार जैसे इंस्पेक्टरों के चरित्र नहीं कर सकते थे । एक चोर से के.डी. पाठक के सहायक बन जाने वाले टपोरी युवक श्रवण का मनोरंजक चरित्र चाहे मुझे कम पसंद आया हो, संभवतः अधिकांश दर्शकों को पसंद आया होगा ।
'अदालत' में कथाएं कमज़ोर थीं लेकिन निर्देशन प्रभावी था जिसने कमज़ोर कहानियों को भी अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया । कला-निर्देशन, संपादन, (रहस्यभरा) पार्श्व संगीत, अनेक ग्रामीण स्थलों को समाहित किए हुए विभिन्न लोकेशन तथा सभी कलाकारों का अभिनय पूरे अंक दिए जाने योग्य रहा । कास्टिंग की एक बहुत बड़ी कमी बार-बार उन्हीं कलाकारों को अलग-अलग कथाओं में अलग-अलग भूमिकाओं में लिया जाना रही जिसे अब इंटरनेट पर इन कड़ियों को देख रहे मुझ जैसे दर्शक अनुभव करते हैं ।
'अदालत' ने सदा भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वासों पर प्रहार किया तथा भारतीय दर्शकों को वैज्ञानिक एवं आधुनिक सोच अपनाने के लिए प्रेरित किया, इसके लिए इस धारावाहिक को बनाने वाले साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने दर्शकों के मनोरंजन के साथ-साथ समाज के मानसिक जागरण एवं उत्थान के लिए भी अपना योगदान दिया ।
आज जब मैं चहुँओर सत्य को टूटते-बिखरते-हारते हुए देखता हूँ तो 'अदालत' के सत्यकामी, आदर्शवादी एवं निर्दोष आरोपियों के मसीहा के.डी. पाठक का चरित्र मुझे बड़ी राहत प्रदान करता है । अब इस धारावाहिक की पुरानी कड़ियां ही इंटरनेट पर देखी जा सकती हैं क्योंकि धारावाहिक बंद हो चुका है । लेकिन रोनित रॉय ने 'जान तेरे नाम' से लेकर 'अदालत' तक अभिनय कला का एक लम्बा सफ़र तय किया है जो नवोदित कलाकारों के लिए प्रेरणा बनना चाहिए । अमिताभ बच्चन के जन्म के ठीक तेईस साल बाद इस दुनिया में आने वाले रोनित रॉय अमिताभ बच्चन तो नहीं बन सके लेकिन वे अपने इस सफ़र में आगे भी नए मुकाम, नई मंज़िलें तय करें; यह मेरी इस अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेता को हार्दिक शुभकामना है ।
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शानदार पोस्ट |हार्दिक शुभकामनायें आपको
जवाब देंहटाएंआपके जैसे असाधारण कवि तथा शायर का आगमन ही मेरे लिए अत्यंत सम्मान की बात है तुषार जी । हृदय की गहनता से आपका आभार।
हटाएंरोनित रॉय के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। हमेशा की तरह शानदार प्रस्तुति के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय वीरेन्द्र जी ।
हटाएंआपका लेख शानदार है..और अदालत मेरा भी पसंदीदा धारावाहिक था..हालांकि अब टीवी से दूरियां बढ़ गईं है..श्री रोनित राय के कैरियर और उनके उम्दा अभिनय के कई पहलू पेश करने के लिए आपका धन्यवाद..
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार माननीया अर्पिता जी ।
हटाएंरोचक आलेख। अदालत मुझे भी पसन्द है विशेषकर के डी के बात करने का अंदाज। आजकल भी सोनी पल नाम के चैनल में इसके एपिसोड्स आते हैं जिन्हें यदा कदा देखता रहता हूँ। रोनित रॉय ने अपने निभाये किरदारों से अपनी एक अलग जगह स्थापित कर दी है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार विकास जी । इस मामले में हम दोनों एक ही वेव्लेंग्थ पर हैं ।
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