सिनेमा देखने का शौक़ लगभग सभी को होता है । हर वर्ग और समुदाय के लोग सिनेमा देखते हैं। यूँ तो समूचे विश्व में यह लोकप्रिय है लेकिन हमारे देश में तो यह विशेष रूप से प्रचलित इसलिए भी है कि एक ओर तो यह कई दशक तक मनोरंजन का सबसे सस्ता साधन रहा है, दूसरी ओर कथाओं के प्रति लगाव हमारे यहाँ पुरातन काल से चला आ रहा है । अतः स्वाभाविक ही था कि जब पुस्तकों में वर्णित कथाएं चलती-फिरती तसवीरों के रूप में पर्दे पर आईं तो भारतीय जनता ने उन्हें हाथोंहाथ लिया । आज हमारे यहाँ सिनेमा ही नहीं, सिनेमा का संगीत तथा उसके कलाकार भी इस स्थिति में हैं कि उनकी लोकप्रियता को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता है ।
हज़ारों लोगों को रोज़गार देने वाला उद्योग होने के बावजूद यह भारतीय सिनेमा का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इसे औपचारिक रूप से उद्योग का दर्जा मिलने में दशकों लग गए । यह एक परियोजना आधारित उद्योग है क्योंकि प्रत्येक चलचित्र (फ़िल्म) अपने आप में एक पृथक परियोजना (प्रोजेक्ट) होता है । फ़िल्म-निर्माण में योगदान दे रहे सभी व्यक्ति प्रायः कई परियोजनाओं (फ़िल्मों) पर एक साथ काम कर रहे होते हैं । फ़िल्म का निर्माता ही उसके नफ़े-नुकसान का भागी होता है । अन्य सभी लोग अपना-अपना पारिश्रमिक लेकर अलग हो जाते हैं ।
फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया को निम्नलिखित चरणों में बांटकर समझा जा सकता है :
अ. कथानक एवं फ़िल्मांकन :
चूंकि हमारे यहाँ ढाई-तीन घंटे लंबी फ़िल्में बनती हैं जिन्हें फ़ीचर फिल्में कहा जाता है, इसलिए उनकी रूपरेखा एक कथानक पर आधारित होती है जिसका एक प्रारम्भ, विकास तथा चरम (क्लाइमेक्स) होता है । कथानक का आधार कोई पुस्तक भी हो सकती है और कोई संक्षिप्त विचार (आइडिया) भी । लेकिन पूरी लंबाई की फ़िल्म बनाने के लिए मूल विचार का विस्तार अथवा पुस्तक की कहानी का यथेष्ट अनुकूलन (एडेप्टेशन) आवश्यक होता है। इस उद्देश्य से कहानी का दृश्यों में बांटकर पुनर्लेखन किया जाता है । ऐसी कहानी को तकनीकी शब्दावली में पटकथा (स्क्रीनप्ले) कहते हैं । पटकथा के विभिन्न दृश्यों को भी फ़िल्मांकन हेतु बहुत-से भागों (शॉट्स) में विभाजित कर दिया जाता है तथा प्रत्येक दृश्य तथा प्रत्येक शॉट को एक विशिष्ट क्रम संख्या दी जाती है ।
फ़िल्मांकन को बोलचाल की भाषा में शूटिंग कहते हैं जिसमें फ़िल्म का कला-निर्देशक (आर्ट डायरेक्टर), अभिनय करने वाले कलाकार, छायाकार (कैमरामैन अथवा सिनेमेटोग्राफ़र) तथा इन सबके ऊपर फ़िल्म का मुख्य निर्देशक सम्मिलित होते हैं ।
फ़िल्म का निर्देशक उसके निर्माण-दल (यूनिट) का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग होता है जो पर्दे पर प्रस्तुत होने जा रही फ़िल्म के प्रत्येक भाग तथा पहलू की अग्रिम कल्पना (विज़ुअलाइज़) कर लेता है तथा अपनी इस कल्पना के आधार पर ही फ़िल्म के एक-एक दृश्य को मूर्तरूप देता है । फ़िल्म की रचना से जुड़ी हर बात में उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप होता है । पटकथा के आधार पर कलाकार कथानक के पात्रों का अभिनय करते हैं जिसका छायांकन फ़िल्म का छायाकार अपने मूवी-कैमरे से निर्देशक के आदेशों के अनुरूप करता है । प्रायः दृश्य की पृष्ठभूमि के अनुरूप स्टूडियो में सैट लगाकर शूटिंग की जाती है । यह कार्य फ़िल्म के कला-निर्देशक द्वारा किया जाता है । भारत में फ़िल्म-निर्माण के दो प्रमुख केंद्र मुंबई तथा चेन्नई हैं जहाँ अनेक स्टूडियो बने हुए हैं । कई बार फ़िल्म के बहुत-से भाग की शूटिंग बाहरी स्थलों (आउटडोर लोकेशन्स) पर भी होती है ।
शूटिंग हर शॉट की अलग की जाती है तथा वह किस शॉट की है, इसका ध्यान रखने के लिए दृश्य संख्या तथा शॉट संख्या को एक पट्टी पर लिखकर पहले उसे शूट किया जाता है जिसे तकनीकी शब्दावली में क्लैप देना कहते हैं । जब तक निर्देशक कलाकारों के हाव-भावों तथा दृश्य के फ़िल्मांकन से संतुष्ट नहीं हो जाता, उसे बार-बार शूट किया जाता है । अपनी तसल्ली के लिए निर्देशक शूट किए गए हिस्सों को बाद में मॉनीटर पर देखता है । इन हिस्सों को तकनीकी शब्दावली में रशेज़ कहते हैं । कितने दृश्यों की शूटिंग हो चुकी है तथा कितनों की बाकी है, इसका हिसाब रखने के लिए पटकथा को चिह्नित (मार्क) करके एक चार्ट बनाकर रखा जाता है जिसे कंटीन्यूटी चार्ट कहते हैं ।
शूटिंग कार्य में ड्रैस डिज़ाइनर का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है जो कथानक की आवश्यकतानुसार पात्रों की पोशाकें तैयार करता है । कलाकारों के चेहरों पर चमक उभारने के लिए तथा उन्हें स्वाभाविक से अधिक सुंदर दिखाने के लिए या कई बार पात्र की आवश्यकता के अनुरूप शूटिंग से पूर्व उनका मेकअप अनिवार्य रूप से किया जाता है ।
यदि दृश्य में पात्रों से नृत्य करवाया जाता है तो नृत्य-निर्देशक (कोरियोग्राफ़र) की सेवाएं ली जाती हैं जो इस क्षेत्र का विशेषज्ञ होता है । एक्शन दृश्यों के लिए एक दूसरे विशेषज्ञ की सेवाएं ली जाती हैं जिसे एक्शन डायरेक्टर कहते हैं । यदि एक्शन दृश्यों में जान का जोखिम हो तो मुख्य कलाकारों के स्थान पर उनसे मिलती-जुलती शक्ल वाले कलाकारों (डुप्लीकेट्स) से वे दृश्य करवाए जाते हैं । मारधाड़ के दृश्यों के फ़िल्मांकन हेतु कई कैमरे एक साथ लगाकर दृश्यों को विभिन्न कोणों से शूट किया जाता है जिनमें से बाद में छांटकर उत्तम भाग फ़िल्म में सम्मिलित करने हेतु रख लिए जाते हैं तथा बाकी सम्पादन में बाहर निकाल दिए जाते हैं ।
कलाकार की दोहरी भूमिका वाले दृश्यों तथा इसी प्रकार के अन्य विशेष प्रभाव वाले दृश्यों में विशेष तकनीकों का प्रयोग किया जाता है । फिल्म-निर्माण की प्रक्रिया में कंप्यूटर के आगमन के बाद कंप्यूटर-ग्राफ़िक्स की सहायता से विविध प्रकार के दृश्यों का संयोजन अत्यंत सुगम हो गया है जिनमें शूटिंग हेतु वास्तविक वस्तुओं तथा प्राणियों की भी आवश्यकता नहीं पड़ती ।
बहुत-से ऐसे कलाकारों की भी सेवाएं ली जाती हैं जिनकी भूमिका महत्वहीन होती है यथा जो केवल भीड़ अथवा समूह के रूप में प्रयुक्त होते हैं । ऐसे कलाकार पहले एक्स्ट्रा कहलाते थे किन्तु अब कनिष्ठ कलाकार (जूनियर आर्टिस्ट) कहलाते हैं । ये संबन्धित एजेंसियों के द्वारा निर्माता को भेजे जाते हैं जो भुगतान भी उनकी आपूर्ति करने वाली एजेंसी को ही करता है ।
शूटिंग के लिए विभिन्न कलाकारों की समान तारीखें (डेट्स) बुक करके शूटिंग का कार्यक्रम (शूटिंग-शेड्यूल) बनाया जाता है जिसमें पूरी फ़िल्म या उसके एक भाग को पूरा करने का लक्ष्य रखा जाता है । यदि शूटिंग मुंबई या चेन्नई में स्टूडियो में होती है तो यह सामान्यतः शिफ़्ट प्रणाली से होती है जिसमें नौ घंटे की एक शिफ़्ट होती है । लेकिन यदि शूटिंग आउटडोर लोकेशन पर होती है तो निर्धारित शेड्यूल में उसे पूरा करने के लिए बिना समय की परवाह किए रात-दिन भी काम किया जाता है ।
ब. गीत-संगीत :
दृश्यों में समुचित प्रभाव उत्पन्न करने के लिए पृष्ठभूमि के संगीत (बैकग्राउण्ड म्यूज़िक) का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है । हमारे देश में संगीत के प्रति जनता के लगाव के कारण प्रायः फ़िल्मों में संगीतबद्ध गीत भी रखे जाते हैं । संगीत फ़िल्म के मूड तथा निर्देशक की सोच के अनुसार रखा जाता है । यह कार्य विशेषज्ञ संगीत-निर्देशक करते हैं जो धुन तैयार करके (कम्पोज़ करके) गीतकार से दृश्य की स्थिति (सिचुएशन) के अनुरूप गीत लिखवाते हैं तथा अपने सहायक संगीतकार (जिसे अरेंजर कहा जाता है) से वाद्य-यंत्रों का संयोजन करवाते हैं । जब गीत अपनी संपूर्णता के साथ तैयार हो जाते हैं तो विशेषज्ञ पार्श्व गायकों तथा गायिकाओं से उन्हें गवाकर रिकॉर्डिंग कर ली जाती है तथा शूटिंग के समय अभिनय कर रहे कलाकार गीतों के स्वरों के अनुकूल अपने होठ हिला देते हैं ।
स. तकनीकी पक्ष एवं अंतिम चरण के कार्य :
शूटिंग का मुख्य कार्य एक बार पूर्ण हो जाने के बाद फ़िल्म को उसके अंतिम रूप में लाने के लिए जो आवश्यक कदम उठाए जाते हैं उन्हें फ़िल्म का पोस्ट-प्रॉडक्शन कार्य कहते हैं । इनमें प्रमुख होते हैं – डबिंग एवं री-रिकॉर्डिंग तथा सम्पादन (एडीटिंग)।
डबिंग में एक ध्वनिरोधक (साउंडप्रूफ़) कक्ष में कलाकारों के संवाद पुनः बुलवाकर उन्हें फ़िल्म में यथास्थान लगाया जाता है । ऐसा इसलिए आवश्यक होता है क्योंकि शूटिंग के समय कई अनावश्यक स्वर यथा पंखों तथा जनरेटर की ध्वनियां, शूटिंग देख रहे दर्शकों का शोर आदि उपस्थित होते हैं जिन्हें फ़िल्म में नहीं होना चाहिए । इसके अतिरिक्त कई बार फ़िल्म के मुख्य पात्र की भूमिका निभा रहे कलाकार को संबन्धित भाषा का सम्यक ज्ञान न होने के कारण भी निर्माता यह ठीक समझता है कि उसके संवाद किसी और व्यक्ति की आवाज़ में डब करवा लिए जाएं ताकि उच्चारण दोष फ़िल्म के प्रभाव को कम न कर दे । तत्पश्चात सम्पूर्ण संवादों एवं संगीत की फ़िल्म के दृश्यों के साथ तालमेल बैठाकर री-रिकॉर्डिंग की जाती है । पिछले कुछ समय से फ़िल्में सिंक-साउंड में बनाई जाने लगी हैं जिसमें शूटिंग के समय अवांछित बाहरी ध्वनियां फ़िल्म में सम्मिलित नहीं होने पातीं, इसलिए बाद में डबिंग की आवश्यकता भी नहीं पड़ती ।
एडीटिंग अथवा सम्पादन फ़िल्म-निर्माण का सबसे अंतिम किन्तु संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कार्य है । संपादक फ़िल्म के विभिन्न दृश्यों को पटकथा के अनुसार सिलसिलेवार लगाकर क्लैप के दृश्यों को (जिनमें आने वाले दृश्य तथा शॉट की क्रम संख्या दर्ज़ होती है) हटा देता है । यदि कहीं कहानी के प्रवाह में बाधा या किसी दृश्य की कमी अनुभव होती है (जिसे तकनीकी भाषा में कंटीन्यूटी गैप या कंटीन्यूटी जर्क कहते हैं) तो उसे दूर करने हेतु आवश्यक दृश्य फ़िल्माकर फ़िल्म में सम्मिलित किए जाते हैं । यह अतिरिक्त फ़िल्मांकन का कार्य तथा ऐसे ही अन्य फुटकर कार्य सामूहिक रूप से फ़िल्म का पैचवर्क कहलाते हैं । निर्देशक एवं संपादक मिलकर कथानक के प्रस्तुतीकरण का ढंग निर्धारित करते हैं । वे ही तय करते हैं कि कहानी को सीधे रूप में दिखाया जाए या अतीतावलोकन (फ़्लैश बैक) के द्वारा प्रस्तुत किया जाए । फ़िल्म का मध्यांतर (इंटरवल) कहानी के किस बिन्दु पर किया जाए, यह निर्णय भी उन्हीं का होता है । तदोपरांत निर्देशक की सलाह से ही संपादक यह तय करता है कि फ़िल्म की लंबाई कितनी रखी जाए । शूट की गई फ़िल्म की लंबाई सामान्यतः फ़िल्म के अंतिम रूप की लंबाई से बहुत अधिक होती है । अतः जिन दृश्यों के साथ जितनी लंबाई की फ़िल्म रखनी है, उतनी रखकर बाकी हिस्सा संपादक की कैंची से काटकर निकाल दिया जाता है । यही फ़िल्म का अंतिम रूप होता है जिसे डेवलप करके निगेटिव बनाया जाता है और फिर उससे प्रदर्शन हेतु प्रिंट बनाए जाते हैं । इसीलिए कहा जाता है कि वास्तविक फ़िल्म तो संपादक की मेज़ पर ही बनती है । सम्पादन-कार्य को भलीभाँति जान लेने वाले व्यक्ति को फ़िल्म-निर्माण की विभिन्न बारीकियों का ज्ञान स्वाभाविक रूप से हो जाता है । यही कारण है कि अनेक संपादक आगे चलकर फ़िल्म-निर्देशक बनते हैं ।
एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य फ़िल्म की नामावली (टाइटल्स) तैयार करके उसे फ़िल्म में सम्मिलित करना होता है । विभिन्न संगठनों के दबाव के कारण अब फ़िल्म की निर्माण-प्रक्रिया से छोटे-से-छोटे रूप में जुड़े व्यक्तियों तक का नाम देकर उन्हें श्रेय (क्रेडिट) देना आवश्यक हो गया है । कुछ अपवादस्वरूप निर्माताओं को छोड़कर प्रायः सभी निर्माता फ़िल्म की नामावली अंगरेज़ी में ही देते हैं । यह कार्य भी इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से ही करवाया जाता है । निर्देशक का नाम सबसे अंत में देकर फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया में उसकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया जाता है । कुछ वर्षों पूर्व तक सम्पूर्ण नामावली फ़िल्म के आरंभ में ही दे दी जाती थी किन्तु अब आरंभ में फ़िल्म में धन लगाने वाले साझेदारों एवं अन्य प्रायोजकों के नाम देने में बहुत समय लग जाने के कारण फ़िल्म के मुख्य कलाकारों एवं अन्य प्रमुख योगदान करने वालों (संगीतकार, निर्देशक आदि) के नाम ही आरंभ में दिए जाते हैं जबकि यूनिट के अन्य सभी सदस्यों के नाम फ़िल्म के अंत में एक लंबी सूची के रूप में दिखाए जाते हैं ।
फ़िल्म का शीर्षक प्रायः निर्माता फ़िल्म-निर्माण से पहले ही निर्धारित संस्था से पंजीकृत करवा लेता है ताकि उसे कोई अन्य निर्माता अपनी फ़िल्म के लिए प्रयुक्त न कर सके । फ़िल्म के प्रदर्शन के कुछ वर्षों बाद तक दोबारा उस शीर्षक की फ़िल्म नहीं बन सकती तथा बाद में भी निर्माता उस शीर्षक को समय-समय पर नवीनीकृत करवा कर उसे किसी और को काम में लेने देने या न लेने देने का अधिकार अपने पास रख सकता है ।
अंततोगत्वा फ़िल्म को प्रयोगशाला में डेवलप करके निगेटिव बनाया जाता है जिसके कि वितरण की आवश्यकतानुसार प्रिंट तैयार किए जाते हैं । लेकिन यह कार्य करने से पहले निर्माता को सभी संबन्धित कलाकारों एवं तकनीशियनों को उनके पारिश्रमिक का पूर्ण भुगतान कर देना आवश्यक होता है जिसके बाद प्रत्येक संबन्धित व्यक्ति उसे एक पत्र देता है जो उसके पारिश्रमिक की कोई राशि बकाया न होने का प्रमाण होता है । इस पत्र को लैब लेटर कहते हैं । ऐसे सभी व्यक्तियों से लैब लेटर मिल जाने के बाद ही फ़िल्म प्रयोगशाला में डेवलप हो पाती है तथा निगेटिव एवं प्रिंट बन पाते हैं ।
द. सेंसर प्रमाण-पत्र :
फ़िल्म का पहला प्रिंट भारत के केंद्रीय फ़िल्म सेन्सर बोर्ड को दिखाकर फ़िल्म के प्रदर्शन योग्य होने का प्रमाण-पत्र लिया जाता है । सेंसर बोर्ड निर्धारित मानकों के अनुरूप फ़िल्म का मूल्यांकन करके उसे सभी के देखने योग्य (यू) अथवा केवल वयस्कों के देखने योग्य (ए) अथवा अवयस्कों हेतु केवल अभिभावकों के साथ देखने योग्य (यू / ए) प्रमाण-पत्र देता है । आवश्यकता होने पर सेंसर बोर्ड फ़िल्म के कुछ हिस्सों को काटने का आदेश भी दे सकता है अथवा सम्पूर्ण फ़िल्म को ही प्रदर्शन के अयोग्य मानकर प्रमाण-पत्र देने से मना कर सकता है । सेंसर बोर्ड के निर्णय से असंतुष्ट होने पर निर्माता के पास संशोधन समिति (रिवाइज़िंग कमिटी) के पास जाने एवं सेंसर बोर्ड के निर्णय के विरुद्ध न्यायालय में अपील करने का विकल्प होता है ।
य. विपणन एवं वित्त-प्रबंधन :
फ़िल्म एक उत्पाद (प्रॉडक्ट) होता है जो पूर्ण होने के बाद प्रदर्शन द्वारा आय अर्जित करने हेतु निर्माता को उपलब्ध होता है । निर्माता के लिए फ़िल्म के माध्यम से आय-अर्जन निम्नलिखित तरीकों से हो सकता है :
1.
फ़िल्म के सिनेमाघरों में प्रदर्शन संबंधी अधिकारों का विक्रय
2.
फ़िल्म के वीडियो पर प्रदर्शन संबंधी अधिकारों का विक्रय
3.
फ़िल्म के टेलीविज़न पर प्रदर्शन संबंधी अधिकारों का विक्रय
4. फ़िल्म के संगीत अधिकारों का विक्रय
इनमें सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म के सिनेमाघरों में प्रदर्शन संबंधी अधिकारों का विक्रय है जिससे कि निर्माता को मुख्यतः आय होती है । वह अपने उत्पाद यानी अपनी फ़िल्म को सिनेमाघरों में प्रदर्शन हेतु वितरकों को बेचता है । इस उद्देश्य से सम्पूर्ण भारत को अनेक वितरण-क्षेत्रों (डिस्ट्रीब्यूशन टेरीटरीज़) में बांटा हुआ है तथा विक्रय की दर प्रति वितरण-क्षेत्र तय होती है । प्रायः वितरकों का प्रभाव-क्षेत्र कुछ वितरण-क्षेत्रों तक ही सीमित होता है तथा वे उन्हीं के वितरण अधिकार ख़रीदते हैं । आजकल भारत के अलावा विदेशों में भी भारतीय फिल्में प्रदर्शित होती हैं । विदेशों में प्रदर्शन हेतु फ़िल्म के वितरण अधिकारों को ओवरसीज़ राइट्स कहा जाता है । वितरण अधिकार ख़रीदने के बाद वितरकों के द्वारा फ़िल्म के प्रिंट प्रदर्शकों (एक्ज़ीबिटर्स) तक पहुँचते हैं जो सिनेमाघरों के मालिक होते हैं तथा फ़िल्मों को अपने सिनेमाघरों में प्रदर्शित करते हैं । इस प्रदर्शन को थियेटर रिलीज़ कहते हैं । यह सारे भारत में एक ही दिन होता है जो परंपरानुसार शुक्रवार का दिन होता है ।
वितरकों तथा निर्माता के बीच निर्धारित प्रति क्षेत्र वितरण-मूल्य निर्माता की प्रतिष्ठा (जो कि उसके द्वारा पूर्व में निर्मित फ़िल्मों की सफलता पर निर्भर करती है) के आधार पर तय होता है । यदि निर्माता फ़िल्म की सफलता के संबंध में वितरकों को आश्वस्त करके अपने द्वारा वांछित मूल्य पर फ़िल्म के प्रदर्शन के अधिकार बेच देने में सफल हो जाता है तो उसके लिए प्रदर्शन से पूर्व ही फ़िल्म लाभ का सौदा सिद्ध हो जाती है तथा फ़िल्म के न चलने का जोखिम पूरी तरह वितरक पर आ जाता है । इसे निर्माता के दृष्टिकोण से मेज़ पर मुनाफ़ा (प्रॉफ़िट ऑन टेबल) कहते हैं । इसके विपरीत यदि फ़िल्म की सफलता के प्रति वितरक आश्वस्त नहीं है तो वह निर्माता को कोई तय रकम देकर वितरण अधिकार ख़रीदने के स्थान पर उसके साथ ऐसा अनुबंध कर सकता है कि वह एक निर्धारित समय सीमा में फ़िल्म के टिकट बेचकर हुई आमदनी (मनोरंजन कर घटाकर जो निर्धारित दर से संबंधित राज्य की सरकार को देना पड़ता है) का एक निश्चित भाग निर्माता को देगा । इससे जोखिम निर्माता एवं वितरक दोनों में बंट जाता है । इसके विपरीत दीर्घकाल से प्रतिष्ठित निर्माता जिनकी पूर्व में निर्मित फ़िल्में सफलता के झंडे गाड़ चुकी हों, न केवल अपनी मुँहमाँगी दर पर वितरण अधिकार बेचते हैं बल्कि फ़िल्म के बनने से पूर्व ही वितरकों से अग्रिम-राशि तक वसूल कर लेते हैं जिसका कि उपयोग वे फ़िल्म बनाने में करते हैं । अगर निर्माता नया है तथा वितरक फ़िल्म के मौजूदा स्वरूप से उसकी सफलता के प्रति आश्वस्त नहीं हो पाते हैं तो उनके दबाव में निर्माता को फ़िल्म में कतिपय परिवर्तन करने पड़ सकते हैं । ऐसे में फ़िल्म में जोड़े जाने वाले दृश्यों (दर्शकों को लुभाने वाले नृत्य-गीत आदि) की शूटिंग की व्यवस्था उसे करनी पड़ती है ।
फ़िल्म के प्रदर्शन से पूर्व एवं प्रायः उसके बनते-बनते ही उसका समुचित प्रचार शुरू हो जाता है । पहले यह प्रचार पोस्टरों, होर्डिंग्स, पत्र-पत्रिकाओं में विज्ञापन तथा फ़िल्म के प्रमुख दृश्यों को लेकर बनाए गए ट्रेलरों से ही किया जाता था लेकिन टेलीविज़न चैनलों का युग आ जाने के बाद इन माध्यमों के साथ-साथ टेलीविज़न पर फ़िल्म के दृश्यों एवं गीतों को कुछ सैकंडों के विज्ञापनों में दिखाए जाने का सर्वाधिक प्रभावशाली एवं लोकप्रिय साधन विकसित हो गया है । ये चंद सैकंडों के विज्ञापन प्रोमो कहलाते हैं । टेलीविज़न चैनलों पर इन प्रोमोज़ को दिखने के विशिष्ट कार्यक्रम होते हैं जिनमें दर्शक घर बैठे-बैठे आने वाली या चल रही अनेक फ़िल्मों के विज्ञापन एक साथ देख लेता है ।
फ़िल्म बनाने हेतु वित्त की व्यवस्था पहले इस धंधे में लगे साहूकारों (फ़ाइनेंसर्स) के माध्यम से की जाती थी । अपराध-जगत (अंडरवर्ल्ड) के धन से बनने का आरोप भी कतिपय फ़िल्मों पर लग जाया करता था । पर अब फ़िल्म-निर्माण को उद्योग का दर्ज़ा मिल जाने के बाद निर्माता को न केवल विभिन्न साझेदारों एवं प्रायोजकों का वित्तीय सहयोग मिल जाता है बल्कि उसके समक्ष बैंक आदि संस्थाओं से ऋण लेने तथा अपनी फ़िल्म निर्माण संस्था को पब्लिक लिमिटेड कंपनी में परिणत करके आम जनता से धन एकत्र करने के विकल्प भी खुल गए हैं ।
मुख्य कलाकारों, निर्देशक, संगीतकार आदि को अनुबंधित करते समय उन्हें निर्धारित पारिश्रमिक का एक भाग अग्रिम दे दिया जाता है जिसे बोलचाल की भाषा में साइनिंग एमाउंट कहा जाता है । बाकी रकम निर्माता धीरे-धीरे फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया चलने के साथ-साथ उन्हें देता जाता है । छोटे कलाकारों, तकनीशियनों, सहायकों आदि को तो, यदि वे निर्माता के वेतनभोगी कर्मचारी नहीं हैं, काम के साथ-साथ तुरंत ही (प्रायः शिफ़्ट ख़त्म होते ही या आउटडोर लोकेशन पर शूटिंग शेड्यूल पूरा होने से पहले) भुगतान करना पड़ता है । सभी प्रमुख व्यक्तियों से निर्माता को लैब लेटर लेना पड़ता है जो वे अपनी सारी बकाया राशि मिल जाने पर देते हैं जिसके बाद ही फ़िल्म का निगेटिव प्रयोगशाला में बन पता है । छोटे कर्मचारियों, कनिष्ठ कलाकारों, तकनीशियनों, डुप्लिकेट्स आदि को पूरा पारिश्रमिक, दुर्घटना होने पर क्षतिपूर्ति, सेवानिवृत्त होने पर एकमुश्त धनराशि आदि दिलवाने हेतु आजकल कई संगठन सक्रिय हैं । अतः भारतीय सिनेमा के प्रारम्भिक वर्षों की भांति भारी पैमाने पर श्रम-शोषण अब सहज नहीं है ।
अंततोगत्वा पूर्ण निर्मित फ़िल्म वितरकों के माध्यम से प्रदर्शकों द्वारा सिनेमाघरों (थियेटरों) में प्रदर्शित होती है । विभिन्न शहरों में उसके व्यवसाय (कलैक्शन) के आँकड़े पत्र-पत्रिकाओं में दिए जाते हैं तथा दर्शकों के रुख़ को भांपने का प्रयास किया जाता है । फ़िल्म सफल (हिट) है या असफल (फ़्लॉप), इसका सटीक और अंतिम निर्णय केवल जनता जनार्दन करती है ।
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जानकारी से भरपूर समसामयिक रचना के लिए हार्दिक आभार माननीय। सादर।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीया सधु जी ।
हटाएंसिलसिलेवार ढंग से आपने फिल्म निर्माण की जटिल प्रक्रिया को बेहद सरल रूप से समझाया है। अगर कोई अध्यापक फिल्म निर्माण की बारीकियां सीख रहे छात्रों को प्रथम क्लास दें तो उसके लिए आपकी पोस्ट बढ़िया नोट्स साबित हो सकती है। आपको बधाई। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार वीरेन्द्र जी ।
हटाएंबहुत विस्तृत रूप में आपने सिनेमा जगत की गतिविधियां प्रस्तुत की हैं..हम तक कोई फिल्म पहुंचने में बहुत लंबा सफर तय करती है..जानकारी देते रहें..शुभ कामनाएं
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार आपका ।
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आदरणीय आलोक जी ।
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