चार दशक से अधिक पुरानी पुस्तकें पढ़ने की आदत एकाएक ही छूट गई। मन में कहीं कुछ ऐसा आघात लगा कि पढ़ना निस्सार प्रतीत होने लगा। समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं में अथवा ब्लॉग जगत पर भी कुछ पढ़ने को अब जी नहीं करता। लिखना भी अब न के बराबर ही है। फिर भी लिखना शायद इसलिए जारी रहेगा कि यह मेरे लिए अपने मन की घुटन को अल्फ़ाज़ के ज़रिये बाहर निकाल देने का काम करता है। मैंने औरों के पढ़ने के लिए बहुत कम लिखा है। प्रायः आत्मसंतोष के निमित्त ही लिखता हूँ। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि लिखकर इंटरनेट पर डाला ही नहीं, बस लिखा और ख़ुद ही पढ़कर रख दिया - आगे कभी फिर से पढ़ने के लिए। जो कुछ भी लिखकर सार्वजनिक किया; उसे किसी ने पढ़ा तो भी ठीक, न पढ़ा तो भी ठीक। जितनी भी ज़िन्दगी अब बची है, उसमें कुछ लिखने के लिए तो नज़रिया आगे भी शायद यही रहेगा।
बचपन में ही समाचार-पत्रों तथा बाल-पत्रिकाओं को पढ़ने का ऐसा व्यसन मनोमस्तिष्क पर चढ़ा कि किशोरावस्था रही हो अथवा युवावस्था अथवा प्रौढ़ावस्था, पढ़ना कभी छूटा ही नहीं। आज अनुभव होता है कि मेरे स्वर्गवासी पिता कितने उदार थे जो परिवार की दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद केवल मेरे पठन के निमित्त प्रत्येक मास छः-सात बाल-पत्रिकाएं घर में आया करती थीं। अख़बार बांटने वाले स्वर्गीय गोपीलाल मालाकार जी के आगमन की मैं प्रतिदिन उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करता था यह देखने हेतु कि किसी बाल-पत्रिका का नवीन अंक आया है अथवा नहीं। पिता के विद्यालय के पुस्तकालय की भी अधिकांश (संभवतः सभी) पुस्तकें मैंने घर पर ला-लाकर पढ़ डाली थीं (मेरी बाल्यावस्था में मेरे पिता एक राजकीय प्राथमिक पाठशाला में प्रधानाध्यापक थे, यह पाठशाला ग्रामीण क्षेत्र में स्थित एक छोटी-सी पाठशाला थी जिसमें दो ही अध्यापक होते थे तथा मेरे पिता प्रधानाध्यापक होते हुए भी तृतीय श्रेणी की वेतन-शृंखला के अंतर्गत ही थे)। कुछ वर्षों के उपरांत महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की तो महाविद्यालय के पुस्तकालय से भी हिन्दी साहित्य की पुस्तकें निर्गमित करवा-करवाकर पढ़ता रहा। किराये पर भी बहुत सारे बाल उपन्यास तथा कॉमिक पुस्तकें ले-लेकर पढ़ीं (उन दिनों बहुत कम दैनिक किराये पर पुस्तकें देने वाली दुकानें चला करती थीं)। इसी समयावधि में (अर्थात् अपने विद्यार्थी जीवन में) अपने कस्बे में स्थित सार्वजनिक पुस्तकालय (वाचनालय) में नियमित रूप से जाता रहा तथा पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता रहा। कोलकाता (कलकत्ता) में रहकर उच्च-शिक्षा प्राप्त करने की अवधि में भी अपने निवास (चित्तरंजन एवेन्यू) के निकटस्थ 'बड़ा बाज़ार' में संध्या को फ़ुटपाथ पर उपन्यासों के ढेर लगाकर बैठने वालों से ले-लेकर दर्ज़नों उपन्यास पढ़े। दो अंग्रेज़ी के तथा एक हिन्दी का समाचार-पत्र तो उन दिनों नियमित रूप से पढ़ता ही था। कहते हैं, शक्करख़ोरे को शक्कर और मूज़ी को टक्कर मिल ही जाती है। जब पहली नौकरी लगी (राजस्थान में सिरोही ज़िले में स्थित लक्ष्मी सीमेंट में) तो वहाँ भी अधिकारियों के क्लब तथा कार्मिकों के मनोरंजन केन्द्र में समृद्ध पुस्तकालय मिले जिनमें हिन्दी की ढेरों पुस्तकें थीं तो पढ़ने का शौक़ पूरा होता ही रहा, कोई कसर नहीं रही। फिर जीवन में चाहे जहाँ रहा, गद्य एवं पद्य दोनों ही की तथा हिन्दी एवं अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं की पुस्तकें जमकर पढ़ीं। लुगदी साहित्य से लेकर उत्कृष्ट साहित्य एवं ज्ञानवर्धक पुस्तकें सभी पढ़ीं। हिन्दी तथा अंग्रेज़ी की पाक्षिक पत्रिकाएं पढ़ना भी दशकों तक जारी रहा। भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा देने हेतु मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र को अपने वैकल्पिक विषयों के रूप में चुना तो अध्यवसाय और अधिक बढ़ा तथा पठित सामग्री में और भी विविधता आई। जब सूझा कि कुछ लिखने का भी प्रयास किया जाए तो शीघ्र ही समझ में आ गया कि कविता हो अथवा शायरी, मेरे वश की नहीं थी। अतः गद्य में लिखने पर ही ध्यान लगाया। पर यह पढ़ने-लिखने का चस्का सन दो हज़ार बाईस में आकर मेरे मन से हटने क्यूं लगा ?
संसार एवं समाज की अधिकतर समस्याओं व दुखों का कारण जो मैंने समझा है, वह है मानव में संवेदना का अभाव अथवा उसकी अल्पता। यह संवेदनहीनता ही है जो मनुष्य को अत्याचारी एवं अन्यायी बनाती है तथा यह संवेदनहीनता ही है जो प्रायः तथाकथित तटस्थ व्यक्तियों में दृष्टिगोचर होती है। सत्य से नेत्र मूंदकर स्वयं को तटस्थ मान लेने से वस्तुस्थिति परिवर्तित नहीं होती है। भले लोगों की तटस्थता ही बुरे लोगों को (या यूँ कहिये कि बुराई को) विजयी बनाती है। यह संवेदनहीनता का ही एक रूप है। बालकों में एक स्वाभाविक संवेदनशीलता होती है जो बड़े होने के साथ-साथ घटती चली जाती है क्योंकि यह समाज ही है जो सफलता को संवेदना पर वरीयता देता है तथा बालगोपालों से उनकी निर्दोषिता छीन लेता है (और इसी को समाजीकरण बताकर आप ही अपनी पीठ भी थपथपाता है)। राजेश रेड्डी साहब की एक मशहूर ग़ज़ल का एक शेर है -
जब जयजयकार सफलता की हो, संवेदनशीलता की नहीं तो संवेदना स्वतः ही पार्श्व में चली जाती है जबकि सफलता का जादू सर चढ़कर बोलता है। तथापि संवेदना का उदात्त भाव जितना असहाय आज है, उतना पूर्व में नहीं था (जब तथाकथित उदारीकरण एवं भूमंडलीकरण ने अपने पग नहीं पसारे थे तथा उपभोक्तावाद को सर्वोपरि नहीं बनाया था)। तब संवेदनशील व्यक्ति अधिक थे, संवेदनाएं अपने मूर्त रूप में अधिक स्थलों पर दृष्टिगोचर होती थीं तथा प्राणिमात्र के प्रति संवेदना एक सर्वस्वीकार्य जीवन मूल्य था। यह वह समय था जब प्यासों को (नि:शुल्क) जल पिलाने हेतु प्याऊ स्थापित किए जाते थे, मिनरल वाटर की बोतलें एवं पाउच नहीं बेचे जाते थे।
मैं पहले यह समझा करता था कि साहित्यकार (कवि एवं लेखक) तथा कलावंत संवेदनशील होते हैं। अंग्रेज़ी में मोपासां, ओ हेनरी, हैंस क्रिश्चियन एंडरसन, रस्किन बांड, गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर आदि की रचनाएं पढ़ीं; हिन्दी में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, यशपाल, उषा प्रियंवदा आदि की कृतियां पढ़ीं; मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, रामधारीसिंह दिनकर. हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगलसिंह सुमन, जयशंकर प्रसाद आदि की कविताएं भी पढ़ीं एवं काव्य भी पढ़े। बच्चन जी की सुदीर्घ आत्मकथा (चार खंडों में) भी पढ़ी। बांग्ला के मूर्धन्य लेखकों एवं लेखिकाओं (बिमल मित्र, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, आशापूर्णा देवी आदि) की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी पढ़े। उर्दू साहित्य की भी कई कृतियों के देवनागरी संस्करण पढ़े। और लुगदी अथवा लोकप्रिय साहित्य में अगाथा क्रिस्टी, आर्थर कॉनन डॉयल, सिडनी शेल्डन, जॉन ग्रिशम, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, कर्नल रंजीत, टाइगर आदि की रहस्यकथाओं एवं थ्रिलरों के साथ-साथ गुलशन नंदा, कुशवाहा कान्त, रानू, प्रेम बाजपेयी, राजहंस आदि की सामाजिक रचनाओं को भी पढ़ने में कोई कोरकसर बाक़ी नहीं रखी। हिन्दी के लुगदी साहित्य में तो इतने नामों के (वास्तविक एवं छद्म, दोनों नाम वाले) लेखकों को पढ़ा कि सभी के नाम स्मरण रखना ही व्यवहारतः संभव नहीं। गोपालदास नीरज के गीत भी पढ़े तो ग़ालिब, फ़िराक़, दुष्यन्त कुमार, कुँअर बेचैन, परवीन शाकिर आदि की शायरी से भी नाता जोड़ा। संगीत में भी मन रमाया (चाहे सीख न सका) और सिनेमा-प्रेमी भी बना। लगा कि संवेदनशील कृतियों का सृजन करने वाले सृजनधर्मी स्वयं तो संवेदनशील होंगे ही।
किसी सीमा तक यह बात मुझे आज भी सत्य के निकट लगती है जब ज़िक्र उस वक़्त का हो जो बीत चुका है। ज़िन्दगी को नज़दीक से देखे बिना प्रेमचंद, यशपाल, बिमल मित्र, रवींद्रनाथ ठाकुर, उषा प्रियंवदा, महादेवी वर्मा आदि अपनी कालजयी रचनाओं का सृजन नहीं कर सकते थे। न ही गुरु दत्त 'प्यासा' और 'काग़ज़ के फूल' जैसी अमर कृतियां रजतपट पर प्रस्तुत कर सकते थे यदि उन्होंने जीवन एवं संसार को निकट से न जाना होता। लेकिन अब ...
अब धीरे-धीरे ज़िन्दगी के तजुर्बात से गुज़रते-गुज़रते मुझे समझ में आ गया है कि अन्य विधाओं की भांति ही कला एवं साहित्य से सम्बद्ध विधाएं भी कुछ नैसर्गिक प्रतिभा एवं कुछ अभ्यास के आधार पर ही अवस्थित होती हैं जिसका संवेदनशीलता से नाता होना आवश्यक नहीं। चाहे कलाकार (गायक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, शिल्पकार आदि) हों अथवा साहित्यकार (लेखक, कवि, नाटककार आदि); मानवीय राग-द्वेष-ईर्ष्या तथा अन्य विकारों से उसी भांति ग्रसित होते हैं जिस भांति अन्य प्रकार के सामान्य मानवगण। वे बातें चाहे जितनी परहित की करें, प्रधान उनके लिए भी निज हित ही होता है (अपवादों को छोड़कर)। कला तथा साहित्य से संबंधित संस्थाओं एवं मंचों में क्षुद्र राजनीति होने का और क्या कारण हो सकता है ? एक बार मैंने बांग्ला एवं अंग्रेज़ी की मूर्धन्य कवयित्री, लेखिका एवं समीक्षिका (वे उच्च कोटि की गायिका भी हैं) गीताश्री चटर्जी से अपना यह विचार साझा किया था तो उन्होंने इससे सहमति ही जताई थी। अंततः कला एवं साहित्य से आबद्ध मनुष्यों के बहुमत को भी सांसारिक सफलता (जिसमें भौतिक सुख-सुविधाएं तथा लोकप्रियता दोनों ही समाहित होती हैं) ही चाहिए। इसीलिए ऐसे व्यक्ति केवल विशुद्ध प्रतिभा के अवलम्ब पर नहीं चलते, भौतिक जगत में वांछित परिणाम देने वाले उपायों का भी अनुसरण करते हैं चाहे वे उनके घोषित आदर्शों के अनुरूप न हों। अन्यथा कविवर निराला एवं कवि प्रदीप की भांति घोर ग़रीबी का सामना करना पड़ सकता है। बानवे वर्ष से अधिक की आयु पाने वाली लता मंगेशकर के निधन पर श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ जाती है जबकि मात्र बयालीस वर्ष की अवस्था में आर्थिक तंगी के मध्य प्राण त्याग देने वाली गीता दत्त को स्मरण करके पता नहीं किसी के मन में हूक भी उठती है या नहीं। जो सफल है, वही अभिनंदनीय है, वही पूज्य है। संवेदनाएं भी उसी की (चाहे वास्तविक हों या प्रदर्शनी) देखी और सराही जाती हैं।
मैंने हमेशा अच्छा इंसान होने को कामयाब इंसान होने पर तरजीह दी लेकिन ज़िन्दगी का ज़्यादातर हिस्सा बीत जाने पर (बहुत देर से) इस हक़ीक़त को समझ पाया कि दुनिया का चलन ऐसा है जिसमें अच्छे की अच्छाई और सच्चे की सच्चाई ही उसकी दुश्मन बन जाती है। संसार सफलता को पूजता है, सद्गुणों को नहीं (यद्यपि सैद्धांतिक रूप से ढोल सद्गुणों का ही बजाया जाता है)। मैं स्वयं को संवेदनशील मानता हूँ। क्या मैंने जीवन भर जो संवेदनशील रचनाएं पढ़ीं या सुनीं या देखीं, उन्होंने मुझे संवेदनशील बनाया ? नहीं ! उन्होंने मेरी उस संवेदनशीलता से संवाद स्थापित किया जो सदा से मेरे भीतर थी। इसीलिए अनेक संवेदनशील रचनाओं को पढ़कर मेरा मन आर्द्र हो उठा - बालपन में भी एवं वयस्क होने पर भी। तलत महमूद साहब के गाए हुए कई गीत और आशा भोंसले जी की गाई हुई कई ग़ज़लें सुनकर मेरी आँखों से जल की धाराएं बह निकलीं। वहीदा रहमान और राजेश खन्ना अभिनीत फ़िल्म 'ख़ामोशी' (१९६९) को मैं कभी बिना रोये पूरा देख ही नहीं सका तो लुगदी साहित्य के नाम से प्रचलित (सुरेन्द्र मोहन पाठक रचित) 'काग़ज़ की नाव' तथा (वेद प्रकाश शर्मा रचित) 'एक कब्र सरहद पर' जैसे उपन्यासों के पठन ने भी मेरे नयनों को अश्रुओं से भर दिया। साहित्य में तो सर्वाधिक प्रेमकथाएं ही रची गई हैं। जब पंडित चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की 'उसने कहा था', जयशंकर प्रसाद जी की 'मदन-मृणालिनी' व 'पुरस्कार', प्रेमचंद की 'प्रेम की होली' और शरत बाबू की 'मंदिर' जैसी कहानियां पढ़ीं; उषा प्रियंवदा जी कृत 'पचपन खंभे लाल दीवारें', गुलशन नंदा कृत 'जलती चट्टान', 'देव-छाया', 'सिसकते साज़' व 'सूखे पेड़ सब्ज़ पत्ते'; सुरेन्द्र मोहन पाठक कृत 'तीन दिन' और वेद प्रकाश शर्मा कृत 'सुहाग से बड़ा' जैसे उपन्यास पढ़े; 'राजस्थान पत्रिका' में धारावाही रूप से प्रकाशित अनंत कुशवाहा कृत 'जंतर बजता रहा', 'धोरों में दफ़न अमरप्रीत' और 'क्यूं ना जोही बाट' जैसी दुखांत प्रेम की गाथा कहने वाली चित्रकथाओं का अवलोकन किया तथा 'गूंज उठी शहनाई' (१९५९), 'सेहरा' (१९६३), 'दो बदन' (१९६६), 'मिलन' (१९६७), 'टाइटैनिक' (१९९७) और 'गैंगस्टर' (२००६) जैसी फ़िल्में देखीं तो मन में यही ख़याल आया कि सच्चे मन से प्रेम करने वालों के भाग्य में वियोग नहीं होना चाहिए (केवल प्रेमी-प्रेमिका ही नहीं, अन्य रूपों में प्रेम करने वालों के संदर्भ में भी)। जूते-चप्पल, मोज़े या दस्तानों के किसी जोड़े में से भी एक खो जाता है तो मेरे मन में कसक-सी उठती है। लेकिन ...
लेकिन संवेदनशील रचनाओं के तो मुझ जैसे लाखोंकरोड़ों उपभोक्ता (पढ़ने, सुनने या देखने वाले) होते हैं। संवेदनशील रचनाएं उन पर कितना प्रभाव डालती हैं ? आज अपने अब तक के जीवन के सम्पूर्ण अनुभव को निचोड़ कर मैं निस्संकोच कह सकता हूँ कि वे उन्हीं को प्रभावित करती हैं, उन्हीं को पसंद आती हैं, उन्हीं की स्मृति का अंग बनती हैं जो पहले से ही संवेदनशील होते हैं। संवेदनहीन व्यक्ति या तो कला एवं साहित्य में अभिरुचि ही नहीं रखते या उतनी ही रखते हैं जितनी क्षणिक मनोरंजन हेतु आवश्यक हो। संवेदनशील कृतियों का प्रभाव उन पर उतना ही रहता है जितना चिकने घड़े पर पानी ठहरता है। संवेदना से ओतप्रोत सृजन को देखने या सुनने या पढ़ने से यदि किसी का मन भर आता है, हृदय विगलित हो उठता है तथा उस संप्रेषित संवेदना को वह अपने भीतर अनुभव करता है (या करती है) तो इसका अर्थ यही है कि वह दर्शक या श्रोता या पाठक मूल रूप से ही एक संवेदनशील मनुष्य है। संवेदनशील व्यक्ति का मन ही किसी रचना की संवेदना को अनुभूत कर सकता है, इसके निमित्त उस व्यक्ति का स्वयं कोई कलाकार अथवा लेखक अथवा कवि होना आवश्यक नहीं।
मैंने अपना संवेदनशील स्वभाव अपने पिता से पाया जो किसी के भी दुख-दर्द से पिघल जाया करते थे एवं अपनी दुर्बल आर्थिक स्थिति के बावजूद जितनी सहायता जिस रूप में भी ऐसे किसी व्यक्ति की कर सकते थे, किया करते थे। लेकिन उनकी तो न साहित्य में रुचि थी, न संगीत में, न सिनेमा में और न ही अन्य ललित कलाओं में। और मैंने आयु के व्यतीत होने के साथ-साथ ऐसे कितने ही उच्च कोटि के कवि, श्रेष्ठ लेखक, मधुर गायक एवं अन्य विविध श्रेणियों के कलावंत देखे जिन्हें अपने निहित स्वार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी विषय में रुचि नहीं थी। उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में अपने प्रतिद्वंद्वी फूटी आँख नहीं सुहाते थे। और वे भौतिक सफलता प्राप्त करने हेतु अपने स्वाभिमान सहित किसी भी वस्तु एवं संबंध का परित्याग कर सकते थे। दूसरे की सफलता पर उनकी बधाई तथा दूसरे व्यक्ति की किसी भी बात हेतु उनकी प्रशंसा (स्पष्टतः) प्रदर्शन हेतु ही होती थी; मन से न वे बधाई देते थे, न प्रशंसा करते थे (वे आज भी वैसे ही हैं)। तो साहित्यकार अथवा कलावंत के रूप में जो संवेदनाएं उनमें अपेक्षित थीं, वे कहाँ गईं ? थीं भी या नहीं ?
महान कवि सुमित्रानंदन पंत जी की अमर पंक्तियां हैं - वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान; निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। पंत जी ने अपने समय के काव्य-सृजन की प्रवृत्ति के अनुरूप सत्यवदन ही किया था। हरिवंशराय बच्चन की अनेक भावुक कविताएं पहले उनकी प्रेयसी (जिसे आज की पीढ़ी soulmate कहती है) चम्पा एवं तदोपरान्त उनकी प्राणप्यारी अर्द्धांगिनी श्यामा के वियोग (अकाल मृत्यु) से ही उपजी थीं एवं यदि यह कहा जाए कि उन दोनों स्त्रियों के दुखांत ने ही उन्हें एक असाधारण कवि बनाया तो असत्य नहीं होगा। 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत' एवं 'आकुल अंतर' में संग्रहीत कविताएं उनकी सच्ची संवेदना की ही अभिव्यक्ति थीं। किन्तु आज अपवादों को छोड़कर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि (हिन्दी भाषा) के कवि-कवयित्रियां जो थोक के भाव में कविताएं रचते हैं, मंचों पर सम्मान पाते हैं एवं समय-समय पर अपने काव्य-संग्रह प्रकाशित करवाते हैं, उनकी रचनाएं संवेदनोद्भूत होती हैं।
स्वर्गीया डॉ. वर्षा सिंह ने अपने देहावसान से कुछ ही समय पूर्व प्रकाशित अपने एक लेख (कवि बनने का फ़ैशन बनाम पैशन) में इस तथ्य को रेखांकित किया है - काव्य-सृजन को लोग बहुत हलके ढंग से लेते हैं, शायद वे गंभीर होकर सृजन करना ही नहीं चाहते जबकि काव्य-सृजन एक गंभीर कार्य है; कोई भी सर्जक तब तक सृजन नहीं कर सकता है जब तक कि उसमें भावनाओं का विपुल उद्वेग न हो; जीवन की समस्त चेष्टाएं दो भागों में बंटी होती हैं - स्वहित और परहित जिनके बीच मनुष्यत्व की एक बारीक-सी रेखा होती है और जब यह रेखा मिट जाती है तो स्वहित और परहित एकाकार हो जाता है और यहीं मिलता है साहित्य का प्रस्थान बिन्दु जहाँ व्यक्ति की भावनाएं सकल संसार के हित में विचरण करने लगती हैं जिसमें धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, रंग के भेद मिट जाते हैं।
मैं वर्षा जी के उपर्युक्त उद्गारों से पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मेरा भी यही मानना है कि संवेदना निष्पक्ष होती है। संवेदनशील व्यक्ति वही है जो बिना किसी भी प्रकार के भेदभाव के पराये दर्द को अपना ले। संवेदनशीलता हृदय में होती है - कला अथवा प्रतिभा में नहीं। प्रतिभा से बहुत कुछ रचा जा सकता है किन्तु संवेदनशीलता से बिना कुछ रचे भी किसी के दुख-दर्द को बाँटा जा सकता है। अनुभूति कला पर निर्भर नहीं। और जैसा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'कविता क्या है' में प्रतिपादित किया था - जीवन की अनुभूति ही कविता है (यह तथ्य संवेदना से ओतप्रोत कथा पर भी लागू होता है)। लेकिन जब सृजन करने वाले ही निष्पक्ष न हों तथा उनकी अभिव्यक्तियां धर्म, जाति, वर्ग, लिंग, वर्ण, प्रांत अथवा उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से प्रभावित होती हों तो उनकी अनुभूति का भी शुद्ध होना संभव नहीं। क्या लाभ ऐसे सृजन का समाज के निमित्त, समष्टि के निमित्त, सृष्टि के निमित्त ? कोरी प्रतिभा (और अभ्यास) से बहुत कुछ रचा तो जा सकता है लेकिन जैसा कि एक शायर ने कहा है -
अस्तु संवेदनशील रचनाएं उन्हीं के लिए होती हैं जो उन्हें पढ़े (या सुने या देखे) बिना भी संवेदनशील होते हैं क्योंकि वे ही उनसे प्रभावित हो सकते हैं, संवेदना से शून्य व्यक्ति नहीं। वास्तविक अर्थों में संवेदनशील व्यक्ति वही होता (या होती) है जो न केवल अपनी संवेदनाओं के संदर्भ में निष्पक्ष हो वरन अपने शत्रुओं से भी घृणा न करे। इसीलिए सलीब पर चढ़ा दिये जाने वाले ईसा मसीह और प्रार्थना सभा में गोलियों से भून दिए जाने वाले महात्मा गांधी का सिद्धांत यही था - पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। संवेदनशील व्यक्ति न्याय का समर्थक होता है, प्रतिशोध का नहीं। वह स्वयं दुख सह सकता है, किसी को दुख दे नहीं सकता। इसीलिए ऐसे व्यक्ति का जीना सरल नहीं होता। बहुत सुना था मैंने कि दुनिया है दिलवालों की लेकिन सच्चाई यही है कि यह दुनिया दिमाग़ वालों की ही है जहाँ या तो कामयाबी को पूजा जाता है या फिर दिखावे और पाखंड को। यहाँ प्यार पर पहरे लगाए जाते हैं लेकिन नफ़रत करने की ख़ुली छूट दी जाती है। दिलवाले ही संवेदनशील होते हैं जो ताज़िन्दगी दूसरों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाते रहते हैं, किसी को ज़ख़्म देते नहीं; जो सारे जहाँ का दर्द अपने जिगर में रखते हैं चाहे उनका अपना हमदर्द कोई न हो। और जहाँ तक उनके अपने मुक़द्दर का सवाल है, उसे बयां करने के लिए एक शायर के ये अशआर ही काफ़ी हैं -