संसार का सबसे बड़ा एवं सबसे प्राचीन रहस्य (जब से मानव-प्रजाति अस्तित्व में आई है) है - स्त्रीपुरुष का पारस्परिक प्रेम। यह रहस्य सनातन है कि किसी को किसी से प्रेम क्यों होता है। मेरा मानना है कि इस मुक़म्मल कायनात में बिना वजह कोई बात नहीं होती। इसलिए किसी को किसी से प्यार होने के पीछे भी कोई वजह होनी ही चाहिए। मगर उस वजह को ढूंढा नहीं जा सकता। राज़-ए-मुहब्बत एक ऐसा राज़ है जिसका ख़ुलासा शायद रहती दुनिया तक न हो सके। किसी औरत को किसी मर्द से या किसी मर्द को किसी औरत से प्यार क्यों होता है, यह सवाल शायद हमेशा सवाल ही रहे - एक ऐसा सवाल जिसके जवाब तक किसी इंसान की पहुँच मुमकिन नहीं। चाहे इसे इश्क़ कहें या मुहब्बत या फिर कुछ और; प्यार एक ऐसी शय है जिसके मुताल्लिक जितना कहा जाए, कम ही लगता है। आज मुझे यह देखकर आश्चर्य हो रहा है कि मैंने अपने कितने ही लेखों में इस विषय को छुआ है, इस पर बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है, यथा 'प्रेम की जटिल गुत्थी', 'फ़लसफ़ा प्यार का', 'प्यार ही नहीं काम भी पूजा है', 'गोपिकाओं का निश्छल प्रेम', 'सेल्यूलॉइड पर लिखी दर्दभरी कविता', 'शर्तों पर प्रेम?', 'काग़ज़ की नाव', 'प्रमोद' आदि। फिर भी लगता है कि अभी और भी लिखा जा सकता है, बहुत कुछ और कहा जा सकता है। आज भी कहना है - एक हिन्दी फ़िल्म की समीक्षा करने के बहाने।
मुम्बई के बांद्रा (पश्चिम) उपनगर में एक स्थान है - जॉगर्स पार्क। यह एक रमणीक उपवन है जिसमें एक भ्रमण-पथ (जॉगिंग ट्रैक) भी है। यह न केवल एक पर्यटन स्थल है वरन यहाँ स्थानीय नागरिक भी प्रातः काल घूमने अथवा धीमे-धीमे दौड़ने (जॉगिंग करने) के निमित्त आते हैं। इसी स्थान को कथानक के प्रारम्भ का आधार बनाकर एवं इसी को शीर्षक के रूप में लेकर एक हिन्दी फ़िल्म बनाई गई थी - 'जॉगर्स पार्क' (२००३)। फ़िल्म के निर्माता सुभाष घई द्वारा लिखी गई इस कथा के दो प्रमुख पात्र जॉगर्स पार्क में ही एकदूसरे से परिचित होते हैं जिसके उपरांत आरम्भ होता है उनके मध्य एक आत्मीय संबंध जो कि कथानक का केन्द्र-बिन्दु है।
जॉगर्स पार्क में अकस्मात् एकदूसरे के सम्पर्क में आने वाले ये दो व्यक्ति हैं - पैंसठ वर्षीय सेवानिवृत्त न्यायाधीश ज्योतिन प्रसाद चटर्जी (विक्टर बनर्जी) जिनका भरापूरा परिवार है एवं बत्तीस वर्षीया कामकाजी अविवाहित युवती जेनी सूरतवाला (पेरिज़ाद ज़ोराबियन)। जज साहब को इस बात का अभिमान है कि उन्होंने जीवन भर सम्पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए न्याय का संरक्षण एवं पोषण किया तथा कभी अपने सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया। लेकिन एक हक़ीक़त यह भी है कि वे ज़िन्दगी भर कानून की किताबों एवं मुक़दमों से बाहर निकले ही नहीं। घरवालों ने शादी कर दी तो बीवी (आभा धुलिया) के साथ निबाह लिया, बेटे-बेटी हुए तो एक आम बाप की तरह उनकी परवरिश कर दी, बेटे की भी शादी कर दी और एक मासूम पोती के दादा बन गए। ज़िन्दगी में कुछ ऐसा हुआ ही नहीं जिसकी कोई कहानी बन सकती हो।
दूसरी ओर जेनी ने उनसे आधी उम्र की होने के बावजूद उनसे ज़्यादा दुनिया देख ली है, ज़माने भर की ठोकरें खा ली हैं और ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़त से वह उनसे कहीं बेहतर वाक़िफ़ है। उसने ज़िन्दगी को भी और ज़िन्दगी में टकराने वाले लोगों को भी इतने रंग बदलते हुए देखा है कि अब वह किसी पर भी ऐतबार नहीं कर पाती। उसने कई नौकरियां बदली हैं, रोज़ीरोटी की ख़ातिर कई काम किए हैं और हालफ़िलहाल वह एक होटल से जुड़ी रहकर ईवेंट मैनेजमेंट करती है। वह जज साहब के एक भाषण को सुनकर उनसे बहुत प्रभावित हुई है तथा जॉगर्स पार्क में उनसे परिचय होने पर उसे लगने लगता है कि वे उसके सच्चे मित्र सिद्ध हो सकते हैं - ऐसे मित्र जिन पर वह नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकती है।
और दोस्ती हो जाती है उनकी। जज साहब जेनी की एक सम्पत्ति से सम्बंधित कानूनी विवाद में सहायता करते हैं। मित्रता प्रगाढ़ होती जाती है। जेनी के माध्यम से जज साहब युवा पीढ़ी के उस संसार को देखते हैं जिससे वे अब तक अपरिचित थे। एक ग़ज़ल गाने वाला युवक (ख़ालिद सिद्दीक़ी) जेनी को चाहता है लेकिन जेनी ने उसके प्रेम को स्वीकार नहीं किया है। वह तो उम्र के फ़ासले के बावजूद जज साहब की ओर खिंची चली जा रही है। उसे लग रहा है कि उनके रूप में उसे एक ऐसा इंसान मिल गया है जो उसे समझता है। उधर जज साहब को महसूस होने लगता है कि जिस प्यार के मुद्दे पर वे कभी नई पीढ़ी का मज़ाक़ उड़ाया करते थे, वह प्यार ख़ुद उन्हें हो गया है - जेनी से। वे एक मनोचिकित्सक से परामर्श करते हैं कि ढलती आयु में इस प्रकार का प्रेम हो जाना क्या अस्वाभाविक नहीं तो उन्हें वह विशेषज्ञ यही बताता है कि इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं।
कहते हैं इश्क़ और मुश्क़ छुपाए नहीं छुपते। देरसवेर दुनिया को ख़बर लग ही जाती है। अब इस रिश्ते का क्या अंजाम हो सकता है ? कहते हैं; वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। लेकिन क्या छोड़ देने से ऐसे अफ़साने दफ़न हो जाते हैं ? नहीं होते। नहीं हो सकते। समंदर की लहरें रेत पर बनाए गए घरों को बहाकर ले जाती हैं लेकिन उनके निशानात नहीं मिटा पातीं। सब कुछ ख़त्म हो जाने के बाद भी वो लम्हे ज़िन्दा रहते हैं जो एक साथ जी लिए गए हैं। यादें बाक़ी रह जाती हैं जिनके दरिया में प्यार करने वाले और प्यार पाने वाले ताज़िन्दगी डूबते-उतराते हैं। यादों के खंडहर हमेशा मौजूद रहते हैं जिनमें मन बरबस ही घूमने लगता है। यादों से बचकर कोई कहाँ जा सकता है ? अगर ज़िन्दगी से यादों को निकाल दिया जाए तो उसमें रहेगा ही क्या ?
बहरहाल जज साहब के अहसानमंद एक पत्रकार (मनोज जोशी) के कारण जज साहब और जेनी का रिश्ता स्कैंडल की सूरत में तो लोगों के सामने नहीं आ पाता मगर उनकी बेटी (दिव्या दत्ता) पर यह भेद खुल जाता है। अब बेटी अपने बाप से साफ़ कहती है कि वे चाहें तो अपने इस रिश्ते को क़ायम रखें; जब इतनी ज़िन्दगी उनकी वजह से सर उठाकर जी है तो बाक़ी की ज़िन्दगी उनकी ख़्वाहिशों की ख़ातिर सर झुकाकर भी जी ली जाएगी। लेकिन क्या जज साहब ऐसा कर सकते हैं ? वे अपने बेटे को उसके एक अफ़ेयर के लिए बुरी तरह फटकार कर साफ़ कह चुके हैं कि परिवार की इज़्ज़त सबसे ऊपर होती है। अब जब वे जान गए हैं कि पचास साल में कमाई गई इज़्ज़त पचास सैकंड में धूल में मिल सकती है तो क्या वे मुहब्बत की इस बाज़ी को खेलने और इस इज़्ज़त को दांव पर लगाने के लिए तैयार हैं ?
नतीजा वही निकलता है जो दुनियादारी के हिसाब से निकलना लाज़िमी होता है। जज साहब को जेनी से बिछुड़ना पड़ता है। और यही ठीक भी है क्योंकि लड़की चाहे ख़ुदमुख़्तार हो और प्यार किसी से भी कर ले, उसे शादी और अपना परिवार तो हर हाल में चाहिए। प्रेम अनमोल होता है पर समाज में जीने वाली नारी को सामाजिक सुरक्षा व सम्मान भी चाहिए, मातृत्व का सुख भी चाहिए। यह हर औरत का जायज़ हक़ है और जो उसे यह न दे सके, उसे उसकी ज़िन्दगी से निकल ही जाना चाहिए।
कुछ साल बाद ! अचानक एक हवाई अड्डे पर जज साहब जेनी के रूबरू हो जाते हैं। लेकिन वह अकेली नहीं है। साथ में उसका पति है। उसका नन्हा बालक है। चंद पलों की यह मुलाक़ात बता देती है कि जेनी मोड़ काटकर ज़िन्दगी की राह में आगे बढ़ गई है। पर क्या जज साहब भी बढ़ पाए हैं ? या फिर प्यार का काँटा आज भी उनके दिल में धंसा है ?
भावनाओं का सागर है यह फ़िल्म जो भावुक व्यक्तियों के लिए ही बनी है पर जिसे वे भी पसंद करेंगे जो भावुक कम हैं, व्यावहारिक अधिक। आदम और हव्वा के ज़माने से ही हम जानते हैं कि विपरीत लिंगी के आकर्षण के मामले में औरत का दिल किसी और तरीक़े से काम करता है, मर्द का किसी और तरीक़े से। मैं तो पुरुष हूँ, स्त्री के मन की थाह लेना मेरे वश की बात नहीं। पर हाँ, पुरुष को स्त्री से क्या चाहिए; इसे मैं 'होठों से छू लो तुम' गीत के ही इस अंतरे के माध्यम से स्पष्ट कर सकता हूँ:
बहुत गहन विषय पर चिन्तन एक फ़िल्म की समीक्षा के साथ । समीक्षा जितनी खूबसूरत फ़िल्म भी होगी यह अनुमान लगा सकती हूँ । आपके समीक्षात्मक लेख सदैव प्रभावित करते हैं ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद माननीया मीना जी। फ़िल्म देखेंगी तो आपको भी अच्छी लगेगी।
हटाएंजितेंद्र भाई, यह सच है कि प्यार किया नही जाता हो जाता है। लेकिन शादीशुदा व्यक्तियों का अन्यत्र प्रेम स्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे सामाजिक व्यवस्था बूरी तरह प्रभावित होती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा।
जी ज्योति जी। मैंने यह बात इस लेख में कही भी है। शुक्रिया आपका।
हटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा की है आपने एक बेहतरीन विषय को लेकर।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आदरणीय पाण्डेय जी।
हटाएंकहते हैं; वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक हाँ ये भी सच है कि ऐसे अफ़साने पूर्णतया दफन नहीं होते , पर उन्हीं के मन में चलते रहते है सामाजिक व्यवस्था में तो आड़े नहीं आते न ।
आपकी समीक्षा इतनी बेहतरीन है कि पढने के बाद फिल्म देखे बिना रहा ही नहीं जायेगा ।
दिली शुक्रिया सुधा जी। फ़िल्म ज़रूर देखिए। बहुत अच्छी लगेगी आपको।
हटाएंहमेशा की तरह शानदार, लाजवाब और प्रभावशाली। पहली पंक्ति से लेकर आखिरी पंक्ति पढ़ लेने के बाद पलक झपकी है। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत आभार आदरणीय वीरेन्द्र जी।
हटाएंसार्थक समीक्षा की है सर! आपकी समीक्षा से फिल्म को देखने की उत्सुकता भी हुई है।
जवाब देंहटाएंज़रूर देखिए यशवंत जी। आपको निराशा नहीं होगी। हृदय से आभार आपका।
हटाएंबेहतरीन लिखा है आपने
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आदरणीय सतीश जी
हटाएंthis is a film review with a difference - truly! superbly written
जवाब देंहटाएंthe title itself is so deep and that song evergreen.
Heartfelt thanks Sujatha Ji
हटाएंकितनी रोचक और प्रशंसनीय समीक्षा लिखी है आपने।
जवाब देंहटाएंलगा। फिल्म के परिदृष्य का परिचय कराती सुंदर सराहनीय समीक्षा, हमेशा की तरह । बधाई आपको ।
देर से आने के लिए क्षमा ।
कोई बात नहीं जिज्ञासा जी। आपका आगमन सदैव ही मेरे लिए प्रसन्नता लाता है। हृदय से आभार आपका।
हटाएंयह मूवी देखने के लिए आपने उत्प्रेरित किया है, प्यार की गहनता व 'जॉगर्स पार्क' की सुन्दर व प्रभावी समीक्षा कर के। इतनी पुरानी मूवी फिलहाल किसी थिएटर में तो यकायक आने से रही, तो बराए मेहरबानी यह भी बतादें कि नेट पर यह आसानी से कहाँ उपलब्ध हो सकेगी। बहरहाल इस लाजवाबआलेख/समीक्षा के लिए हार्दिक साधुवाद!
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत आभार आदरणीय गजेन्द्र जी। यह ज़ी5 तथा यूट्यूब पर उपलब्ध है।
हटाएंबहुत शुक्रिया!
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