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बुधवार, 24 मार्च 2021

फ़िल्म-निर्माण में सशक्त पटकथा एवम् कुशल निर्देशन का महत्व

मुझे साहित्य एवम् संगीत के अतिरिक्त सबसे अधिक रुचि यदि किसी वस्तु में है तो वह है भारतीय (या यूँ कहिए कि हिंदी) फ़िल्में । स्वांग, तमाशे और नौटंकी के दौर के अवसान के साथ-साथ लोकभाषा में बाइस्कोप के नाम से पदार्प करने वाली चलती-फिरती तस्वीरें यानी फ़िल्में ही भारतीय जनमानस के लिए मनोरंजन का सबसे सस्ता और कालांतर में सबसे लोकप्रिय साधन सिद्ध हुईं । मनोरंजन की दुनिया में इस माध्यम की यह हैसियत आज भी कायम है । पहले फ़िल्में मूक होती थीं । जब उनमें कलाकारों की वाणी तथा अन्य ध्वनियों का समावेश सम्भव हुआ तो इन्हें बोलती तस्वीरें अथवा टॉकी कहा गया तथा फ़िल्मों का निर्माण करने वाली कई संस्थाएं अपने नाम में टॉकीज़ शब्द लगाने लगीं । फ़िल्मों का प्रदर्शन करने वाले सिनेमाघरों में भी अपने नाम में टॉकीज़ शब्द को जोड़ने का चलन आरम्भ हो गया (अनेक सिनेमाघर तो आज भी अपने आपको टॉकीज़ ही कहते हैं) । बहरहाल टॉकी का ज़माना एक बार आया तो हमेशा के लिए आ गया और मनोरंजन की दुनिया में छा गया   

फ़िल्म-निर्माण की तकनीक और दर्शन-श्रवण सम्बन्धी गुणवत्ता निरंतर अद्यतन होती रही । श्वेत-श्याम फ़िल्मों का युग लम्बा चला लेकिन अंततः रंगीन फ़िल्मों का युग आना ही था, सो आया । संगीत, नृत्य तथा एक्शन संबंधी पक्षों में तो समय के साथ-साथ परिष्करण होता ही रहा लेकिन जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया, वह आया फ़िल्मों के पटकथा-लेखन एवम् प्रस्तुतीकरण में । जैसे-जैसे भारतीय फ़िल्मों में नाटकीयता का स्थान स्वाभाविकता लेती गईं, वैसे-वैसे लगा कि हमारी फ़िल्में अब वयस्क हो रही हैं । 

मैंने अपने विस्तृत लेख – सिनेमा - मनोरंजन का साधन, एक बहुत बड़ा उद्योगमें फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया का आद्योपांत वर्णन किया है । इसमें मैंने कहा है कि फ़िल्म की कहानी एक पंक्ति का विचार भी हो सकता है और कोई पुस्तक (उपन्यास या कथा) भी लेकिन फ़िल्म बनाने के लिए विचार का विस्तार अथवा पुस्तक की सामग्री का उचित अनुकूलन (एडेप्टेशन) करना आवश्यक होता है । इसका कारण यह है कि फ़िल्म उचित क्रम में लगाए गए दृश्यों का संकलन होती है और उसकी एक उचित लम्बाई होती है । अब पहले की भांति लंबी फ़िल्में तो कम ही बनती हैं लेकिन दो घंटे लंबी फ़िल्म तो सामान्यतः अपेक्षित होती ही है और इतनी लंबी फ़िल्म बनाने के लिए विभिन्न प्रकार के रोचक दृश्यों से युक्त पटकथा तो होनी ही चाहिए । इसे पटकथा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यही वह कथा है जिसे दर्शक फ़िल्म के आरम्भ से उसके समापन तक चित्रपट पर देखता है । दो-तीन दशक पूर्व तक फ़िल्म को अपेक्षित समयावधि तक खींचने के लिए पटकथा में मूल कथा के समानांतर एक हास्य का ट्रैक डाला जाता था जिसका प्रयोजन फ़िल्म को अपेक्षित लंबाई तक बढ़ाने के साथ-साथ दर्शकों को हंसाना और फ़िल्म के गंभीर प्रवाह में उन्हें कुछ राहत प्रदान करना होता था । इस तरह यह ट्रैक फ़िल्म की गंभीरता के मध्य एक ब्रेक की भांति कार्य करता था । कभी-कभी ऐसा ट्रैक और उससे जुड़े हुए विशेषज्ञ हास्य कलाकार मूल कथा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थी लेकिन प्रायः यह मूल कथा के लिए अनावश्यक ही हुआ करता था । अब ज़माना बदल चुका है और ऐसे हास्य के ट्रैक भारतीय फ़िल्मों से ग़ायब हो चुके हैं । इसलिए फ़िल्म की पटकथा का सशक्त, प्रभावी एवम् दर्शक को बांधे रखने में समर्थ होना अब और भी अधिक आवश्यक है । 

फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है । निर्देशक ही यह परिकल्पना करता है कि फ़िल्म रूपहले परदे पर किस प्रकार मूर्त रूप लेगी अर्थात् वास्तविकता में बनने से पहले फ़िल्म निर्देशक के मस्तिष्क में बनती है । निर्देशक फ़िल्म से संबंधित सभी पक्षों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष हस्तक्षेप करता है क्योंकि फ़िल्म की सफलता अथवा असफलता के उत्तरदायित्व में सबसे अधिक भागीदारी भी उसी की होती है – फ़िल्म में काम करने वाले अत्यंत लोकप्रिय सितारों से भी अधिक । साफ़ शब्दों में कहा जाए तो जय-जय भी उसी की है और हाय-हाय भी उसी की । उसका दायित्व अधिक है, इसीलिए उसके अधिकार भी अधिक हैं । फ़िल्म-निर्माण में निर्देशक का महत्व इसी तथ्य से सिद्ध हो जाता है कि फ़िल्म की नामावली में उसका नाम सबसे अंत में दिया जाता है जो इस सत्य का प्रतीक है कि फ़िल्म-निर्मा की प्रक्रिया के प्रत्येक अंग में अंतिम निर्णय उसी का है (होना चाहिए) 

लेकिन कुशल से कुशल निर्देशक भी बिना एक अच्छी पटकथा के प्रभावी फ़िल्म नहीं बना सकता । फ़िल्म की विषय-वस्तु (थीम) कोई भी विधा हो सकती है यथा स्त्री-पुरुष का प्रेम, सामाजिक एवम् पारिवारिक संबंधों के उतार-चढ़ाव, कोई हास्य-कथा, कोई सामाजिक समस्या, देशप्रेम, कोई धार्मिक आख्यान, कोई ऐतिहासिक घटना, अपराध एवम् पुलिस, यात्रा, प्रतिशोध, किसी हत्या अथवा अन्य घटना का रहस्य, राजनीति आदि लेकिन एक सुस्पष्ट दृष्टि के साथ सिरजी गई सशक्त एवम् रोचक पटकथा ही विषय-वस्तु को प्रभावी ढंग से परदे पर उतार सकती है । ऐसी अनेक फ़िल्में हैं जिनकी थीम अत्यंत प्रशंसनीय होने के उपरांत भी सशक्त पटकथा के अभाव के कारण वे सतही एवम् साधारण बनकर रह गईं जबकि ऐसी भी फ़िल्में हैं जिनकी थीम बार-बार दोहराई गई एवम् जानी-पहचानी होने पर भी अपनी सशक्त तथा रोचक पटकथा के कारण दर्शक-वर्ग को (एवम् समीक्षक वर्ग को भी) प्रभावित करने में सफल रहीं । पटकथा ऐसी होनी चाहिए जो देखने वाले की रुचि को दृश्य-दर-दृश्य बनाए रखे । उसमें कसावट होनी चाहिए अर्थात् अनावश्यक दृश्यों (एवम् नृत्यों तथा गीतों) से उसे बचाए रखना चाहिए । फ़िल्म  इस कदर ढीली और बोझिल न बन जाए कि सिनेमाघर में बैठे दर्शक को बार-बार अपनी घड़ी में वक़्त देखना पड़े  जो कुछ दिखाया जाए, वह स्वाभाविक एवम् वास्तविक भले ही न हो, उसके प्रस्तुतीकरण में स्वाभाविकता का कुछ पुट अवश्य होना चाहिए ताकि दर्शक स्वयं को परदे पर चल रही कहानी तथा पात्रों से मानसिक रूप से जोड़ सके (कनेक्ट कर सके) । पटकथा के अनुरूप ही प्रभावशाली संवाद भी होने चाहिए जो कि पात्रों के अभिनय में मूल्यवर्धन (वैल्यू-एडिशन) करें तथा दर्शकों (जो कि श्रोता भी होते हैं) के मनोमस्तिष्क पर छाप छोड़ जाएं । 

पटकथा-लेखन के उपरांत निर्देशक का कार्य आरम्भ होता है जो कि न केवल कला-निर्देशक (आर्ट-डायरेक्टर) से दृश्यों की आवश्यकता के अनुरूप साज-सज्जा करवाता है बल्कि सम्पूर्ण कथानक अथवा  दृश्यों की पृष्ठभूमि की आवश्यकतानुसार बाहरी स्थलों (आउटडोर लोकेशन) का भी समुचित चयन करता है । वही फ़िल्म के छायाकार (कैमरामैन) को फ़िल्मांकन के लिए उचित कोण सुझाता है तथा उसे बताता है कि कितने लॉंग शॉट लेने हैं और कितने क्लोज़-अप । पात्र के अनुरूप ही उचित कलाकार के चयन में भी वह भूमिका निभा सकता है यदि निर्माता इस संदर्भ में उसकी बात सुने । आजकल विशेषज्ञ कास्टिंग डायरेक्टर भी होने लगे हैं जो कि विभिन्न पात्रों के स्वरूप को भलीभांति समझकर उसमें पूरी तरह ठीक बैठ सकने वाले नये-पुराने कलाकारों को ढूंढने का तथा उन्हें फ़िल्म में संबंधित भूमिका करने हेतु मनाकर लाने का कार्य करते हैं । कलाकारों से कथा एवम् दृश्यों की आवश्यकता के अनुसार स्वाभाविक अभिनय करवाना तथा उनकी प्रतिभा का सर्वोत्तम दोहन करना भी निर्देशक का ही कार्य होता है । अच्छा निर्देशक वह होता है जिसके मानस-पटल पर फ़िल्म के भावी अंतिम रूप की कल्पना (विज़न) पूर्णरूपेण स्पष्ट हो । उसे ठीक-ठीक मालूम हो कि वह क्या बना रहा है और फ़िल्म के नाम पर दर्शकों को क्या परोसने जा रहा है । ऐसा अनेक बार हो चुका है जब अच्छी-भली फ़िल्मों की गुणवत्ता उनके निर्देशकों के भ्रम के कारण ही घट गई । निर्देशक फ़िल्म-रूपी वाहन के लिए चालक की भांति होता है । यदि चालक ही गंतव्य अथवा उस तक पहुँचाने वाले मार्ग के संदर्भ में भ्रमित हो तो वाहन अपने अभीष्ट तक कैसे पहुँचे ? जब निर्देशक अपना कार्य भलीभांति करता है तो फ़िल्म के संपादक का कार्य स्वतः ही सरल हो जाता है । इसके विपरीत निर्देशक का भ्रम और फिल्मांकन की गड़बड़ियां बेचारे संपादक के लिए सरदर्द पैदा कर देती हैं क्योंकि फ़िल्माई गई सामग्री को कथानक के अनुक्रम में सही-सही बैठाकर फ़िल्म को अंतिम रूप उसी को देना होता है । 

अत्यंत सम्मानित फ़िल्मकार स्वर्गीय यश चोपड़ा जोशीला’ (१९७३) तथा परम्परा’ (१९९३) को अपने द्वारा निर्देशित बुरी फ़िल्में मानते थी लेकिन मेरी नज़र में उनके द्वारा निर्देशित सबसे ख़राब फ़िल्म उन्हीं के बैनर तले बनी विजय’ (१९८८) थी क्योंकि वे उस फ़िल्म के दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत होने वाले रूप की ठीक से कल्पना नहीं कर पाए थे (ठीक से विज़ुअलाइज़ नहीं कर सके थे) । इसीलिए फ़िल्म की कथा ऊबड़-खाबड़ ढंग से परदे पर आई और चोटी के कलाकारों के होने के बावजूद जनता को प्रभावित नहीं कर सकी । उन्हीं के जैसे निष्णात निर्देशक राज खोसला ने भी प्रेम कहानी’ (१९७५) जैसी बनावटी पात्रों वाली और अपनी कहानी के परिवेश के साथ बिल्कुल भी न्याय न करने वाली असफल फ़िल्म बनाई थी । हाल ही में मैंने कशमकश’ (१९७३) नामक एक पुरानी फ़िल्म इंटरनेट पर देखी जो हत्या के रहस्य की एक अत्यंत रोचक सस्पेंस कथा होने पर भी बुरे निर्देशन की वजह से बेअसर हो गई । 

कभी-कभी जब फ़िल्म का निर्माता कोई और हो और निर्देशक कोई और तो निर्देशक के काम में निर्माता का अनावश्यक हस्तक्षेप भी अच्छी-भली फ़िल्म का सत्यानाश कर देता है । मधुर भंडारकर जैसे कुशल निर्देशक द्वारा दिग्दर्शित आन – मेन एट वर्क’ (२००४) सम्भवतः निर्माता फ़िरोज़ नडियाडवाला के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण ही एक साधारण पुलिस बनाम अपराधी फ़िल्म बनकर रह गई थी । 

कभी-कभी कोई फ़िल्मकार अच्छा लेखक होता है लेकिन अच्छा निर्देशक नहीं । स्वर्गीय ख़्वाजा अहमद अब्बास के साथ यही बात थी वे एक महान साहित्यकार थे और इसीलिए उन्होंने अपनी ही रचित कहानियों पर फ़िल्में बनाईं और उन फ़िल्मों में कथाओं की आत्मा को ज्यों-का-त्यों रखा । लेकिन वे कुशल निर्देशक नहीं थे, इसीलिए उनकी बनाई फ़िल्मों में मनोरंजन के उस तत्व का अभाव होता था जो किसी भी फ़िल्म को दर्शकों के लिए स्वीकार्य बनाता है । मैंने उनकी बनाई हुई फ़िल्म 'बंबई रात की बाहों में' (१९६८) देखी जिसके लेखक-निर्माता-निर्देशक सब अब्बास साहब ही थे । कहानी अत्यंत प्रेरणास्पद थी लेकिन फ़िल्म ऊबाऊ और प्रभावहीन बनकर रह गई  

मैं कोई फ़िल्मकार नहीं यद्यपि बरसों पहले स्वर्गीय गुलशन नंदा द्वारा लिखित उपन्यास शगुनपढ़ने के बाद यूँ ही (ख़याली पुलाव पकाते हुए) मैंने उस पर फ़िल्म बनाने की रूपरेखा बनाई थी और विभिन्न पात्रों के लिए उचित कलाकारों के नाम भी तय किए थे । अब भी मुझे लगता है कि वकील बाबू’ (१९८२) और रक्त’ (२००४) जैसी फ़िल्में अगर मैंने निर्देशित की होतीं तो वे बेहतर बनी होतीं क्योंकि मेरी नज़र में वे अच्छी कहानियों के बावजूद निर्देशन की कमियों की वजह से ही अपना असर खो बैठीं और टिकट खिड़की पर औंधे मुँह गिरीं जबकि उनके निर्देशक भी असित सेन और महेश मांजरेकर जैसे अनुभवी और सम्मानित फ़िल्मकार थे । 

बहरहाल मैं यही कहना चाहता हूँ कि फ़िल्म की थीम के साथ न्याय करने का काम पटकथा (स्क्रीनप्ले) लिखने वाले का है और उस पटकथा के साथ न्याय करने का काम निर्देशक का । जब ये दोनों काम एक ही व्यक्ति (या व्यक्तियों) द्वारा किए जाएं तो अलग बात है अन्यथा दोनों की दृष्टि (विज़न), फ़िल्म संबंधी परिकल्पना तथा सोच में समन्वय होना चाहिए । तभी फ़िल्म के रोचक एवम् प्रभावी बन पाने की सम्भावना रहेगी । यदि दोनों ही अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग बजाएंगे तो फ़िल्म चूं-चूं का मुरब्बा ही बनेगी । प्रत्येक व्यक्ति स्वर्गीय किशोर कुमार जैसी बहुमुखी प्रतिभा का धनी नहीं होता कि बहुत-से काम अकेला ही कर ले । इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण काम करने वालों में समन्वय की महती आवश्यकता होती है । और सौ बातों की एक बात यह कि लेखक तथा निर्देशक दोनों को ही दर्शक-समुदाय की नब्ज़ पहचानना आना चाहिए ताकि वे फ़िल्म देखने वालों के दिलों को छू लेने वाली बातें फ़िल्म में डाल सकें । कालजयी कृति वही होती है जो दिलों को छू जाए, देखने-सुनने वालों को भुलाए न भूले ।   

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17 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (24 अप्रैल, 2019) पर ब्लॉगर मित्र की प्रतिक्रिया :

    Rekha'sApril 29, 2019 at 9:51 PM
    आप हिंदी और अंग्रेजी दोनों में बहुत अच्छा लिखते है। उम्दा लेख।

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    जितेन्द्र माथुरApril 30, 2019 at 9:05 AM
    बहुत-बहुत आभार रेखा जी |

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  2. जितेंद्र जी,मुझे भी बचपन से ही फिल्मो से बड़ा लगाव रहा है,मेरे घर में सभी मुझे "फिलिमची"बुलाते हैं ,फिल्मो से मेरा लगावा शायद विरासत में मुझसे मेरी बेटी को मिल गई। वो बचपन से ही ठान रखी थी कि-मुझे बनना है तो सिर्फ एक्ट्रेस और आज वो मुंबई में अपनी किस्मत आजमा रही है। आप फिल्मो की ही नहीं फिल्मजगत की भी बहुत अच्छी समीक्षा करते हैं। आपने सही कहा सही पटकथा ना होने की वजह से कई बार बेहतर कहानियां भी दम तोड़ देती है। सादर नमन आपको

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    1. आपकी पुत्री को हार्दिक शुभकामनाएं आदरणीया कामिनी जी । और हार्दिक आभार आपका ।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2078...पीपल की कोमल कोंपलें बजतीं हैं डमरू-सीं पुरवाई में... ) पर गुरुवार 25 मार्च 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. आदरणीय माथुर जी,
    बहुत अच्छा लेख
    सिने जगत की बारीकियों को शानदार ढंग से व्याख्यायित किया है आपने...

    साधुवाद 🙏


    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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  5. बहुत सही विश्लेषण है आपका। एक शानदार पोस्ट के लिए आपको बधाई।

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  6. बहुत ही हकीकत भरा विश्लेषण किया है आपने,क्या बात है? सादर नमन

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  7. बहुत बढिया लिखा आपने जितेंद्र जी। अक्सर हम और हमसे पहले वाली पीढ़ियों में बच्चों का भविष्य और उनके रोजगार तय किया करते थे। आज की पीढी बहुत मुखर है और अपने जुनून के लिए जुनून पर उतर कर अपनी मंजिल पा लेती है पर तीन चार दशक पहले के लोग----
    जाना था चीन पहुँच गए जापान ---- थे। आपमें फिल्म निर्माण की इतनी रुचि होते हुए भी, आप फिल्म क्षेत्र में काम ना कर पाए, ये बहुत खेद की बात है। खैर बहुत अच्छा चिंतन किया है आपने। फिल्म निर्माण के तमाम पहलुओं पर लिखने के लिए बहुत बहुत आभार और शुभकामनाएं🙏🙏

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    1. आपकी बातें बिल्कुल सही हैं रेणु जी । तब और अब में बहुत फ़र्क़ आ गया है । हृदय से आभार आपका ।

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