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गुरुवार, 25 मार्च 2021

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे

सन २०१३ में प्रदर्शित 'काय पो छे' फ़िल्म देखने के उपरांत मैं सुशांत सिंह राजपूत का प्रशंसक बन गया था । तीन मित्रों की कथा पर बनी उस फ़िल्म में सबसे अधिक प्रभावशाली भूमिका भी उन्हें ही मिली थी । फ़िल्म के अंत में तो वे दर्शकों के मन को तल तक छू गए थे । २०१५ में 'डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी' देखने के बाद मेरा यह यकीन पुख़्ता हो गया कि वे बेजोड़ कलाकार थे । इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में बड़े परदे पर अपने करियर का आग़ाज़ करने वाले अदाकारों में उनकी पहचान एकदम जुदा थी - जवां दिलों पर राज करने वाली (छोटे परदे पर तो वे अपनी पहचान पहले ही बना चुके थे) । आने वाले सालों में उन्होंने और भी तरक़्क़ी की, तारीफ़ें पाईं, अपनी मक़बूलियत में इज़ाफ़ा किया । शोबिज़ की दुनिया में कामयाबी को अपने कदम चूमने पर मजबूर करने वाले सुशांत के चाहने वालों की तादाद दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थी कि ... कि अचानक वे मौत को गले लगा बैठे । क्यों

आख़िर क्यों केवल चौंतीस साल की उम्र में वे ज़िन्दगी से बेज़ार हो उठे ? ऐसा क्या हो गया ? यह सवाल केवल सुशांत के लिए ही नहीं, हर उस शख़्स के लिए पूछा जा सकता है जिसने ज़ाहिरा तौर पर कामयाब और ख़ुशी से लबरेज़ नज़र आने के बावजूद आख़िरकार मौत की गोद में ही सुकून महसूस किया । पूरी तरह सही जवाब किसी के लिए नहीं मिल सकता - न महान फ़िल्मकार गुरु दत्त के लिए, न नौजवानी से भरपूर जिया ख़ान के लिए, न किसी और ऐसे युवक या युवती के लिए । गुज़िश्ता कुछ वक़्त में ख़ुदकुशी करने वाले सलेब्रिटीज़ की मानो कतार-सी लग गई है । पर जिस किसी ने भी अपनी जान दी, उसने ऐसा क्यों किया, यह तो सही-सही वही जानता था (या जानती थी) । दूसरे लोग तो सिर्फ़ अंदाज़े ही लगा सकते हैं । हक़ीक़त पर से मुक़म्मल तौर पर परदा उठाना शायद किसी के बस की बात नहीं ।

अचानक ख़ुदकुशी कर लेने वालों के अलावा अपनी मरज़ी से मरने का हक़ भी लोगों द्वारा (कानून से) मांगा गया है जिसे इच्छा-मृत्यु (यूथेनेसिया) का अधिकार भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त मृत्युदान अथवा मर्सी किलिंग की बात भी समय-समय पर उठाई गई है जिसमें यह तर्क दिया जाता है कि यदि संबंधित व्यक्ति सम्मान के साथ जी न सके तो उसे अपने जीवन का अंत स्वयं कर लेने दिया जाए अथवा चिकित्सक उसके लिए यह कार्य कर दें । इस विषय पर बॉलीवुड में दो फ़िल्में बनीं हैं (मैने दोनों ही की समीक्षा की है) : १. शायद (१९७९), २. गुज़ारिश (२०१०)   'शायद' में मृत्युदान के विषय पर एक चिकित्सक के दृष्टिकोण से विमर्श किया गया था जबकि 'गुज़ारिश' में संबंधित व्यक्ति के देश के विधि-विधान से इच्छा-मृत्यु का अधिकार मांगने की कथा थी । मरने की ख़्वाहिश कोई अच्छी बात तो नहीं जिसे काबिल-ए-एहतराम समझा जाए लेकिन अगर किसी इंसान की ज़िन्दगी उसके लिए मौत से भी बदतर हो जाए, तब ? ज़िंदगी तो वही है जो जीने लायक़ हो । इंसान इज़्ज़त और ग़ैरत के साथ जी न सके तो उसे मौत में पनाह कैसे न नज़र आए


किसी इंसान को मार डालना ग़लत है तो किसी को ज़बरदस्ती जीने पर मजबूर करना भी ग़लत ही है  (अरुणा शानबाग का जीवन एक ऐसा ही उदाहरण रहा है जिन्हें उनकी देखभाल करने वालों के दबाव में बयालीस लंबे वर्षों तक ऐसी अवस्था में रखा गया जो केवल तकनीकी रूप से ही जीवित अवस्था कही जा सकती है, व्यावहारिक दृष्टि से एक मृतक के समान ही होती है)। लेकिन फिर इस बात को भी निगाह में रखना चाहिए कि ऐसा हर मामला अपने आप में अलग (यूनिक़) होता है । इंसानों के दुख-दर्द से जुड़े मामलों को चावल के दानों की तरह एक जैसा मानकर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि ज़िंदगी सभी को अलग-अलग ट्रीटमेंट देती है । अपना ग़म सभी को सबसे बड़ा लगता है जबकि दूसरों के ग़म हलके लगते हैं पर यह सच्चाई तो नहीं । ग़मों से न हारने वाले और उनसे जूझने का जज़्बा अपने अंदर रखने वाले का फ़लसफ़ा तो यह होता है - दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है । एक सच यह भी है कि मरने की बात करना जितना आसान है, उतना वास्तव में मर जाना नहीं । ज़्यादातर इंसान मौत से डरते हैं । ऐसे में मरने वाला / वाली किस असाधारण मानसिक अवस्था से गुज़र रहा था /  रही थी, इसे बूझने के लिए भी एक संवेदनशील हृदय चाहिए ।

और ऐसा संवेदनशील हृदय निश्चय ही उनके पास नहीं होता जो किसी की मौत को एक तमाशा बना देते हैं और बलि का ऐसा बकरा ढूंढ़ते हैं जिसके मत्थे उस मौत की ज़िम्मेदारी का मटका फोड़ा जा सके । विगत कुछ वर्षों से 'मीडिया ट्रायल' नामक एक शब्द-युग्म बहुप्रचलित हो गया है जिसका अभिप्राय है किसी आरोपी (अथवा संभावित आरोपी) के कथित अपराध का निर्णय न्यायालय में होने की प्रतीक्षा किए बिना संचार-माध्यमों विशेषतः टी.वी. चैनलों द्वारा अपने स्तर पर आधे-अधूरे तथ्यों एवं असंबद्ध लोगों द्वारा किए गए सतही विमर्श के आधार पर कर दिया जाना । ऐसे मीडिया-ट्रायल का परिणाम यह होता है कि आरोपी चाहे निर्दोष ही क्यों न हो (तथा कालांतर में न्यायालय द्वारा दोषमुक्त कर दिया जाए), जनसाधारण में उसकी छवि मलिन हो जाती है जिसके दुष्परिणाम उसे जीवन-भर भोगने पड़ते हैं । मीडिया-ट्रायल करने वाले अपने तुच्छ व्यावसायिक-स्वार्थ के निमित्त किसी मासूम का करियर एवं पारिवारिक जीवन नष्ट कर देते हैं और उनके इस दुष्कृत्य पर उंगली तक नहीं उठती ।

अब सुशांत के मामले में भी वैसा ही एक तमाशा शुरु हो गया है (जो दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है) जैसा कि निर्भया कांड के मामले में हुआ था । जिस तरह से निर्भया के मामले में उसके माता-पिता की भूमिका ऐसी लगती थी कि वे अपनी पुत्री की त्रासदी से दुखी कम और मीडिया पर सलेब्रिटी जैसी हैसियत पाकर प्रफुल्लित अधिक थे, वैसा ही सुशांत के परिजनों के मामले में भी लग रहा है । एक प्रतिभाशाली युवा संसार से चला गया, एक बिन मां का बेटा और परिवार का इकलौता पुत्र सबको छोड़कर चला गया, एक संभावनाओं से भरपूर कलाकार असमय ही दुनिया को अलविदा कह बैठा; यह गहन दुख की बात है, मीडिया पर तमाशा करने की नहीं । जिस रिया चक्रवर्ती के पीछे सुशांत के घरवाले (और राजनीतिक सत्ता से जुड़े अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत सरकारी अभिकरण) हाथ धोकर पड़े हुए हैं; क्या वह किसी की बेटी नहीं, किसी की बहन नहीं, भारतभूमि पर जन्मी एक प्रतिभाशाली युवा कन्या नहीं ? क्या उसके कोई मानवीय अधिकार नहीं, क्या उसे बिना न्यायिक प्रक्रिया के केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर खलनायिका बना दिया जाना संवेदनहीनता की अति नहीं ? जब अधिकांश लोग सुशांत की मृत्यु से लगी आग पर केवल अपनी-अपनी रोटियां सेकने की जुगत में लगे हों तो इन गंभीर प्रश्नों की सुध कौन ले

सुशांत की असाधारण लोकप्रियता के कारण उनका मामला हाई-प्रोफ़ाइल बन गया है अन्यथा विगत एक वर्ष में आत्मघात करने वाले कलाकारों की संख्या कम-से-कम दो अंकों में जाती है । लेकिन उनमें से किसी के दुखद आत्मघात पर कोई चर्चा नहीं हो रही है क्योंकि ऐसी चर्चा से किसी का स्वार्थ सिद्ध नहीं होता है । चार वर्ष पूर्व (नौ अगस्त सन दो हज़ार सोलह को) अरूणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी लेकिन एक मुख्यमंत्री स्तर के व्यक्ति द्वारा किए गए इस दुखद कृत्य की जाँच तो छोड़िए, ठीक से चर्चा तक नहीं हुई । उनके आत्महत्या-पत्र (सुइसाइड नोट) को सार्वजनिक तक नहीं किया गया जबकि यह कहा जाता है कि उन्होंने व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से दुखित होकर ऐसा कदम उठाया था एवं अपने आत्महत्या-पत्र में बहुत-से चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन किए थे । उनके आत्मघात को बड़ी सहूलियत से भुला दिया गया । यह केवल मीडिया, राजनीतिक दलों तथा संबंधित लोगों की ग़ैर-ज़िम्मेदारी का ही नमूना नहीं बल्कि हम भारतीयों की विवेकशून्यता एवं पाखंड का भी ज्वलंत उदाहरण है ।

आत्मघाती प्रवृत्ति अवसाद (डिप्रैशन) का ही उत्पाद है । छोटे-मोटे एवं अस्थायी अवसाद से तो अधिकतर लोगों का अपने जीवन में कभी-न-कभी साक्षात् हो ही जाता है किन्तु जब अवसाद का घनत्व एवं अवधि दोनों ही बढ़ने लगें तो वह निस्संदेह चिंता का विषय होता है । अवसादग्रस्त पुरुष / महिला यदि दृढ़ व्यक्तित्व का / की है तो वह अपना उपचार स्वयं ही कर सकता है / सकती है । गम्भीर अवस्था होती है अवसाद का ब्रेकिंग प्वॉइंट पर पहुँच जाना जिसके उपरांत संबंधित व्यक्ति मानसिक रूप से टूट जाता है । मैं स्वयं जीवन में कई बार गंभीर अवसाद से गुज़र चुका हूँ । प्रत्येक बार मैंने अपने आपको स्वयं ही संभाला तथा जीवन को नये सिरे से आरंभ किया । इसी विषय पर मैंने कई वर्ष पूर्व एक लेख लिखा था ‌- कहीं आप ब्रेकिंग प्वॉइंट के निकट तो नहीं जिसमें  मैंने समस्या तथा उसके समाधान, दोनों ही पर अपने विचार अभिव्यक्त्त किए थे । 

पेशे से चार्टर्ड लेखाकार होने के बावजूद मैंने जब सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी की थी तो अपने मुख्य विषयों के रूप में मनोविज्ञान एवं समाजशास्त्र को चुना था । आज आत्मघात के बारे में बात करते समय मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि अवसाद के ऐसी उन्नत अवस्था तक पहुँच जाने एवं व्यक्ति के पूरी तरह बिखर जाने को समझने के लिए मनोविज्ञान तथा समाजशास्त्र, दोनों ही को जानना आवश्यक है । टूटन और घुटन की मानसिक अवस्था व्यक्ति की निजी होती है जिसके मूल में यह तथ्य महत्वपूर्ण होता है कि उसके व्यक्तित्व का गठन किस प्रकार हुआ है तथा वह कितने दबाव सह सकता है लेकिन इस गठन के पीछे जो उसके बालपन एवं लड़कपन में हुए लालन-पालन एवं समाजीकरण की प्रक्रिया होती है, उसमें तो परिवार एवं समाज की ही भूमिका अहम रही होती है । स्वामी विवेकानंद अपने देशवासियों के लिए चाहते थे कि उनके स्नायु फ़ौलाद के हों अर्थात् वे मानसिक रूप से बहुत मज़बूत हों । लेकिन ऐसे नागरिकों के निर्माण के लिए आवश्यक है कि परिवार तथा समाज भी अपनी वांछित भूमिका सही ढंग से निभाएं ।

अवसाद का प्रमुख कारण होता है अपने भीतर एकाकीपन की अनुभूति - एक उदासी भरा अकेलेपन का अहसास कि मेरा कोई नहीं है । स्वर्गीय किशोर कुमार जी का अमर गीत इस स्थिति पर पूरी तरह से लागू होता है - कोई होता जिसको अपना हम अपना कह लेते यारों, पास नहीं तो दूर ही होता लेकिन कोई मेरा अपना' । यहाँ पास नहीं तो दूर ही होता' लफ़्ज़ बहुत गहरे मायने रखते हैंं । केवल किसी के साथ रहने या लोगों के इर्द-गिर्द मौजूद रहने से ही अकेलापन दूर हो जाए, यह ज़रूरी नहींं । अगर कोई समझने वाला न हो तो इंसान भीड़ में भी अकेला ही होता है । और ऐसा कोई जो आपको समझ ले, केवल क़िस्मत से मिलता है । भाग्यशाली है वो जिसे समझने वाला कोई हो, फिर (जैसा कि गीत में कहा गया है) चाहे वह भौतिक रूप से दूर ही क्यों न हो ।

लेकिन जब इंसान की ज़िंदगी में ऐसा कोई अपना, ऐसा कोई समझने वाला (या वाली) न हो और हालात (जो कभी-कभी बयान भी नहीं किए जा सकते) उसे बुरी तरह से तोड़ रहे हों तो वह क्या करे ? वही करे जो मैंने कई बार किया है (और अब भी करता हूँ) - ख़ुद ही ख़ुद को संभाले । एक ग़ज़ल की पंक्तियां हैं - दर्द पैग़ाम लिए चलता है, जैसे कोई चिराग़ जलता है, कौन किसको यहाँ संभालेगा, आदमी ख़ुद-ब-ख़ुद संभलता है । इसलिए जैसे भी होइंसान ख़ुद को संभाले । आत्मघात कोई समाधान नहीं । किसी के मरने से दुनिया को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला । मैं तो ख़ुदकुशी की चाह रखने वाले हर परेशान-हाल शख़्स को कुँअर बेचैन जी के ये अशआर सुनाना चाहता हूँ : 

माना कि मुश्किलों का तेरी हल नहीं कुँअर

फिर भी तू ग़म की आग में यूँ जल नहीं कुँअर

कोई-न-कोई रोज़ ही करता है ख़ुदकुशी

क्या बात है कि झील में हलचल नहीं कुँअर

अवसादग्रस्त व्यक्ति अगर कहे कि जीने की चाहत नहीं तो मैं उत्तर में यही कहूंगा कि मर के भी राहत नहीं । इंसान अपने ग़म से ज़्यादा उन लोगों के ग़म की परवाह करता है जिनसे उसे प्यार है, लगाव है (चाहे उन्हें न हो) । आज के भ्रष्ट भारत की सच्चाई यही है कि आत्महत्या करने वाला जिन्हें अपने पीछे छोड़ जाता है, उन्हें कई बार जीते-जी मरना पड़ता है (अगर वे ऊंची पहुँच वाले या अति-सामर्थ्यवान न हों) । उनकी ज़िन्दगी को मौत से भी बदतर बना देने में न तो सरकारी अमलदारी कोई कसर उठा रखती है, न ही मीडिया (चाहे आत्महत्या करने वाला अपने सुइसाइड नोट में यह लिखकर ही क्यों न जाए कि उसकी मृत्यु के लिए कोई अन्य उत्तरदायी नहीं) । आदमख़ोर मीडिया को तो रोज़ लाशें चाहिए - मुरदों की नहीं, ज़िन्दों की । और न्याय की बात करना ही व्यर्थ है ।  किसी अपवादस्वरूप उदाहरण को छोड़ दिया जाए तो स्वतंत्र भारत में दशकों से यही सिद्ध हो रहा है कि यहाँ  न्याय समर्थों की दासी है । ऐसे में डिप्रैशन का (या की) शिकार और उसका चहेता (या चहेती) अगर आम लोग हैं तो अपने बाद जीने पर मजबूर लोगों के हक़ में बेहतर है कि ऐसा इंसान मरने की जगह जिये और अपने डिप्रैशन से लड़े । वरना मरने के बाद भी चैन या राहत मिलने की कोई उम्मीद नहीं है । काश सुशांत मरते वक़्त यह सोच पाते कि उनके जाने के बाद रिया और उनके परिजनों पर मीडिया और सरकारी महकमात के हाथों क्या बीतेगी !

अपनी बात मैं अज़ीम शायर ज़ौक़ साहब के इस शेर के साथ ख़त्म करता हूँ :

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे

मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे ?

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17 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (15 सितम्बर 2020 को) पर ब्लॉगर मित्रों की प्रतिक्रियाएं :

    Dr Varsha SinghSeptember 19, 2020 at 6:02 AM
    बहुत गहराई से विचार कर अत्यंत विचारोत्तेजक लेखन किया है आपने। साधुवाद 🙏

    कृपया यदि समय निकाल कर मेरी इस पोस्ट पर पधारें तो कृपा होगी।

    http://sahityavarsha.blogspot.com/2020/09/8.html?m=1

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    जितेन्द्र माथुरSeptember 21, 2020 at 6:53 PM
    हार्दिक आभार वर्षा जी । मैं आपके पृष्ठ पर शीघ्र ही आता हूँ ।

    Dr (Miss) Sharad SinghSeptember 22, 2020 at 1:52 AM
    सुशांत के निहितार्थ वर्तमान परिदृश्य का सटीक विवेचन 🙏

    Reply
    जितेन्द्र माथुरSeptember 22, 2020 at 2:55 AM
    आभार शरद जी ।

    Madhulika PatelSeptember 24, 2020 at 4:47 AM
    लेकिन जब इंसान की ज़िंदगी में ऐसा कोई अपना, ऐसा कोई समझने वाला (या वाली) न हो और हालात (जो कभी-कभी बयान भी नहीं किए जा सकते) उसे बुरी तरह से तोड़ रहे हों तो वह क्या ,,,,,,,जी सर आपने बहुत विचारणीय और गहरी बात कही है बिलकुल सही बात है, आदरणीय शुभकामनाएँ

    Reply
    जितेन्द्र माथुरSeptember 24, 2020 at 7:31 AM
    हार्दिक आभार मधूलिका जी ।

    रेणुOctober 19, 2020 at 11:05 AM
    बहुत जरूरी है ऐसे लोगों की पहचान करना जो अवसाद से ग्रसित हैं अथवा उससे अभी अभी गुजरने के लक्षणों से युक्त हैं | कभी कभी हमें लगता है कि कोई व्यक्ति बहुत ज्यादा पकाऊ अथवा उबाऊ हो गया है | हम उसके प्रलाप के पीछे व्याप्त पीड़ा को पहचान नहीं पाते तभी शायद कोई सुशांत की तरह बड़ा कदम उठाने पर मजबूर हो जाता है | सुशांत मामले में खुद उसके परिवार ने उसकी शिकायतों और असमान्य व्यवहार को अनदेखा किया | पर खुद अवसाद से जूझ रहे व्यक्ति को यही बात समझानी होगी कि----------------
    मरके भी चैन ना आया तो ????????????????

    Reply
    जितेन्द्र माथुरOctober 19, 2020 at 7:38 PM
    आपने एकदम ठीक कहा रेणु जी । पिछले कुछ दिनों से आपके ब्लॉगर पर नज़र न आने से मैं कुछ परेशान हो गया था पर आज आपको फिर से देखकर सुकून पाया । बहुत-बहुत शुक्रिया आपकी आमद एवं सटीक टिप्पणी का ।

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  2. एक बार फिर आपकी यह पोस्ट पढ़ डाली....

    "अवसादग्रस्त व्यक्ति अगर कहे कि जीने की चाहत नहीं तो मैं उत्तर में यही कहूंगा कि मर के भी राहत नहीं ।"

    बहुत सही विश्लेषण किया है आपने, आदरणीय... सामाजिक परिस्थितियों का
    पुनः साधुवाद 🙏

    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

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    1. आपने इस पुरानी पोस्ट को आज फिर से पढ़ने का श्रम किया वर्षा जी, इसके लिए मैं हृदयतल से आपका आभारी हूँ ।

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  3. अवसाद को लेकर इतनी तर्कपूर्ण और गहरी विवेचना के लिए आपको बधाई सर। आलेख की हर पंक्ति मायने रखती है।

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    1. हृदय की गहनता से आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूं आदरणीय वीरेन्द्र जी ।

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  4. सुशांत सिंह की मौत पर आपका विश्लेषण सराहनीय है ,आपको नमन ।

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  5. अवसाद के साथ दिक्कत ये है आज के समय में भी लोग इसको लेकर संजीदा नहीं है। कई बार लोग एकाकीपन के चलते अवसाद में जाते हैं लेकिन कई बार यह दिमाग में मौजूद केमिकल की कमी से भी होता है जिसका इलाज दवाइयों से ही सम्भव है। ऐसे में अवसाद का कारण क्या है यह तय करना जरूरी है और ये तभी हहोगा जब परिवार वाले या मित्र लक्षण पहचान कर चिकित्सीय परामर्श लेंगे।

    बेहद सारगर्भित लेख। आभार।

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    1. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं विकास जी । हार्दिक आभार आपका ।

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  6. भावपूर्ण,सार्थक लेख, एक बार फिर से पढ़कर अच्छा लगा जितेंद्र जी। सुशांत का आकस्मिक चले जाना समाज के लिए कड़ा संदेश है। अवसाद को अनदेखा करके अनजाने में हम किसी बहुत अपने को हमेशा के लिए खो सकते हैं । सादर 🙏🙏

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    1. आप ठीक कह रही हैं रेणु जी । मैं सहमत हूँ । एक बार फिर से हार्दिक आभार आपका ।

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  7. अवसाद का प्रमुख कारण होता है अपने भीतर एकाकीपन की अनुभूति - एक उदासी भरा अकेलेपन का अहसास कि मेरा कोई नहीं है .
    बहुत गहनता से आपने अवसाद के कारण लिखे हैं ...
    मिडिया तो मरने जीने को भी तमाशा ही बना देता है ...
    सार्थक लेख .

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    1. बिल्कुल सही संगीता जी । आज मीडिया हर बात को तमाशा ही बना रहा है । हमें अपने अवसाद को स्वयं सम्भालना आना चाहिए, सीखना चाहिए इसे । हृदय से धन्यवाद आपका ।

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