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रविवार, 21 मार्च 2021

इतनी दूर की कौड़ी !

हिन्दी मुहावरे 'दूर की कौड़ी लाना' का अर्थ है बहुत दूर की सोच लेना अथवा किसी ऐसे काम को संभव बनाने (या उसके संभव हो जाने) की परिकल्पना करना जो प्रत्यक्षतः असंभव-सा लगता हो । हिन्दी उपन्यासकार स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा की क़लम जब अपने पूरे जलाल पर थी, तब उन्होंने ऐसे कई उपन्यास लिख डाले थे जिनके प्रमुख पात्र दूर की कौड़ी लाने जैसी ही योजनाएं बनाया करते थे और उन पर अमल भी कर दिखाया करते थे । शर्मा जी की कथाओं की इस विशिष्टता ने ही वस्तुतः उन्हें एक विशेष लेखक बनाया जो दूसरे लेखकों की तरह घिसी-पिटी और बार-बार दोहराई जाने वाली कहानियों की जगह अपने पाठकों को हर बार कुछ नया पेश करता था और उस कहानी में ऐसे-ऐसे घुमाव होते थे जो पढ़ने वाले के हाथ से किताब न छूटने दें । यही कारण था कि वे सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध तक भारत के सबसे लोकप्रिय हिंदी उपन्यासकार बने रहे । वे अपने उपन्यासों का प्रचार करते हुए पाठकों से कहते थे कि मैंने उपन्यास के पृष्ठों पर जगह-जगह करेंट-युक्त तार बिछा रखे हैं जो आपको बार-बार झटका देंगे । बहरहाल दूर की कौड़ी क्या होती है, इसे ठीक से समझना हो तो शर्मा जी के उस ज़माने के उपन्यासों को पढ़कर भी समझा जा सकता है । 

इक्कीसवीं सदी में वेद जी की क़लम अपनी चमक खो बैठी और उनके ऐसे-ऐसे उपन्यास आने लगे जिन्हें पढ़कर लगता ही नहीं था कि वे उसी वेद प्रकाश शर्मा के लिखे हुए हैं जिसने कभी हिन्दी के पाठकों को अपनी क़लम का दीवाना बना दिया था और जिसके नये उपन्यास के लिए पाठक महीनों इंतज़ार किया करते थे । फिर भी २००३ से २००५ के वक़्त में उनके लगातार छः ऐसे उपन्यास आए जिन्हें श्रेष्ठ माना जा सकता है । इनमें से छठे और आख़िरी उपन्यास का नाम ही था 'दूर की कौड़ी'  



'दूर की कौड़ी' का कथानक इतना उलझा हुआ है कि उसके केन्द्रीय पात्र अजय श्रीवास्तव की वास्तविक योजना को समझ पाना ही आधे से अधिक उपन्यास को पढ़ चुकने पर भी पाठक के लिए टेढ़ी खीर ही बना रहता है । उपन्यास का नायक जिन लोगों को संकट में डालना चाहता है, उनके भावी कार्यकलापों तथा अपने कृत्यों पर उनकी सम्भावित प्रतिक्रियाओं का ऐसा सटीक अनुमान लगाता है कि पढ़कर आश्चर्य होने लगता है कि क्या कोई व्यक्ति वाक़ई इतनी दूर तक सही-सही सोच सकता है और अन्य व्यक्तियों के दिमाग़ों में झाँककर जान सकता है कि वे कब क्या करेंगे ? यह मास्टरमाइंड अपने आपको दूसरों के दिमाग़ों का अपहरण कर लेने में माहिर बताता है और उसे ऐसी शतरंजी चालें चल सकने का आत्मविश्वास है जिनके फलस्वरूप उसके शिकार हर कदम पर वही करेंगे जो वह चाहता है कि वे करें । उसकी यह मान्यता है कि यदि मस्तिष्क को तर्कपूर्ण ढंग से उपयोग में लिया जाए तो अन्य व्यक्तियों को कठपुतलियों की भांति नचाया जा सकता है ।
 

कथानक का यह मुख्य पात्र (चाहे इसे नायक कहें या खलनायक) अपनी योजना पर अकेले काम नहीं करता है । उसने अपना एक पूरा दल बनाया हुआ है लेकिन इस दल में उसका पूर्णतः विश्वस्त सहयोगी एक ही है जो जानता है कि जो किया जा रहा है, वह क्यों किया जा रहा है तथा अंतिम लक्ष्य क्या है । बाकी लोग केवल मोहरे हैं जो संपूर्ण योजना तथा उसके उद्देश्य से अनभिज्ञ हैं । इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो यह भी नहीं जानते कि योजना जब अपने कार्यान्वयन की चरम सीमा पर पहुँचेगी तो उनकी गणना भी शिकारों में ही होगी । बहरहाल मुख्य पात्र की योजना तथा उसका कार्य रूप में परिणत होना दोनों ही इस उपन्यास को एक अत्यंत रोचक उपन्यास बना देते हैं जो आदि से अंत तक पाठक को बांधे रखता है तथा पूर्णतः पठित हो जाने पर एक सन्तुष्टि की अनुभूति प्रदान करता है ।

 

वेद प्रकाश शर्मा अपने स्वर्णकाल में कहा करते थे कि वे लोग मेरे उपन्यास न पढ़ें जिन्हें मारधाड़ वाले उपन्यास पसंद आते हैं, मेरे उपन्यास उन पाठकों के लिए हैं जिन्हें दिमाग़ी खुराक़ चाहिए । और उनके उस दौर के उपन्यासों के पेचीदा कथानक वास्तव में पढ़ने वालों के दिमाग़ों को ज़बरदस्त खुराक़ दिया करते थे । 'दूर की कौड़ी' तब लिखा गया था जब वे अपने स्वर्णकाल को बहुत पीछे छोड़ आए थे एवं एक लेखक के रूप में उनका करियर ढलान पर था लेकिन पाठकों को जो तगड़ी दिमाग़ी खुराक़ उन्होंने इस उपन्यास में दी है, वैसी खुराक़ शायद ही पहले किसी उपन्यास में दी हो । इस उपन्यास का पेचदार मगर दिलचस्प कथानक एक इतनी दूर की कौड़ी है कि उस पर यकीन होना ही मुश्किल है कि ऐसा भी मुमकिन है ।

 

कथानक का आधार भारतीय न्यायिक व्यवस्था एवं पुलिस व्यवस्था के दोष हैं जिनके कारण साधारण नागरिकों पर अन्याय होते हैं तथा अन्याय-पीड़ितों के मन में प्रतिशोध की भावना जागृत होती है । उपन्यास का प्रमुख पात्र तथा उसके दाएं हाथ जैसा विश्वस्त साथी ऐसे ही अन्याय से पीड़ित होने की ज्वाला जैसी अनुभूति अपने मन में लिए घूम रहे हैं तथा उनकी संपूर्ण योजना एवं अंतिम उद्देश्य उसी अनुभूति का परिणाम हैं । अ‍पना प्रतिशोध वे किसी सरल उपाय से नहीं, अत्यंत घुमावदार ढंग से लेना चाहते हैं । वे (अपनी दृष्टि में) अपने अपराधियों को उसी तरह तड़पाना चाहते हैं, जिस तरह से वे तड़पे हैं ।

 

लेकिन कथानक एक और महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित करता है । वह यह है कि आवश्यक नहीं कि कानून के रक्षक अपनी भ्रष्ट अथवा दुष्ट प्रवृत्ति के चलते ही किसी के साथ अन्याय करें । कई बार व्यवस्था इस प्रकार उनके हाथ बाँध देती है कि वे स्वयं ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ होते हुए भी असहाय हो जाते हैं तथा उनके हाथ से अनचाहे ही किसी के साथ अन्याय हो जाता है । कथानक के दो महत्वपूर्ण पात्रों जिनमें से एक न्यायाधीश है तथा दूसरा पुलिस अधिकारी, की स्थिति ऐसी ही है । कहानी के केन्द्रीय पात्र अजय श्रीवास्तव तथा उसके जोड़ीदार के साथ जो अन्याय उनके हाथों हो जाते हैं, उसके लिए व्यवस्था के दोष उत्तरदायी हैं, वे नहीं । लेकिन ऐसा होने के कारण वे निर्दोष होते हुए भी उनके प्रतिशोध के निशाने पर आ जाते हैं ।

 

मेरी एक शुभचिन्तिका जो स्वयं एक जानी-मानी लेखिका, कवयित्री एवं समीक्षिका होने के साथ-साथ मेरी ही तरह एक सरकारी संगठन में कार्यरत हैं, ने एक बार मेरे द्वारा की गई पुरानी फ़िल्म 'सत्यकाम' (१९६९) की समीक्षा के संदर्भ में मेरे साथ भ्रष्टाचार के विषय पर विचार-विमर्श किया था । तब मैंने यही विचार व्यक्त किया था कि कभी-कभी भला, ईमानदार एवं निर्दोष व्यक्ति भी व्यवस्था (एवं उसमें उसके चहुँओर उपस्थित अन्य भ्रष्ट लोगों) द्वारा अनुचित कार्य करने पर विवश कर दिया जाता है - ऐसा कार्य जिसे करने के लिए उसकी अपनी अन्तरात्मा सहमत नहीं है लेकिन उसे करना पड़ता है क्योंकि उसे उसी व्यवस्था में रहना है तथा अपने व अपने आश्रितों के लिए आजीविका कमानी है । 'दूर की कौड़ी' का कर्तव्यपरायण एवं ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर गोपाल दास गोखले एक ऐसा ही विवश सरकारी कर्मचारी है जिसे अजय अपनी दुर्गति का उत्तरदायी मानता है लेकिन गोखले की अपनी विवशता को उसके अलावा कोई नहीं समझ सकता ।

 

कुछ मिलती-जुलती स्थिति कभी-कभी कर्तव्यनिष्ठ एवं निष्कलंक न्यायाधीशों के साथ भी होती है क्योंकि उन्हें अपना निर्णय अपनी निजी जानकारी के स्थान पर उन तथ्यों व प्रमाणों के आधार पर देना होता है जो पुलिस एवं सरकारी वकील द्वारा उनके समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं । कई बार तो यह जानते हुए भी कि अभियुक्त के रूप में प्रस्तुत व्यक्ति वास्तव में अपराधी है, प्रमाणों के अभाव में उन्हें उसे छोड़ देना पड़ता है । इसके ठीक विपरीत कई बार आरोपित व्यक्ति की निर्दोषिता के विषय में व्यक्तिगत रूप से आश्वस्त होते हुए भी उन्हें उसे दंडित करना पड़ता है क्योंकि उसके विरूद्ध झूठे साक्ष्य उनके समक्ष प्रस्तुत कर दिए जाते हैं जिन्हें वे अनदेखा नहीं कर सकते । न्याय की देवी के नेत्रों पर पट्टी बंधी होती है, अतः वह सच व झूठ का निर्णय वास्तविकता को स्वयं देखकर नहीं कर सकती । 'दूर की कौड़ी' के न्यायाधीश सुदर्शन चक्रवर्ती एक ऐसे ही न्यायाधीश हैं जिन्हें जब पता चलता है कि झूठे प्रमाणों के आधार पर उन्होंने एक निर्दोष को दंडित कर दिया था जिसके फलस्वरूप उसका संपूर्ण परिवार तबाह हो गया था तो उनकी अन्तरात्मा तड़प उठती है । और यही अपराध-बोध उन्हें उन शातिरों के हाथों का खिलौना बना देता है जो उनसे अनजाने में हो गई उस भूल का प्रतिशोध लेने की आग में जल रहे हैं ।

 

लेकिन क्या बिना सोचे-समझे प्रतिशोध लेने के लिए मैदान में उतर पड़ना ठीक है और क्या किसी की भूल (या अपराध) का प्रतिशोध किसी अन्य निर्दोष से लिया जाना उचित है ? ये वे प्रश्न हैं जो मैंने निर्भया कांड के संदर्भ में लिखे गए अपने लेख  'आँखों वाला न्याय चाहिए, अंधा प्रतिशोध नहीं' में उठाए थे । अन्याय का प्रतिशोध अन्यायी से लिया जाए तो ठीक हो सकता है, किसी निर्दोष से लिया तो वह मूल पाप के समान एक दूसरा पाप ही तो हुआ । प्रतिशोध न्याय का पर्यायवाची नहीं है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था - 'आँख के बदले आँख के नियम को लागू करने पर संपूर्ण विश्व ही अंधा हो जाएगा' 'दूर की कौड़ी' भी अप्रत्यक्ष रूप से इसी बात का समर्थन करती है कि प्रतिशोध के आकांक्षी को प्रतिशोध के मार्ग पर उतरने से पूर्व इतना अवश्य सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि जिससे प्रतिशोध लिया जा रहा है, वह वास्तव में दोषी था या नहीं एवं जिस ढंग से वह प्रतिशोध लेने जा रहा है, वह अपने आप मेंं कितना उचित है ।

 

'दूर की कौड़ी' के कथानक की प्रेरणा शर्मा जी ने कहाँ से ली थी, वे ही जानते होंगे लेकिन उपन्यास अत्यंत प्रभावशाली है । अच्छा-ख़ासा कलेवर होते हुए भी इसमें फालतू बातें न के बराबर हैं तथा प्रत्येक घटना एवं संवाद सार्थक व मुख्य कथानक से जुड़ा हुआ है । किसी कलाकार या लेखक के लिए दीवानी हो जाने वाली कम आयु की अपरिपक्व लड़कियां किस प्रकार अपने जीवन का महत्वपूर्ण निर्णय करते समय भूल कर बैठती हैं, यह बहुत अच्छे ढंग से बताया गया है । बिना सोचे-समझे अपने माता-पिता को ग़लत समझ लेना और उनसे बग़ावत कर देना किस तरह ऐसी लड़कियों को मुश्किल में डाल सकता है, इसे इस उपन्यास को पढ़कर समझा जा सकता है । उपन्यास का सकारात्मक अंत यह भी बताता है कि दूर की कौड़ी लाने वाले अपने आपको बुद्धिमान समझें, यह तो ठीक है लेकिन यदि वे दूसरों को मूर्ख समझने लगते हैं तो एक दिन अपने ही जाल में फँस जाते हैं ।

 

चेहरे पर मेकअप करके या फ़ेसमास्क लगाकर दूसरी शक्ल बना लेने के प्रसंग कहानी की विश्वसनीयता को घटाते हैं लेकिन यह कमी तो वेद प्रकाश शर्मा के अधिकांश उपन्यासों में मिलती है ।

 

सरल हिन्दी में लिखा गया तथा रोचक घटनाओं व प्रभावी संवादों से भरपूर यह उपन्यास हिन्दी के पाठकों के लिए किसी दावत से कम नहीं है । दिमाग़ के खेल में जिन्हें दिलचस्पी हो, वे 'दूर की कौड़ी' को ज़रूर पढ़ें ।

 

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15 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (10 जुलाई, 2020 को) पर ब्लॉगर मित्र की प्रतिक्रिया :

    रेणुJuly 10, 2020 at 11:10 AM
    आदरणीय जितेन्द्र जी , बहुत सुंदर , भावपूर्ण समीक्षा \ आदरणीय वेदप्रकाश जी शर्मा हमारी पीढ़ी के आम पाठकों के लिए बहुत जाने -पहचाने हैं | आज से तीन दशक पहले लुगदी साहित्य ही साहित्य था | आमजनों से कथित असली साहित्य बहुत दूर था | भले लुगदी वालों को ज्ञानपीठ या साहित्य एकादमी पुरस्कार ना मिल पाए , पर साहित्य के रूप में इनकी पहुँच घर -घर थी |रानू , गुलशन नंदा , सुरेन्द्रमोहन पाठक , कर्नल रंजित जैसे लेखकों के साथ , शर्मा जी शायद सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखकों में से एक थे | हमारे घर में भी मेरे स्वर्गीय ताऊ जी बहुत किताबें पढ़ते थे , जिनमें प्रेमचंद से लेकर रानू तक सभी की किताबें आती थी | भले बच्चों से इन लुगदी साहित्य को बहुत दूर रखने की भरसक चेष्टा की जाती थी पर हम शैतान बच्चे इसे अक्सर चुराकर पढने से बाज नहीं आते थे | आज ज्यादा याद नहीं कि किसकी कौन सी किताब पढ़ी थी पर बहुत सुहानी यादें जुडी हैं इन लेखकों की किताबों से | आपने बहुत अच्छा लिखा | आज जीवन इतना व्यस्त है कि ब्लॉग पर ही कुछ पोस्ट पढ़कर चला जाता है | ये ही नहीं कहूँगी कि ; दूर की कौड़ी पढ़ ही लुंगी , पर बहुत अच्छा लगा इस किताब के बारे में पढकर | आपने आत्म तत्व ही लिख डाला | बहुत बहुत आभार और शुभकामनाएं पिछली यादों का स्मरण कराने के लिए |

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    जितेन्द्र माथुरJuly 10, 2020 at 9:21 PM
    बहुत-बहुत आभार माननीया रेणु जी |

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  2. जबरदस्त समीक्षा लिखी है आपने। आपको बधाईयाँ।

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  3. बहुत ईमानदारी से लिखी सुन्दर समीक्षा ।शुभ कामनाएं ।

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  4. आदरणीय वेदप्रकाश शर्मा जी द्वारा रचित उपन्यास'दूर की कौड़ी' की बहुत ही लाजवाब एवं सटीक समीक्षा, जिसमें उपन्यास का कथासार इतना रोचक है कि पाठक का मन उपन्यास पढ़ने को लालायित हुए वगैर नहीं रह सकता....साथ ही शर्मा जी के अधिकांश उपन्यासों में की गई कमी को भी स्पष्ट किया गया है...।

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  5. आपकी बात बिल्कुल सही है बहुत ही सटीक लिखा आपने

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  6. उपन्यास के प्रति उत्सुकता जगाती समीक्षा.. आपने सही कहा वेद प्रकाश शर्मा जी का अक्सर फेस मास्क और मिमिक्री का उपयोग करना कथानक को कई बार कम प्रभावी बना देता था...बहरहाल दूर की कौड़ी पढ़ने की इच्छा मन में हो गयी है..मिलने पर उपन्यास को पढ़ने की कोशिश रहेगी....

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    1. ज़रूर पढ़िए विकास जी । मुझे यकीन है कि यह उपन्यास आपको पसंद आएगा ।

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