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शनिवार, 23 जनवरी 2021

आर्टिकल पंद्रह और मोहल्ला अस्सी

विगत दिनों दो बहुचर्चित फ़िल्में देखीं  'आर्टिकल 15' और 'मोहल्ला अस्सीआर्टिकल 15' सिनेमाघर में जाकर देखी और 'मोहल्ला अस्सीइंटरनेट पर । प्रत्यक्षतः इन दोनों फ़िल्मों में कोई समानता नहीं दिखाई पड़ती । लेकिन मैंने फुरसत में जब ग़ौर से इन दोनों ही फ़िल्मों की कहानियों और उन्हें पेश करने की ईमानदारी पर मनन किया तो मुझे इनमें तुलना करने के लिए कई बिंदु मिले । दोनों ही की कथाओं का ठोस आधार है । हाल ही में (२०१९ में) प्रदर्शित 'आर्टिकल 15' जहाँ मई २०१४ में उत्तर प्रदेश के बदायूँ  में हुए दो दलित बालिकाओं के जघन्य हत्याकांड से प्रेरित हैवहीं गत वर्ष (२०१८ में) प्रदर्शित 'मोहल्ला अस्सीहिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार काशीनाथ सिंह की कृति 'काशी का अस्सीके एक अध्याय - 'पांडे कौन कुमति तोहे लागीपर आधारित है । दोनों ही फ़िल्में गुणवत्ता की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं लेकिन दोनों को ही वह व्यावसायिक सफलता नहीं मिली जो सैकड़ों करोड़ कमा लेने वाली औसत गुणवत्ता की फ़िल्मों को प्राय: सहज ही मिल जाती है । 'आर्टिकल 15' को प्रेरक होने के साथ-साथ मनोरंजक होने पर भी साधारण व्यावसायिक सफलता ही मिल सकी जबकि 'मोहल्ला अस्सीबुरी तरह असफल रही और अपनी लागत तक नहीं निकाल सकी । कारण ? हम भारतीय पलायनवादी हैं जो सत्य के साक्षात् से घबराते हैं । इसीलिए नेताओं द्वारा किया जाने वाला भांडनुमा मनोरंजन हमें भाता है और हम प्रसन्न होकर उन्हें वोट दे देते हैं चाहे वे हमारे प्रतिनिधि के रूप में अपने किसी भी कर्तव्य का पालन न करें । 


'आर्टिकल 15' के लेखक-निर्देशक अनुभव सिन्हा हैं जिन्होंने किसी ज़माने में 'तुम बिन' (२००१जैसी दिल को छू लेने वाली प्रेमकथा बनाकर अपने निर्देशकीय करियर का श्रीगणेश किया था और कुछ ही वर्षों में 'दस' (२००५) जैसी बड़े बजट की बहुसितारा थ्रिलर फ़िल्म उत्तम ढंग से बनाकर सभी को चौंका दिया था । व्यावसायिक फ़िल्में बनाते-बनाते उन्होंने 'मुल्क' (२०१८से अपने काम की धारा बदली और सार्थक सिनेमा की ओर मुड़े  'आर्टिकल 15' इस बात का प्रमाण है कि यह प्रतिभाशाली फ़िल्मकार निरंतर अपने क्षितिज का विस्तार कर रहा है और जोखिम उठाने से पीछे नहीं हट रहा है  

'मोहल्ला अस्सीके लेखक-निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी हैं जिन्होंने किसी ज़माने में दूरदर्शन के निमित्त अत्यंत प्रभावशाली तथा लोकप्रिय धारावाहिक 'चाणक्यबनाया था और उसमें शीर्षक भूमिका भी स्वयं ही निभाई थी । आने वाले समय में उन्होंने विभिन्न सृजनात्मक कार्यों में अपनी प्रतिभा की छाप छोड़ी जिनमें से प्रमुख रहा फ़िल्म 'पिंजर' (२००३) का लेखन-निर्देशन जो कि अमृता प्रीतम की इसी नाम वाली अमर कृति का सिनेमाई संस्करण थी । फ़िल्म चाहे व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही लेकिन वह अमृता जी की साहित्यिक कृति का अत्यंत ईमानदाराना और हृदयस्पर्शी प्रस्तुतीकरण थी । 

'आर्टिकल पंद्रह' और 'मोहल्ला अस्सी' दोनों ही फ़िल्मों के नायक ब्राह्मण हैं जिनकी अपनी-अपनी विचारधारा, अपनी-अपनी पृष्ठभूमि एवं अपनी-अपनी प्राथमिकताएं हैं । एक परंपरा में गहरे तक समा चुकी बुराइयों को दूर करना चाहता है और इसके लिए शत्रु-सदृश परिवेश तथा पक्षपाती प्रशासकीय तंत्र से जूझता है ताकि पीड़ितों को न्याय मिल सके जबकि दूसरा परंपरा की जड़ों से कटना नहीं चाहता, न ही उन जड़ों को बाज़ार के प्रहारों से मिटते-बिखरते हुए देख सकता है । एक को अपने ब्राह्मण होने का कोई अभिमान नहीं है तथा वह उस जातिवादी एवं विभेदकारी सामाजिक व्यवस्था का घोर विरोधी है जो एक वर्ग को उच्च तथा दूसरे वर्ग को निम्न की श्रेणी में डालते हुए एक के द्वारा दूसरे के शोषण तथा उत्पीड़न को न्यायोचित एवं अनदेखा करने के योग्य मान लेती है जबकि दूसरा उस सामाजिक व्यवस्था में भरपूर आस्था रखता है और उसे अपने ब्राह्मणत्व का अभिमान भी है लेकिन वह मानवीय संवेदनाओं से कोरा नहीं है तथा जीवन के उच्च मूल्यों एवं आदर्शों में पूर्ण  विश्वास रखते हुए उनका वास्तविक जीवन में पालन करता है  अपनी-अपनी जगह और अपने-अपने नज़रिये से दोनों ही ठीक हैं क्योंकि दोनों के परिवेश भिन्न हैं, हेतु भिन्न हैं और वैचारिक विकास तो भिन्न रूप में हुआ ही है । दोनों अपने प्रति ईमानदार हैं । दोनों के ज़मीर ज़िंदा हैं । दोनों ही अपने भीतर की आवाज़ को अनसुना नहीं करते । दोनों वही करते हैं जो उनकी नज़र में सही है चाहे दूसरों की राय कुछ भी हो  

'आर्टिकल 15' विदेश में शिक्षा-प्राप्त उस युवा अंग्रेज़ीदां पुलिस अधिकारी के दृष्टिकोण से उत्तर भारत के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में व्याप्त शोचनीय परिस्थितियों की सूक्ष्मता से पड़ताल करती है जिसके मन में भारतीय गाँवों की बड़ी रूमानी कल्पना है और जो उसे नगरीय भीड़ तथा प्रदूषण से दूर पर्यटन-स्थल सरीखे लगते हैं  उसके भ्रम अपने थाना-क्षेत्र में पदार्पण के साथ ही टूटने आरंभ हो जाते हैं और दो दलित वर्ग की अवयस्क श्रमिक बालिकाओं की दुराचार के उपरांत हत्या के अत्यंत घृणित अपराध के अण्वेषण में लगने पर यह रहस्य परत-दर-परत उसके समक्ष उजागर होता है कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद पंद्रह के माध्यम से समस्त नागरिकों को प्रदत्त समानता का मौलिक अधिकार केवल काग़ज़ी है जिसका वास्तविकता के धरातल पर अस्तित्व न के बराबर है । जिस बदायूँ काण्ड की उत्पीड़ित बालिकाओं तथा उनके निर्धन एवं पददलित परिजनों को आज तक न्याय नहीं मिला है, उसी की तर्ज़ पर इस फ़िल्म का कथानक रचा गया है जो कि पुलिस प्रक्रियात्मक थ्रिलर के ढंग से आगे बढ़ता है और अपनी उस तार्किक परिणति तक पहुँचता है जिस तक वह वास्तविक काण्ड नहीं पहुँच पाया है  इस दौरान नायक के साथ-साथ फ़िल्म देख रहे उस पाखंडी भारतीय समाज का भी उसी के भीतर सड़ांध मारती हुई उस वास्तविकता से साक्षात् करवाया गया है जिसे वह भलीभाँति जानने के बावजूद उसकी ओर देखने तथा उसके अस्तित्व को स्वीकार करने से परहेज़ करता है । फ़िल्म में केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) की घटिया तथा पक्षपातपूर्ण कार्यशैली भी बेबाकी से दिखाई गई है जिसमें ईमानदारी से दोषियों को पकड़ने केे स्थान पर पीड़ित वर्ग को ही न केवल तंग किया जाता है वरन उसी पर मिथ्या दोषारोपण किया जाता है  बदायूँ में हुए वास्तविक कांड के संदर्भ में भी सीबीआई का यही रवैया (पीड़ित परिवारों की ज़ुबानी) सामने आया था । फ़िल्म में ये कटु सच्चाइयां इतने स्पष्ट रूप से दिखाई गई हैं कि मुझे भारतीय फ़िल्म सेंसर बोर्ड से फ़िल्म का अपने मूल स्वरूप में पारित हो जाना ही फ़िल्मकार की एक उपलब्धि लगती है 

'मोहल्ला अस्सी' लगभग एक दशक की समयावधि (१९८८ से १९९८) में बाबा विश्वनाथ की नगरी के नाम से विख्यात काशी (अथवा वाराणसी अथवा बनारस) में हुईं सामाजिक-राजनीतिक हलचलों को सत्यनिष्ठा से प्रदर्शित करती है और साथ ही नब्बे के दशक में उभरे उदारीकरण और वैश्वीकरण द्वारा धर्मप्राण भारतीय मानस में सदा पावन समझी गईं पुरातन परंपराओं पर निर्ममता से किए गए प्रहारों और उनके दारूण परिणामों को भी बिना किसी लागलपेट के ज्यों-का-त्यों पटल पर रखती है । यह फ़िल्म परिवेश में हो रही सभी आंतरिक एवं बाह्य हलचलों को एक विद्वान एवं धर्मनिष्ठ पंडित को केंद्र में रखकर देखती है लेकिन उनका प्रभाव संपूर्ण ब्राह्मण (या यूँ कहिए कि सवर्ण) समाज पर किस प्रकार पड़ा था, इसे समग्रता से दर्शक-वर्ग के समक्ष प्रस्तुत करती है कभी देवभाषा के नाम से सम्मानित संस्कृत परिवर्तित परिवेश में जहाँ अंग्रेज़ी का ज्ञान ही प्रमुखतः महत्व रखता है, अपनी प्रासंगिकता किस प्रकार खो चुकी है, इस पर भी यह फ़िल्म मार्मिक ढंग से प्रकाश डालती है  

इन दोनों ही फ़िल्मों को देखने वालों को प्रत्यक्षतः ऐसा आभास हो सकता है कि 'आर्टिकल 15' तथाकथित मनुवादी वर्ण-व्यवस्था का विरोध करती है जबकि 'मोहल्ला अस्सी' उसका समर्थन  वस्तुतः ये दोनों ही फ़िल्में एक मानवीय दृष्टिकोण की अंतर्धारा लिए हुए चलती हैं जिसमें न तो किसी वर्ग का समर्थन है और न ही किसी वर्ग का विरोध  'आर्टिकल 15' का नायक दूसरों की उस पीड़ा को अनुभव करता है जो उसने नहीं भोगी और इसीलिए वह संवेदनशील युवक मन-ही-मन स्वयं को लज्जित भी पाता है कि वह ऐसे विशेषाधिकारों से युक्त वर्ग में जन्मा जिसमें ऐसी पीड़ाओं के लिए कोई सम्भावना नहीं है । यह अनुभूति राजकुल में जन्म लेकर सभी सुख भोगने वाले राजकुमार सिद्धार्थ की संसार में व्याप्त दुख की उस अनुभूति से तुलनीय है जिसने उन्हें गौतम बुद्ध बना दिया था । इसके विपरीत जीवन के ऊँचे मूल्यों को लेकर चलने वाले और 'सादा जीवन उच्च विचार' में आस्था रखने वाले 'मोहल्ला अस्सी' के धर्मनाथ पांडेय की पीड़ा पहले तो बाह्य रहती है लेकिन धीरे-धीरे समय के प्रवाह के साथ वह न केवल निजी बन जाती है वरन उसका स्वरूप भी बदल जाता है । अपने सिद्धांतों के साथ आजीवन समझौता न करने वाले और मूल्यों के हनन तथा भोगवादी प्रवृत्तियों के विरूद्ध दूसरों से झगड़ते रहने वाले पांडेयजी को जब अपने परिवार के पालन-पोषण के निमित्त उनसे समझौता करना पड़ता है तो उससे जो कष्ट उभरता है, वह पूर्णतः उनका अपना है जिसमें उनकी उनके जैसी ही धर्मप्राण पत्नी के अतिरिक्त कोई साझेदार नहीं है । परिवार की निर्धनता एवं अभावों को लेकर उन्हें निरंतर ताने देती रहने वाली उनकी अर्द्धांगिनी भी नहीं चाहती कि सदा अपने सिद्धांतों के साथ जीने वाले पांडेयजी अब उन्हीं सिद्धांतों से समझौता करें लेकिन जीवन की कटु वास्तविकता ने पांडेयजी को यह अनुभव करवा दिया है कि संसार की भौतिक भागमभाग में वे बहुत पिछड़ चुके हैं और जो समझौता वे विवश होकर कर रहे हैं, वस्तुतः उसके लिए भी पहले ही बहुत विलम्ब हो चुका है । उनके द्वारा अपनी पत्नी से कही गई यह बात किसी भी आदर्शवादी हृदय को चीर  सकती है – रोटी का चक्कर जब कुचलता है तो सबसे पहले मूल्य-सिद्धांत ही कुचले जाते हैं सावित्री; ग़रीबी सब कुछ रौंद देती है  

'आर्टिकल 15' तथा 'मोहल्ला अस्सी' के विवेकशील दिग्दर्शकों ने नायकों के साथ-साथ  अन्य पात्रों को भी कथा-प्रवाह में यथोचित स्थान दिया है और उनके माध्यम से ठोस तथ्यों पर आधारित सच्चाइयों के साथ-साथ उनसे प्रभावित होने वाली मानसिकताओं को भी पूरी ईमानदारी से दर्शाया है । इस संदर्भ में वे वास्तविक जीवन के चरित्रों (जिनमें भारत के राजनेता तथा राजनीतिक दल सम्मिलित हैं) पर घेरा डालने से कतराए नहीं हैं और निर्भय होकर कथा के पात्रों के माध्यम से उन पर छींटाकशी की है  'आर्टिकल 15' में दलों के चुनाव-चिह्नों का उल्लेख करके उन्हें लक्ष्य बनाया गया है जबकि 'मोहल्ला अस्सी' में तो नेताओं के साफ़-साफ़ नाम लिए गए हैं  'आर्टिकल 15' की कहानी में एक विद्रोही दलित युवक तथा उसकी दलित वर्ग से ही संबंधित प्रेयसी भी है । यह पात्र तथा उसका दल निश्चय ही उत्तर प्रदेश के एक वास्तविक युवा दलित नेता एवं उनके दल से प्रेरित है । इन पात्रों के अतिरिक्त नायक के विभाग के अन्य पुलिसकर्मियों के पात्र, उसके घर में काम करने वाली कम आयु की कन्या का पात्र (जो कि एक पुलिसकर्मी की ही बहिन है), जातिवादी सोच वाले शोषक ठेकेदार का पात्र, शव-परीक्षण (पोस्टमार्टम) करने वाली चिकित्सिका का पात्रनायक की महिला-मित्र का पात्र (जिससे वह फ़ोन पर अपने अनुभव बांटता रहता है और विचार-विमर्श करता रहता है), नायक के बालपन के मित्र का पात्र, अफ़सरशाही वाली सोच रखने वाले सीबीआई के उच्चाधिकारी का पात्र आदि सभी कथा में अपनी पहचान बनाए रखते हैं तथा जितना भी समय (स्क्रीन टाइम) उन्हें मिलता हैदर्शकों के मन पर अपनी (अच्छी या बुरी) छाप छोड़ते हैं 'मोहल्ला अस्सी' में पांडेयजी के साथ-साथ उनकी धर्मपत्नी, उसकी सखी (जो कि एक नाविक की पत्नी है), विभिन्न प्रकार की दलालियां करके धनोपार्जन करने वाला तथाकथित गाइड, विदेशी पर्यटक स्त्री से विवाह करके कालांतर में योगाचार्य बन बैठने वाला नाई, पांडेयजी के मोहल्ले के अन्य ब्राह्मण जो कि अस्सी घाट पर बैठकर यजमानों के माध्यम से जीविकोपार्जन करते हैं, मांसाहार करके असत्य वोलने वाले ब्राह्मण गली के किराएदार युवक, सब्ज़ी की दुकान करने वाला मुसलमान, पर्यटक विदेशी महिलाएं, काशी के भविष्य की व्याख्या करने वाले महात्माजी, संस्कृत विद्यालय के व्यवस्थापक, पांडेयजी की बड़ी हो रही पुत्री और सबसे बढ़कर विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से जुड़े वे लोग जो 'पप्पू की दुकान' के नाम से जानी जाने वाली एक चाय की दुकान पर चाय सुड़कते हुए हँसी-ठट्ठे के बीच सामाजिक-राजनीतिक बहस करते हैं; सभी कथानक में महत्वपूर्ण हैं । इस प्रकार ये दोनों ही फ़िल्में अपनी-अपनी बात का अधिकांश भाग अपने-अपने पात्रों और उनके संवादों के माध्यम से कहती हैं  दोनों ही फ़िल्मों के संवाद अत्यंत प्रभावशाली हैं और सीधे मर्म पर प्रहार करते हैं 

'आर्टिकल 15' की समीक्षा करते हुए एक समीक्षक महोदय ने फ़िल्मकार से प्रश्न किया है कि क्या होता यदि फ़िल्म का नायक ब्राह्मण न होकर दलित वर्ग (एस सी) से ही संबंधित होता प्रश्न उचित है जिसका उत्तर मेरे पास तो निश्चय ही है । संविधान-प्रदत्त आरक्षण की सुविधा से उच्च राजकीय पदों पर पहुँचने वाले ऐसे दलित वर्ग के अधिकारी विरले ही हैं जिन्होंने अपने वर्ग के निम्नतम स्तर पर नारकीय जीवन जी रहे लोगों की दशा सुधारने के लिए, उन पर होने वाले अत्याचारों को रोकने तथा उत्पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए अथवा उन्हें मानव-जीवन की मूलभूत सुविधाओं से युक्त सम्मानपूर्ण जीवन जीने में सक्षम बनाने हेतु कुछ सार्थक कार्य किया है । ऐसे अधिकांश महानुभावों ने अपनी ऊर्जा अपने निज-हित की रक्षार्थ जातिगत आरक्षण को चिरस्थायी बनाने तथा उससे अधिकाधिक लाभ उठाने में ही व्यय की है अन्यथा मैला ढोने की घृणित प्रथा इक्कीसवीं सदी तक नहीं चलती रहती  पददलित वर्ग की वास्तविक समस्याओं एवं उन पर हो रहे अत्याचारों को देखने-समझने तथा उन्हें सच्चे अर्थों में न्याय दिलाने की दिशा में कुछ किया है तो उसी सवर्ण वर्ग के सही सोच वाले लोगों ने किया है जिन्हें दलित नेता तथा उन्हीं की बोली बोलने वाले आरक्षणवादी बिना सोचे-समझे गालियां देते रहते हैं  कथा के सवर्ण नायक की ही संवेदना उत्पीड़ितों के लिए जागी अन्यथा जातियों से भी आगे उपजातियों में बंटे हमारे समाज में विशुद्ध मानवीय आधार पर तथ्यों को देखने वाले कहाँ मिलते हैं और कितने मिलते हैं ? इस नग्न सत्य को कथानायक अपने थाने के अधीनस्थों के साथ होने वाली बातचीत में ही देख लेता है  'आर्टिकल 15' की वास्तविक आलोचना इस आधार पर की जा सकती है कि नायक को अंततः विजयी बनाने के लिए लेखकीय तथा सिनेमाई छूटें ली गई हैं जो वास्तविकता में संभव नहीं होतीं (अन्यथा बदायूँ कांड में मारी गई निर्दोष बालिकाओं एवं उनके दुखी परिवारों को भी न्याय मिल गया होता)  मैले से भरे गड्ढे में एक सफ़ाई कर्मचारी का बिना किसी रक्षक-उपकरण (प्रोटेक्टिव गियर) को धारण किए आपादमस्तक उतरने का दृश्य हृदयवेधक तो है किंतु व्यावहारिक नहीं लगता  संभवतः फ़िल्म को अधिक प्रभावशाली बनाने के अतिरिक्त प्रयास में ही दिग्दर्शक अनुभव सिन्हा उसे महानता की देहरी तक ही ले जा सके, उसकी परिधि में प्रवेश नहीं दिला सके 

'मोहल्ला अस्सी' की विभिन्न समीक्षकों ने तीखी आलोचना की है तथा कहा है कि किसी पुस्तक के आधार पर ऐसी फ़िल्म नहीं बननी चाहिए जिसे देखने से पहले (अर्थात् समझने के लिए) उस पुस्तक को पढ़ना आवश्यक हो क्योंकि सिनेमा अपने आप में एक स्वतंत्र माध्यम है । मैं इस तर्क को स्वीकार करता हूँ क्योंकि मैंने स्वयं काशीनाथजी की कृति 'काशी का अस्सीपढ़ी है और फ़िल्म देखने से पहले ही पढ़ी है । इसी कारण मैं समझ सकता हूँ कि पुस्तक को पढ़ने वाले उस पर आधारित इस फ़िल्म को बेहतर समझ सकते हैं और इसका बेहतर आनंद उठा सकते हैं  लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जिन्होंने पुस्तक नहीं पढ़ी, उनके लिए यह फ़िल्म बेकार है । फ़िल्म मनोरंजक है और कथावाचक (एवं कथानायक) के दृष्टिकोण से प्रेरक भी । फिर भी यदि इसको देखकर किसी कमी का आभास होता है तो वह इस कारण है कि काशीनाथजी की कृति का विन्यास ही ऐसा है कि उस पर उचित लंबाई की फ़ीचर फ़िल्म ठीक तरह से बनाना कोई सरल कार्य नहीं । उसमें भारत में राजनीतिक तथा सामाजिक विक्षुब्धता एवं अस्थिरता से ओतप्रोत एक दशक के काशी के समाज (विशेषतः ब्राह्मण समाज) पर पड़े प्रभावों का विवरण विभिन्न अध्यायों के माध्यम से किसी रेखाचित्र की मानिंद किया गया है, कथा की मानिंद नहीं । इसीलिए चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा उस पर (मुख्यतः उसके एक अध्याय पर) पूरी लंबाई की फ़िल्म बनाने का निर्णय जोखिमपूर्ण ही था । जब पुस्तक की सामग्री ही बिखरी-बिखरी थी तो उस बिखराव का फ़िल्म में भी आ जाना स्वाभाविक ही था चाहे द्विवेदीजी ने फ़िल्म के लिए पटकथा कितनी भी सावधानी से लिखी हो । लेकिन बिखराव के बावजूद फ़िल्म अच्छी बन पड़ी है एवं इसकी कटु आलोचना अंग्रेज़ी के समीक्षकों ने इसलिए की है क्योंकि वे हिंदी फ़िल्में ही देखते हैं, हिंदी पुस्तकें नहीं पढ़ते; इसी कारण वे इसकी गुणवत्ता को ठीक से देख-समझ-पहचान नहीं सके  

'मोहल्ला अस्सी' की आलोचना अपशब्दों के प्रयोग के कारण भी की गई है जिसके कारण इसे महिलाओं के न देखने योग्य पाया गया है । चूंकि चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने पुस्तक की आत्मा को यथावत् रखते हुए ईमानदारी से फ़िल्म बनाई, इसलिए पुस्तक में प्रयुक्त अपशब्द समझे जाने वाले शब्दों को भी उन्होंने संवादों में स्थान दिया । मैं स्वयं फ़िल्मों में (तथा पुस्तकों में भी) अभद्र शब्दों के प्रयोग को वर्जनीय मानता हूँ तथा अनुभव सिन्हा की इस बात के लिए प्रशंसा करता हूँ कि कथानक के परिवेश को देखते हुए (पुलिसिया ज़ुबान वाले) अपशब्दों की गुंजाइश होने के बावजूद उन्होंने 'आर्टिकल 15' के संवादों को अपशब्दों से मुक्त रखा लेकिन द्विवेदीजी चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि यदि वे ऐसा करते तो फ़िल्म में पुस्तक की सामग्री ही रहती, उसकी आत्मा नहीं  यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देता हूँ कि फ़िल्म में माताओं-बहिनों को अपमानित करने वाले सर्वथा त्याज्य अपशब्द नहीं हैं बल्कि वे अपशब्द हैं जो काशी की लोकभाषा में अंग्रेज़ी भाषा के व्याकरण में अंतर्निहित सहायक क्रियाओं की भाँति उपयोग में लाए जाते हैं एवं जो जितना अधिक आत्मीय होता है, उस पर उतनी ही अधिक आवृत्ति में ये अपशब्द न्यौछावर किए जाते हैं  पुस्तक की ही भाँति फ़िल्म में भी दो ही अपशब्दों का प्रयोग किया गया है जिनमें से बात-बात पर और लगभग प्रत्येक वाक्य में लगाया जाने वाला (स्त्रियों द्वारा भी) अपशब्द तो एक ही है । शालीन दर्शक वर्ग यदि इस तथ्य को परिवेश की प्रामाणिकता के लिए आवश्यक मानकर सह ले तो यह फ़िल्म निश्चय ही उसे भी प्रशंसनीय ही लगेगी । जिन लोगों को भारतीय राजनीति तथा तत्कालीन (१९८८ से १९९८ की अवधि वाले) कालखंड में हुए सामाजिक-राजनीतिक उच्चावचनों तथा उनके जनमानस पर प्रभाव में रुचि है, उन्हें तो यह फ़िल्म पसंद न आने का कोई कारण ही नहीं है । सम्भवतः इन अपशब्दों के कारण ही इस फ़िल्म को विवेक से कोरे भारतीय फ़िल्म सेंसर बोर्ड ने वर्षों तक अटकाए रखा और इसमें अनावश्यक काट-छांट भी की जिसने फ़िल्म के प्रभाव को भी घटाया और इसके व्यावसायिक रूप से सफल होने की संभावना को तो ग्रहण ही लगा दिया  

इन दोनों ही फ़िल्मों में कला-निर्देशकों तथा छायाकारों ने अत्यंत प्रशंसनीय कार्य किया है और कथानकों के परिवेश को हू-ब-हू चित्रपट पर उतार दिया है । दोनों में ही गीत-संगीत की अधिक गुंजाइश नहीं थी लेकिन संगीत-निर्देशकों ने अच्छा संगीत दिया है 'आर्टिकल 15' का सबसे असरदार नग़मा इसके आरंभ में ही आने वाला लोकगीतनुमा गाना 'कहब को लग जाई धक से' है जिसके बोलों से फ़िल्म की रूह झाँकती है और जिसे फ़िल्म में एक अहम किरदार निभाने वाली सयानी गुप्ता ने ही गाया है  लेकिन अनुभव सिन्हा (और फ़िल्म के संपादक) अगर केवल यह एक ही गाना फ़िल्म में रखते तो बेहतर होता  दोनों ही फ़िल्मों में पार्श्व संगीत भी अच्छा है और अभिनय पक्ष तो अत्यंत सराहनीय है । कुछ समय पूर्व तक इक्कीसवीं सदी के अमोल पालेकर कहे जा रहे आयुष्मान खुराना के अभिनय की सीमाएं लगातार फैलती जा रही हैं और 'आर्टिकल 15' में वे सचमुच के नायक बनकर उभरे हैं जो कहीं से भी फ़िल्मी नहीं लगता । छोटी-सी भूमिका में मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब भी दिल को छू जाते हैं । और बाकी कलाकारों के लिए इतना ही कहना पर्याप्त है कि उनमें मानो होड़ लगी थी कि कौन सबसे अच्छा अभिनय करता है   'मोहल्ला अस्सी' में सर्वश्रेष्ठ अभिनय निश्चय ही पांडेयजी की धर्मपत्नी सावित्री के रूप में साक्षी तंवर ने किया है । उनके बाद सबसे प्रभावशाली एक चतुर गाइड और दलाल के रूप में रवि किशन रहे हैं । सहायक भूमिकाओं में अन्य सभी कलाकारों ने कम समय मिलने पर भी कमाल कर दिखाया है और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया है । सन्नी देओल को समीक्षकों ने विद्वान और कट्टर धार्मिक पंडित धर्मनाथ पांडेय की भूमिका के लिए अनुपयुक्त (मिस्कास्ट) बताया है लेकिन जहाँ तक मेरी राय है, वे केवल अपशब्दों का उच्चारण करते हुए ही अस्वाभाविक लगते हैं और ऐसा आभास होता है जैसे वे मन  मारकर विवशता में उन्हें अपने मुख से निकाल रहे हों । लेकिन इसके अतिरिक्त वे अपनी भूमिका में उपयुक्त ही लगते हैं और फ़िल्म के पहले भाग में पांडेयजी की अतिरेकपूर्ण धार्मिकता (या धर्मांधता) को तथा दूसरे भाग में उनकी निर्धनता-जनित विवशता और उससे उपजी आंतरिक पीड़ा को उन्होंने अत्यंत स्वाभाविकता से प्रदर्शित किया है  

दोनों ही फ़िल्में हिंदू चतुर्वर्णीय व्यवस्था में भी प्रत्येक वर्ण (या जाति) में विद्यमान ऊँचे-नीचे के विभाजन को सामने रखती हैं  'आर्टिकल 15' में जहाँ नायक को उसका सहायक बताता है कि उसकी सरयूपारीण जाति ब्राह्मण वर्ग में कान्यकुब्ज जाति से नीचे ही है, वहीं 'मोहल्ला अस्सी' में पांडेयजी को चतुर दलाल कन्नी उनके मुँह पर ही कह देता है कि उसका शांडिल्य गोत्र पांडेयजी के गोत्र से ऊँचा है (अतः वे धर्म के मामले को लेकर उससे बहस न करें)  और सौ बातों की एक बात - दोनों ही फ़िल्में अंत में अपने-अपने नायकों के हश्र द्वारा यह पत्थर जैसी चोट करने वाली हक़ीक़त दर्शकों के सामने रख देती हैं कि घाटे में वही रहेगा और तक़लीफ़ वही उठाएगा जो अपने अंतर की सुनेगा, अपने और अपने आदर्शों-सिद्धांतों के प्रति ईमानदार रहेगा । उसी के मन में तो पीड़ा उठेगी जिसकी अंतरात्मा अस्तित्व में होगी । जो अपनी अंतरात्मा को पहले ही गहरी नींद सुला चुके हों, उन्हें निजी भौतिक लाभ हेतु कुछ भी कर गुज़रने में कैसी हिचक होगी और कहाँ दर्द  होगा फिर भी हम चाहें तो 'आर्टिकल 15' में  विद्रोही  दलित नेता द्वारा  हत्यारों के हाथों प्राण गंवाने से पहले कही गई  इस अंतिम बात को स्मरण करके भविष्य के प्रति आशान्वित हो सकते हैं - 'हम आख़िरी थोड़े ही न थे 

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3 टिप्‍पणियां:

  1. दोनों फिल्मों की लाजवाब और चिंतनपरक समीक्षा।

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  2. मूल प्रकाशित लेख (आठ अगस्त, दो हज़ार उन्नीस को) पर दुर्गा प्रसाद दास जी की प्रतिक्रिया :

    Durga Prasad DashAugust 11, 2019 at 7:43 PM
    I have seen Mohalla Assi. While Hindu Priest bashing is common in Hindi movies, Mohalla Assi is an exception. While it has shown the degradation of places like Kashi due to commercial exdploitation, it has also shown the real financial plight of pujaris.

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    जितेन्द्र माथुरAugust 11, 2019 at 8:57 PM
    Right you are Durga Prasad Ji. Hearty thanks for the visit. It appears, you have not seen Article 15. Please do try to watch it. It's a highly impressive and relevant movie.

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