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बुधवार, 28 जुलाई 2021

सुर बिन तान नहीं, गुरु बिन ज्ञान नहीं

तीन दिवस पूर्व चौबीस जुलाई को इस वर्ष की गुरु पूर्णिमा आकर गई। भारतीय परंपरा में  न केवल गुरु को माता-पिता के समकक्ष माना गया है वरन उसे देवों से कम नहीं समझा गया है । बृहदारण्यक उपनिषद में श्लोक है :

                                              गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः

                                              गुरुः साक्षात्‌ परंब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥ 

प्राचीन भारत में विद्यमान बड़े पवित्र गुरु-शिष्य संबंधों के विषय में हमें उपलब्ध ग्रंथों एवं प्रचलित व बहुश्रुत कथाओं के माध्यम से जानने को मिलता है । यह वह युग था जब शिष्य अपने घर-परिवार से दूर गुरुकुल में गुरु के साथ ही रहते हुए गुरु तथा गुरुपत्नी की सेवा करते हुए शिक्षा एवं संस्कार दोनों ही प्राप्त करता था । गुरु का उद्देश्य केवल औपचारिक शिक्षा देना ही नहींआदर्श नागरिकों के रूप में आदर्श समाज की नींव रखना भी होता था । न गुरु धन-लोभी होता था शिष्य मात्र नौकरी का आकांक्षी ।

अब न वे गुरु रहे, न वे शिष्य और न वह युग । ज़माना बदल गया है । अब गुरु का स्थान वेतनभोगी अथवा ट्यूशन (अथवा कोचिंग कक्षाओं) से कमाने वाले अध्यापक ले चुके हैं  एवं शिष्य नौकरी के लिए आवश्यक अर्हता पाने के लिए जो ज्ञान चाहिए, उसे अध्यापक को (अथवा संबंधित संस्थान को) शुल्क देकर प्राप्त करते हैं । संस्कार व चरित्र पुस्तकीय बातें बनकर रह गए हैं जिनकी आवश्यकता किसी को नहीं है - न पढ़ने वालों को,  पढ़ाने वालों को, न शिष्यों के परिजनों को, न समाज को, न सरकार को । 

तिस पर भी अच्छे तथा निष्ठावान शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों का आदर-मान प्राप्त होता ही है । मैं श्री सुरेन्द्र कुमार मिश्र को सदैव स्मरण रखता हूँ जिन्होंने मुझे अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान दिया तथा इस प्रतिस्पर्द्धी संसार के योग्य बनाया । मैं पंडित नारदानंद जी को भी सदा अपनी स्मृतियों में रखता हूँ जिन्होंने मुझे संगीत के संसार से सदा के लिए संयुक्त कर दिया । आज ये महान व्यक्ति दिवंगत हो चुके हैं लेकिन मेरे तथा मेरे जैसे अनेक शिष्यों के हृदय में वे सदैव ज्योति बनकर जलते रहेंगे, उन्हें प्रकाशित करते रहेंगे । मेरी धर्मपत्नी सरकारी नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने से पूर्व सतरह वर्षों से अधिक समय तक (ग्रामीण क्षेत्र में) शिक्षिका रहीं तथा अपने निष्ठापूर्ण अध्यापन का फल उन्हें अनेक बालक-बालिकाओं तथा उनके अभिभावकों से जीवन भर के सम्मान  के रूप में मिला है । 

हिंदी फ़िल्मों ने गुरु-शिष्य संबंध की महत्ता को भलीभांति पहचाना तथा इस विषय पर बहुत-सी फ़िल्में बॉलीवुड में बनाई गईं विशेषतः स्वातंत्र्योत्तर सिनेमा में । मैं जागृति (१९५४), परिचय (१९७२), पायल की झंकार (१९८०) तथा तारे ज़मीन पर (२००७) को महान फ़िल्मों की श्रेणी में रखता हूँ । इनमें से 'परिचय' एक खंडित परिवार के बालकों को बिना शारीरिक दंड के अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाले अल्पकालिक शिक्षक की प्रेरक गाथा है जो दर्शक को एक अच्छी अनुभूति देकर समाप्त होती है । श्वेत-श्याम फ़िल्म 'जागृति' तथा इक्कीसवीं सदी की फ़िल्म 'तारे ज़मीन पर' ऐसी मार्मिक फ़िल्में रही हैं जिन्होंने मुझे अश्रु बहाने पर विवश कर दिया ।  

पायल की झंकार (१९८०) सबसे अलग पहचान रखती है क्योंकि यह वास्तव में ही हमारे देश की महान गुरु-शिष्य परंपरा को आधुनिक युग में प्रस्तुत करती है । इसमें आदर्शवादी नृत्य-गुरु भी हैं तो आदर्शवादी, सेवाभावी, संवेदनशील तथा नृत्य-कला के प्रति समर्पित शिष्या भी । शिष्या जो एक नन्ही बालिका ही है, वयोवृद्ध गुरु के घर में उनके परिवार की एक सदस्या ही बनकर रहती है तथा उनसे नृत्य कला का ज्ञान प्राप्त करती है । मुझे यह फ़िल्म इतनी पसंद आई कि मैंने इसकी समीक्षा हिंदी तथा अंग्रेज़ी, दोनों ही भाषाओं में लिखी । 

गुरु-शिष्य संबंधों के विविध आयाम - नर्तकी (१९६३), बूंद जो बन गई मोती (१९६७)आँसू बन गए फूल (१९६९), अंजान राहें (१९७४), इम्तिहान (१९७४), बुलंदी (१९८१), हिप हिप हुर्रे (१९८४), सर (१९९३), सुर (२००२), से सलाम इंडिया (२००७)गुड बॉय बैड बॉय (२००७)आरक्षण (२०११) आदि हिंदी फ़िल्मों में देखने को मिले । इनमें से कुछ फ़िल्में औसत गुणवत्ता की रहीं तो कुछ अपनी विषय-वस्तु के साथ ठीक से न्याय नहीं कर पाईं । फिर भी एक तवायफ़ का जीवन संवारने वाले शिक्षक की कथा - 'नर्तकी', स्वर्गीय वी. शांताराम द्वारा प्रस्तुत एक आदर्शवादी शिक्षक की कथा - 'बूंद जो बन गई मोती', भटके विद्यार्थी को मार्गदर्शन देकर स्वयं ही पथभ्रष्ट हो जाने वाले शिक्षक की कथा - 'आँसू बन गए फूल' तथा अनुशासनहीन विद्यार्थियों को अनुशासित होकर जीतना सिखाने वाले खेल-शिक्षक की कथा - 'हिप हिप हुर्रे' निश्चय ही अच्छी फ़िल्में मानी जा सकती हैं । अपेक्षाकृत नवीन फ़िल्म (२०१८ में प्रदर्शित)  'हिचकीभी गुरु-शिष्य संबंधों पर अपने समग्र रूप में एक अच्छी फ़िल्म कही जा सकती है । 

'अंजान राहें' युवा होते विद्यार्थियों की अनकही समस्या जैसे एक अछूते विषय पर बनाई गई फ़िल्म थी जिसे उस ज़माने में हटकर माना जा सकता था लेकिन अच्छे विषय के बावजूद वह फ़िल्म एक बेहतर फ़िल्म बनते-बनते रह गई । 'हिप हिप हुर्रे' जैसी अच्छी फ़िल्म बनाकर अपना निर्देशकीय करियर आरंभ करने वाले प्रकाश झा 'आरक्षण' बनाते समय अपनी ही राजनीतिक उलझन के मकड़जाल में फँसकर फ़िल्म का कबाड़ा कर बैठे । 'सुर' का विषय अलग हटकर था जिसमें शिक्षक (या गुरु कह लें) कोई आदर्शवादी व्यक्ति न होकर इक्कीसवीं सदी का दुनियादार आदमी था जबकि शिष्या गुरु से अधिक प्रतिभाशाली होने के साथ-साथ आदर्शवादी एवं गुरु पर श्रद्धा रखने वाली थी; पर निर्देशिका तनूजा चंद्रा संभवतः स्वयं ही इस जटिल विषय को ठीक से समझ नहीं सकीं और दर्शकों के समक्ष उन्होंने एक अधकचरी फ़िल्म परोस दी । 

'इम्तिहान' स्वर्गीय विनोद खन्ना अभिनीत एक ऐसी फ़िल्म है जो फ़ॉर्मूलाबद्ध होकर भी प्रभावित करती है । इसका कालजयी गीत 'रुक जाना नहीं तू कहीं हार के' विगत कई दशकों से इस लेख के लेखक सहित असंख्य दर्शकों एवं श्रोताओं को प्रेरणा देता आ रहा है तथा आगे भी देता रहेगा । 

अंत में 'पायल की झंकार' की बात पुनः करना चाहूंगा । 'पायल की झंकार' की कहानी की भांति ही इसका संगीत भी अत्यंत मधुर एवं हृदय-विजयी है । इसका एक गीत है 'सुर बिन तान नहीं, गुरु बिन ज्ञान नहीं' । और सच ही है । परीक्षा देने के लिए औपचारिक शिक्षा तो किसी भी तरह पाई जा सकती है लेकिन ज्ञान तो गुरु से ही मिलता है । सौभाग्यशाली है वह शिष्य जिसे सच्चा गुरु मिले । और आज के युग में वह सच्चा गुरु भी सौभाग्यशाली ही कहा जाएगा जिसे सच्चा एवं समर्पित शिष्य मिल जाए । 

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शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है . . .

प्रति वर्ष नौ जुलाई को स्वर्गीय गुरु दत्त का जन्मदिन पड़ता है । केवल उनतालीस वर्ष की आयु में उन्होंने मौत को ज़िन्दगी से बेहतर पाया और उसी की गोद में सो गए क्योंकि और कोई गोद उन्हें नसीब ही नहीं हुई । वे उस शायर की तरह थे जिसके लिए कहा गया है कि - वो लिखता है ज़ीस्त की हद तक, मरने पर वो शायर होगा । उनके द्वारा बनाई गई अमर कृति 'प्यासा' (१९५७) के नायक की ही तरह उनके चाहने वाले भी उनकी ज़िन्दगी में कम थे लेकिन जिनकी तादाद उनकी मौत के बाद लगातार बढ़ती ही चली गई ।
तेरह वर्ष पूर्व उनके जन्मदिवस के अवसर पर 'दैनिक भास्कर' समाचार-पत्र के 'नवरंग' नामक साप्ताहिक परिशिष्ट में श्री गीत चतुर्वेदी ने उनके ऊपर 'ग़म की बारिश, नम-सी बारिश' शीर्षक से एक दिल को चीर देने वाला लेख लिखा था । मैंने उन्हीं दिनों अपनी नौकरी बदली थी तथा राजस्थान के रावतभाटा नामक स्थान से निकलकर दिल्ली जा रहा था । रावतभाटा में मैंने चतुर्वेदी जी के लेख को अख़बार में पढ़ा और मेरी हालत यह हुई कि बस आँखें ही ख़ुश्क थीं क्योंकि मैं अपने आँसू किसी को दिखा नहीं सकता था, दिल भीतर-ही-भीतर रो पड़ा था । ग्यारह जुलाई दो हज़ार सात को जब मैंने अपने परिवार के साथ रावतभाटा को छोड़ा तो अख़बार के उस पन्ने को मैं अपने साथ ही ले गया जिस पर वो लेख छपा था । हफ़्ते भर बाद ही अपनी नई नौकरी में मेरा उत्तर प्रदेश के डाला नामक स्थान पर दौरे पर जाना हुआ । मैं अट्ठारह जुलाई को हवाई जहाज़ से वाराणसी पहुँचा और उसके उपरांत लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी सड़क मार्ग से तय करके डाला (सीमेंट फ़ैक्टरी) पहुँचा जहाँ के मेहमानख़ाने में मुझे ठहराया गया । मैं अख़बार का वो पन्ना अपने सामान में रखकर साथ ले आया था जिस पर चतुर्वेदी जी का लेख 'ग़म की बारिश, नम-सी बारिश' छपा था । तीन दिन तक यानी बीस जुलाई तक मैं डाला में रहा और हर रात अपने आरामदेय कमरे के एकांत में उस लेख को बार-बार पढ़ता रहा । मौसम भी बारिश का ही था और हाल यही था कि बाहर आसमान से बारिश होती रहती थी और अंदर (उस लेख को पढ़ते हुए) मेरी आँखों से । 

लेकिन इक्कीस जुलाई को जब मैं डाला से प्रस्थान करके चुनार नामक स्थान पर स्थित अपनी नियोक्ता कंपनी के दूसरे संस्थान (सीमेंट फ़ैक्टरी) चला गया तो अख़बार का वो पन्ना डाला के मेहमानख़ाने के अपने कमरे में ही (शायद तकिये के नीचे) भूल गया । मैं डाला वापस नहीं लौट सका और तीसरे दिन अपना दौरा पूरा करके चुनार से ही दिल्ली चला गया । तक़रीबन दो महीने बाद मैं डाला के दौरे पर पुनः गया तो सही लेकिन अब अख़बार का वह पन्ना मुझे कहाँ मिलता ? बस वो लेख और ख़ासतौर पर उसका उनवान 'ग़म की बारिश, नम-सी बारिश' मेरे दिल में किसी फाँस की तरह धंसा रह गया । तेरह साल बाद पिछले दिनों मैंने यूँ ही इंटरनेट पर गूगल सर्च में टटोला तो मुझे वह लेख गीत चतुर्वेदी जी के 'वैतागवाड़ी' नामक ब्लॉग पर मिल गया । और तेरह साल बाद उसे फिर से पढ़कर मेरी आँखों से अश्क उसी तरह टपके जिस तरह तेरह साल पहले टपके थे ।
गुरु दत्त पर मैंने तब से पढ़ना और उन्हें तब से समझना शुरु किया था जब मैं एक नादान बच्चा ही था । मेरे बचपन के दिनों की ही बात है जब फ़िल्मी पत्रिका 'माधुरी' में मैंने गुरु दत्त की माँ वासंती पादुकोण का लिखा हुआ लेख पढ़ा था - 'गुरु दत्त - मेरा बेटा' और इस बात को जाना था कि उनकी माँ ही उन्हें सबसे ज़्यादा समझती थी - वो माँ जिसकी गोद उसके बेटे को मरते वक़्त नसीब नहीं हुई और वो माँ जो बेटे की अकाल मौत के बाद तीस साल तक उसके जाने के ग़म के साथ ज़िन्दा रही (ठीक शहीद भगत सिंह की माँ की तरह)।

जब मैंने गुरु दत्त की अमर कृति 'कागज़ के फूल' की समीक्षा लिखी थी तो उस पर मेरे ब्लॉगर मित्र निशांत सिंह (sydbarett) ने टिप्पणी की थी कि दुनिया जीनियस को इसलिए दंडित करती है क्योंकि वो उसकी समझ से परे होता है । और शायद यही एक जीनियस की दुखदायी विडम्बना है कि वो दुनिया के और दुनियादारी के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता, दूसरी ओर दुनियादारी में डूबी दुनिया न उसे समझ पाती है और न ही उसकी प्रतिभा के साथ न्याय कर पाती है । जीनियस अकेला होता है । लेकिन ... लेकिन होता तो इंसान ही है न ? उसे भी तो कोई समझने वाला चाहिए, कोई प्यार करने वाला चाहिए । और न मिले तो ? यही जीनियस गुरु दत्त की ट्रेजेडी थी । 

जिस दिन मैंने 'वैतागवाड़ी' ब्लॉग पर 'ग़म की बारिश, नम-सी बारिश' को फिर से पढ़ा, उसी दिन शाम को नीम-अंधेरे में पूरी तनहाई और ख़ामोशी के आलम में यूट्यूब पर 'प्यासा' में गुरु दत्त पर फ़िल्माई गई साहिर की ग़ज़ल 'तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िन्दगी से हम' को देखा और सुना । फिर उसी फ़िल्म में स्थित साहिर की अमर नज़्म 'ये महलों, ये तख़्तों, ये ताजों की दुनिया' को भी देखा और सुना जिसकी शुरुआत में गाना शुरु करते हुए अंधेरे में दरवाज़े पर खड़े गुरु दत्त का साया सलीब पर टंगे जीसस क्राइस्ट की तरह दिखाई देता है । दोनों ही गीतों में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ को अपने होठों पर लाते हुए गुरु दत्त के लिए ऐसा लगता है जैसे बोल उनके दिल की गहराई से निकल रहे हैं, वे लफ़्ज़ नहीं अहसास हैं जो बाहर आ रहे हैं - केवल उनके होठों पर नहीं, उनके चेहरे पर भी, उनकी आँखों में भी, सच कहा जाए तो उनके समूचे वजूद के ज़र्रे-ज़र्रे पर ।
गुरु दत्त ने स्वयं एक लेख लिखा था - 'क्लासिक्स एंड कैश' जिसमें उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि इन दोनों शब्दों में समानता केवल इतनी ही है कि ये दोनों ही अंग्रेज़ी के अक्षर 'सी' से आरंभ होते हैं । अन्यथा जो रचना क्लासिक अर्थात् श्रेष्ठ है, उसे व्यावसायिक सफलता मिलना आवश्यक नहीं तथा जो रचना व्यावसायिक रूप से सफल है, उसका श्रेष्ठता के मानदंडों पर खरा उतरना आवश्यक नहीं । बाज़ार तथा धनार्जन का अपना दर्शन होता है । मामूली चीज़ें बहुत-सा पैसा कमा सकती हैं जबकि बेहतरीन चीज़ों को, हो सकता है कि कोई पूछने वाला ही न मिले । यह बात गुरु दत्त ने सम्भवतः 'कागज़ के फूल' (१९५९) फ़िल्म के संदर्भ में हुए अपने निजी अनुभव के आधार पर लिखी थी । लेकिन संसार सफलता को ही पूजता है, गुणों को नहीं; यह बात गुरु ने उससे भी पहले 'प्यासा' में बिना किसी लागलपेट के स्पष्टतः दर्शा दी थी । यह पाखंडी संसार गुणों का तो बस बखान ही करता है, सच तो यही है कि यहाँ जो बिकता है, वही चलता है । 

'प्यासा' के नायक विजय को आख़िर में किसी शख़्स से कोई शिकायत नहीं थी । उसे शिकायत थी समाज के उस ढाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है, मतलब के लिए अपनों को बेगाना बना देता है । उसे शिकायत थी उस तहज़ीब से जिसमें मुरदों को पूजा जाता है और ज़िंदा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है, जिसमें किसी के दुख-दर्द पर दो आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है और झुककर मिलने को कमज़ोरी समझा जाता है । ऐसे माहौल में उसे कभी शांति नहीं मिल सकती थी । कामयाबी को ही सब कुछ मानने वाले समाज में 'काग़ज़ के फूल' के नायक सुरेश सिन्हा के तजुर्बात भी कुछ ऐसे ही रहे थे । गुरु द्वारा सिरजे गए और निभाए गए ये दोनों ही किरदार शायद उसकी अपनी शख़्सियत में जज़्ब हो गए थे । 

और इसीलिए एक दिन गुरु को नाउम्मीदी हो गई अपनी ज़िंदगी से, ठीक 'प्यासा' के नायक की तरह जो कशमकश-ए-ज़िंदगी से तंग आ गया था और कह रहा था - 

तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम, ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बेदिली से हम 
हम ग़मज़दा हैं लाएं कहाँ से ख़ुशी के गीत, देंगे वही जो पाएंगे इस ज़िंदगी से हम 
लो आज हमने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उम्मीद, लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम 

गुरु को अंधेरे से प्यार था, आँसुओं से भी । आख़िर में अंधेरा और आँसू ही उसके हाथ लगे । उसने प्यार भी किया, शादी भी; लेकिन उसे हमसफ़र न मिला । अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी रात को उसने हर उस शख़्स को पुकारा जो उसके तपते दिल को कुछ राहत दे पाता, उस पर ठंडक का फाहा रख पाता । पर कोई न आया - न गीता, न वहीदा, न कोई दोस्त, न कोई हमनवा । 'प्यासा' का नायक उसके मुक़ाबले कहीं ख़ुशनसीब था जो उसे एक चाहने वाली, समझने वाली और अपनाने वाली मिली जिसके साथ वो उस मतलबी दुनिया से दूर जाने के सफ़र पर निकल गया । उस दुनिया से दूर जाने के लिए जिसके लिए उसके लबों पर यही था - 

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी; निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी 
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 

यहाँ इक खिलौना है इंसां की हस्ती, ये बस्ती है मुरदापरस्तों की बस्ती 
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 

ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है; वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है 
जहाँ प्यार की क़द्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
और आख़िर में - 

जला दो इसे, फूंक डालो ये दुनिया 
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया 
तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया 
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है 

दस अक्टूबर उन्नीस सौ चौंसठ की रात को अपनी मौत को गले लगाने से पहले शायद गुरु ने 'प्यासा' के नायक के मुँह से कहलवाए गए इन अशआर को ही याद किया, महसूस किया और इस दुनिया को ठुकरा दिया ।

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