पेज

रविवार, 16 मई 2021

मन चंगा तो कठौती में गंगा

भारत धर्मप्राण देश है । ईश्वर की उपासना लोग अपने-अपने ढंग से करते हैं । हिन्दू धर्म में जहाँ तैंतीस करोड़ देवी-देवता बताए गए हैं, वहीं निर्गुणोपासना अथवा निराकार ब्रह्म की भक्ति का मार्ग भी उपस्थित है । जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । हमारा संविधान धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है । जिसे जिस रूप में भी अपने ईश्वर की आराधना करनी हो, करे । चाहे भगवान की पूजा हो या अल्लाह की इबादत या गॉड की प्रेयर या वाहेगुरु की अरदास; प्रत्येक भारतीय अपने मन और अपनी आस्था के अनुरूप कर सकता है । भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा करता है कि वह दूसरों की आस्था का सम्मान करे । मैं एक ऐसा ही नागरिक हूँ । मेरा यह मानना है कि सच्ची धार्मिकता मनुष्यता और उससे भी बढ़कर प्राणिमात्र के प्रति संवेदनशीलता में ही निहित है । ईश्वरोपासना उसी की सार्थक है जिसके पास एक संवेदनशील हृदय है ।

मैं विगत कई वर्षों से भेल में अपनी नौकरी के चलते हैदराबाद में रहा। भेल द्वारा अपने कर्मचारियों द्वारा निर्मित टाउनशिप में ही मेरा निवास था । इस टाउनशिप के पीछे की ओर ओल्ड एम.आई.जी. नामक आवासीय क्षेत्र है जिसमें रामालयम नामक एक मंदिर है । मंदिर मूल रूप से राम-सीता-लक्ष्मण-हनुमान का है लेकिन उसके बाहरी भाग में शिवलिंग भी स्थापित है । अपने धार्मिक स्वभाव के चलते मैं यथासंभव नियमित रूप से रामालयम जाता था । जो विशिष्ट और असाधारण तथ्य मैं पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ, वह यह है कि इस हिन्दू मंदिर के ठीक बराबर में ही एक कैथोलिक गिरजाघर है और उसके ठीक बराबर में ही एक मस्जिद है । इस तरह हिन्दू, ईसाई और मुस्लिम तीन बड़े धर्मों के पूजागृह अगल-बगल में ही स्थित हैं । सुबह मंदिर में घंटियां बजती हैं और आरती की जाती है तो मस्जिद में अज़ान भी दी जाती है और गिरजाघर में प्रेयर भी सम्पन्न होती है । मंदिर में आरती संध्या को भी होती है और रविवार को प्रायः कोई-न-कोई विशेष पूजा या हवन होता है । शुक्रवार की दोपहर में निकट रहने वाले मुस्लिम भाइयों का समूह मस्जिद में नमाज के लिए एकत्र होता है । प्रत्येक रविवार की सुबह गिरजाघर में अलग-अलग भाषाओं में प्रेयर होती है जिसमें निकट रहने वाले ईसाई बंधु अपनी भाषाजनित सुविधा के अनुरूप आते हैं । जब तक मैं यहाँ रहा, मैंने कभी कोई धार्मिक विवाद या कहासुनी होते नहीं देखी । ईद के दिन नमाज के बाद मुस्लिम भाइयों को उनके ग़ैर-मुस्लिम मित्र भी ईद की मुबारकबाद यहाँ देते हैं तो ईस्टर और क्रिसमस के अवसरों पर ईसाई बंधुओं को उनके ग़ैर-ईसाई मित्रों की भी बधाइयां यहाँ मिलती हैं । हिन्दू समाज को भी विभिन्न हिन्दू त्योहारों की शुभकामनाएं मुस्लिम और ईसाई मित्रगणों से मिलती हैं । सांप्रदायिक सद्भाव का यह अनुपम उदाहरण है । यह महानता है हमारे भारत देश की जिसे देश की अधिसंख्य जनता ने सदा से हृदयंगम करके रखा है ।

लेकिन अपने वैविध्यपूर्ण अनुभवों और अपनी नैसर्गिक संवेदनशीलता के कारण मैंने जो निष्कर्ष निकाला है और जिसे मैंने अपने जीवन में उतारा है, वह यह है कि सच्चे धार्मिक व्यक्ति की धार्मिकता उसके मन में ही होती है । उसका ईश्वर उसके हृदय में ही निवास करता है । मनुष्य का निर्मल हृदय ही उसका मंदिर है, मस्जिद है, गिरजा है, गुरुद्वारा है । कस्तूरी-मृग की भाँति ईश्वर को बाह्य संसार में ढूंढने से कोई लाभ नहीं । यदि आपने सद्गुणों को अपनाया है तो वह आपके भीतर ही उपस्थित है । अतः उसे पाने के लिए कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं ।

मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन पढ़ने वाले समझ सकते हैं कि हमारे देश में ऐसे अनेक धार्मिक स्थल हैं, जहाँ भक्त की सच्ची आस्था को नहीं, धन को महत्व दिया जाता है । कुछ ऐसे हाई प्रोफ़ाइल मंदिरों में जाकर मुझे जो कटु अनुभव हुए और जो कुछ मैं कतिपय धार्मिक स्थलों की समृद्धि के विषय में और धन के व्यय के आधार पर भक्तों में विभेद करने के विषय में जान पाया हूँ, उससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ऐसे स्थलों पर जाना ही व्यर्थ है जहाँ आपकी श्रद्धा से अधिक आपकी जेब की महत्ता हो । आपका मन सच्चा है तो अपने घर में ही ईश्वर के प्रतीक के समक्ष माथा झुकाइए या अपने निकट के किसी छोटे-से पूजास्थल पर (जहाँ भीड़भाड़ और शोरगुल न होता हो) जाकर ईश्वर को अपने आसपास अनुभव कीजिए । ऐसा करना धन और समय का अपव्यय करके दूरस्थ धर्मस्थलों पर जाने से बेहतर है ।

दो दशक पूर्व जिन दिनों मैं तारापुर परमाणु बिजलीघर में  नौकरी करता थामैं सपरिवार (पत्नी और छोटी-सी पुत्री) अपने अभिन्न मित्र श्री राजेन्द्रकुमार टांक और उनके परिवार के साथ जनवरी २००१ में शिर्डी गया और उस यात्रा के उपरांत मेरे मन में साईंबाबा के प्रति कुछ आस्था उमड़ पड़ी । उस यात्रा के कुछ दिनों  के भीतर ही मेरा स्थानांतरण कोटा के निकट रावतभाटा नामक स्थान पर स्थित राजस्थान परमाणु बिजलीघर में हो गया । विकिरण के कारण वहाँ आवासीय क्षेत्र बिजलीघर से कई किलोमीटर दूर रखा गया है । एक दिन जब मैं यूँ ही स्कूटर लेकर बिजलीघर और कॉलोनी के बीच के उस क्षेत्र को टटोल रहा था तो मुझे उस पठारी क्षेत्र की ऊंची-नीची और नागिन की तरह बलखाती सड़क अकस्मात ही एक छोटे-से सफ़ेद रंग के मंदिर तक ले गई । मैंने पाया कि वह मंदिर बिजलीघर और आवासीय क्षेत्र दोनों से ही लगभग समान दूरी पर था और वह साईंबाबा का मंदिर था । मंदिर का मुख्य द्वार बंद था लेकिन निकट एक छोटा झूलता हुआ द्वार भी था जिससे मैं भीतर गया ।  मैंने देखा कि संगमरमर की बनी और पीत-वस्त्र पहनी हुई साईंबाबा की प्रतिमा एक चबूतरे पर बने छोटे-से पूजाघर के भीतर थी, प्रतिमा के सामने दिया जल रहा था लेकिन बाहर एक लोहे का जंगला था जिस पर ताला लटका हुआ था जो इस बात की ओर संकेत करता था कि वह स्थान किसी की निजी संपत्ति था । वह छोटा-सा स्थान साफ़-सुथरा था, ऊपर छत थी, पूजागृह के बाहर परिक्रमा थी और बाहर आगंतुकों के बैठने के लिए बेंचें भी थीं । चबूतरे के निकट के कच्चे क्षेत्र में एक छोटी-सी पानी की टंकी और तुलसी का पौधा भी था । निकट ही एक दूसरे चबूतरे पर एक हनुमान मंदिर भी था जिसकी उस समय की स्थिति बता रही थी कि वह अभी निर्माणाधीन था ।

मैंने वहाँ आधा-पौन घंटा बिताया और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि मुझे वहाँ असीम शांति प्राप्त हुई । अपना स्कूटर दौड़ाते हुए अणु किरण कॉलोनी में स्थित अपने क्वार्टर की ओर लौटते समय मैंने निश्चय किया कि अब मैं वहाँ नियमित रूप से आता रहूंगा । और सचमुच ही मैंने नियमित रूप से उस मंदिर में जाना आरंभ कर दिया । कभी-कभी तो मैं दिन में दो बार भी वहाँ गया (प्रातः और सायं) । जो मानसिक शांति मुझे उस छोटे-से मंदिर में सदा निःशुल्क प्राप्त हुई, वह भारीभरकम व्यय करके की गई प्रसिद्ध मंदिरों की यात्राओं से कभी प्राप्त नहीं हुई । मैंने वहाँ सपरिवार भी जाना आरंभ कर दिया । कई बार अच्छे मौसम में मैं, मेरी पत्नी और मेरी नन्ही बच्ची वहाँ पीने का पानी और थर्मस में चाय लेकर चले जाते थे और ईश्वर के चरणों में बैठकर ही एक छोटी-सी पारिवारिक पिकनिक कर लेते थे । कुछ समय के उपरांत २००३ में मेरे यहाँ पुत्र का जन्म हुआ । पुत्र के कुछ बड़ा हो चुकने के उपरांत वह भी अपने माता-पिता और बहन के साथ वहाँ जाने लगा । उसे भी वह स्थान बहुत भाया । शांति के साथ-साथ और जो वस्तुएं हमें वहाँ निःशुल्क प्राप्त होती थीं, वे थीं शीतल वायु और तन-मन को प्रफुल्ल कर देने वाला प्राकृतिक वातावरण । रात्रि के समय वहाँ जाने पर ऊपर आकाश में तारों को या चन्द्रमा को तथा नीचे रावतभाटा कस्बे की रोशनियों को देखने का आनंद भी अद्भुत था (वह मंदिर ऊंचाई पर स्थित था जबकि कस्बा नीचाई पर था) । आज भी वहाँ बिताए गए समय की मधुर स्मृतियां हमारे साथ हैं ।

मेरे लिए तो वह लगभग अनजाना-सा छोटा मंदिर ही संसार का सबसे अधिक शांतिपूर्ण स्थान सिद्ध हुआ । इसलिए धीरे-धीरे मैंने समझ लिया कि सन्मार्ग पर चलो तो ईश्वर कहीं और नहीं, अपने भीतर ही है और तनमन को शांति छोटे लेकिन भीड़भाड़ तथा शोर से रहित स्थानों पर ही मिलती है, भीड़भरे प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों पर नहीं । जहाँ मान और पहचान धन को मिले, मन को नहीं; वहाँ क्या जाना ? और ईश्वर को सच्चे अर्थों में वही समझ सकता है, जो उसके द्वारा सृजित प्राणियों को उचित मान दे; उनके जीवन, आदर-सम्मान और भावनाओं का मूल्य समझे । जो ख़ुदा के बंदों की कद्र न कर सके, वो ख़ुदा के नज़दीक कैसे जा सकता है ? जिसके मन में प्राणिमात्र के लिए करुणा हो, ममत्व हो; जिसके लिए सद्गुणों का मूल्य धन, अधिकार और वैभव से अधिक हो; जो सत्य और न्याय जैसे सनातन मूल्यों को ईश्वर का वरदान मानकर उन्हें महत्व देता हो; उसके लिए तो उसका हृदय ही सबसे बड़ा तीर्थ है क्योंकि मन चंगा तो कठौती में गंगा ।

© Copyrights reserved

46 टिप्‍पणियां:

  1. सकारात्मकता से भरा बहुत सुंदर सार्थक लेख

    जवाब देंहटाएं
  2. मन की आस्था ही धर्म के लिए ज़रूरी है । ईश्वर तो हर जगह है । सच है कि स्वयं में ही ईश्वर का वास है और हम मंदिर मस्जिद में ढूंढने के प्रयास करते हैं ।
    नामी गिरामी मंदिर यदि आप वास्तुकला के लिए देखना चाहें तो ठीक है वरना तो मन की शांति के लिए तो जहां मन राम जय वहीं मन्दिर है ।
    जैसा आपने रामालय मंदिर और उसके पास स्थित मस्जिद और चर्च का ज़िक्र किया तो बिल्कुल ऐसा ही खेतड़ी कॉपर प्रोजेक्ट में है । ये राजस्थान में स्थित है ।।हम लोग वहां 25 साल रहे । एक ही पंक्ति में क्रमशः सनातन मंदिर , जैन मंदिर , दुर्गा बाड़ी , चर्च स्थित हैं । मस्जिद थोड़ी दूर पर स्थित थी । लेकिन वहां भी कभी कोई धार्मिक विवाद होते न देखा न अभी तक सुना । ये सब धार्मिक गुरु या फिर राजनीतिज्ञ ही फैलाते हैं ।आम जनता इन सबसे दूर ही रहना चाहती है ।।
    सार्थक लेख ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने खेतड़ी स्थित विभिन्न देवस्थानों एवं धार्मिक सद्भाव के बारे में मेरा ज्ञानवर्धन किया, इसके लिए मैं विशेष रूप से आपका आभारी हूँ संगीता जी क्योंकि मैं स्वयं राजस्थानी हूँ। आपकी यह बात भी सही है कि नामी-गिरामी मंदिर अगर वास्तुकला के लिए देखना चाहें तो ठीक है वरना तो मन की शांति के लिए जहाँ मन रम जाए, वहीं मंदिर है। एक बार पुनः हृदय से धन्यवाद आपका।

      हटाएं
    2. और मैं तो हूँ ही प्रॉपर खेतड़ी की जितेंद्रजी और संगीता दीदी। मेरे पापा की जन्मस्थली है, वहीं हमारा पैतृक निवास है। गोपीनाथजी के मंदिर के पास। स्वर्गीय चाचाजी कॉपर प्रोजेक्ट में काम करते थे। पापा मुंबई आकर यहीं के हो गए। कोई खेतड़ी का नाम लेता है तो भावुक हो जाती हूँ। एक वर्ष वहाँ पढ़ी हूँ कन्या पाठशाला में।

      हटाएं
    3. ओह! जानकर अच्छा लगा मीना जी। पुरानी यादें ताज़ा होती हैं तो मन भावुक हो ही जाता है। मैं मूल रूप से राजस्थान के जयपुर ज़िले में स्थित सांभर झील (या सांभर लेक) का निवासी हूं जहां मैंने जीवन के अठारह-उन्नीस वर्ष बिताए और स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की। पिताजी वहीं स्थापित थे। मैं पैतृक निवास में उन्हीं के साथ रहा। वे सैंतीस वर्षों तक अध्यापक के रूप में सरकारी नौकरी में रहे। बीता समय लौटकर नहीं आता। बस उसकी यादें पीछे रह जाती हैं जीवन भर के लिए।

      हटाएं
  3. आपने बिल्कुल सही कहा। अगर आपका मन साफ़ है तो आप जहाँ पूजना चाहें वहीं पर ईश्वर को पा सकते हैं। बड़े मन्दिर तो अक्सर ऊँची दूकान फीके पकवान ही मुझे लगे हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय से आभार विकास जी। मुझे प्रसन्नता है कि हमारे विचार एक जैसे हैं।

      हटाएं
  4. सच्चे धार्मिक व्यक्ति की धार्मिकता उसके मन में ही होती है । उसका ईश्वर उसके हृदय में ही निवास करता है । मनुष्य का निर्मल हृदय ही उसका मंदिर है, मस्जिद है, गिरजा है, गुरुद्वारा है । कस्तूरी-मृग की भाँति ईश्वर को बाह्य संसार में ढूंढने से कोई लाभ नहीं ।

    उपर्युक्त पंक्तियाँ, आपकी विचारों को अत्यंत ही सादगी से कह गई हैं । यही तो सार्वभौमिक सत्य है।
    साधुवाद आदरणीय माथुर जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. "मेरे लिए तो वह लगभग अनजाना-सा छोटा मंदिर ही संसार का सबसे अधिक शांतिपूर्ण स्थान सिद्ध हुआ ।"
    सही कहा आपने ..जहाँ भगवान की पूजा कर के मन को सुख मिले वही सब से बड़ा तीर्थ है ।

    जवाब देंहटाएं
  6. सच्चे धार्मिक व्यक्ति की धार्मिकता उसके मन में ही होती है । उसका ईश्वर उसके हृदय में ही निवास करता है । मनुष्य का निर्मल हृदय ही उसका मंदिर है, मस्जिद है, गिरजा है, गुरुद्वारा है ।
    👆मैं आपके बात से सहमत हूँ 🙏
    मैं इश्वर में विश्वास नहीं रखती हूँ पर जो लोग रखते हैं उन्हें इसी रास्ते पर चलना चाहिए! ये एक सच्चे और अच्छे आस्तिक की निशानी है बाकी ढोगियों को तो सिर्फ सोने की मूर्ति और सोने की मंदिरों में ही भगवान नज़र आते है और वहीं पूजा करना सही समझते हैं! सबसे बड़ा धर्म तो मानवता का होता है जितनी शान्ति मददगार की मदद करके मिलती है न पूजा करके और ना ही पाठ करके! और इससे जो लोग इश्वर में विश्वास रखते हैं उनके इश्वर खुश भी होगें☝☝

    ऐसे स्थलों पर जाना ही व्यर्थ है जहाँ आपकी श्रद्धा से अधिक आपकी जेब की महत्ता हो । आपका मन सच्चा है तो अपने घर में ही ईश्वर के प्रतीक के समक्ष माथा झुकाइए या अपने निकट के किसी छोटे-से पूजास्थल पर (जहाँ भीड़भाड़ और शोरगुल न होता हो) जाकर ईश्वर को अपने आसपास अनुभव कीजिए ।
    ☝☝सत प्रतिशत सत्य☝☝
    बेहतरीन लेख सर 🙏

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं मनीषा जी। बहुत-बहुत शुक्रिया आपका।

      हटाएं
  7. आपकी लिखी कोई रचना  बुधवार , 17 मई  2021 को साझा की गई है ,
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।संगीता स्वरूप 

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृदय तल से आपका आभार व्यक्त करता हूं माननीया संगीता जी।

      हटाएं
  8. वाह!बहुत खूबसूरत आलेख । सही कहा आपने जितेंद्र जी , सच्चा ईश्ववर तो हमार हृदय में ही बसा है ।

    जवाब देंहटाएं
  9. सही कहा सर! सब हमारे दृष्टिकोण की बात है। दूर दूर के स्थलों को धर्म से जोड़ने का एक कारण उस स्थान विशेष की जलवायु और प्राकृतिक परिवेश का दर्शन कराना भी रहा होगा।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत सुंदर रचना और आपने अपने अनुभव का खूब सार निकाला है। हम भी अपने घर के मंदिर में ही सब पूजा करते हैं। बड़े होते हुए, घर के पास के मंदिर के प्रांगण में ही शांति प्राप्त होती थी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत-बहुत शुक्रिया। अपना नाम नहीं लिखा आपने। आपका परिचय मिलता तो प्रसन्नता होती।

      हटाएं
  11. सुंदर सारगर्भित आलेख,मन को सूकून मिले जहां वहीं पूजा है

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत ही नायाब लेख जितेन्द्र जी , जिसे पढ़कर लगा कि मेरे ही मन के मिलते -जुलते भाव लिख दिए हों आपने | असल में बचपन में मैंने अपने घर में बहुत ज्यादा कर्मकांडी पूजा -पाठ नहीं देखा | हम बच्चों को बहुधा सत्संग में ले जाया जाता जहाँ निर्गुण विचारधारा का प्रचार होता और मानव सेवा को ही सच्चा धर्म बताया जाता | यूँ आज मंदिर भी जाती हूँ , पूजा -उपवास भी करती हूँ , पर मुख्य रुझान इसी तरफ है अर्थात यही मानती हूँ -- मन चंगा कठौती में गंगा --- | मैं देखती हूँ , प्राय लोग मनमुग्ध हो ऐसी पूजा- पाठ को प्राथमिकता देते हैं जो उन्हें मानव और मानवता से दूर ले जाती है | पर वे अनाप - शनाप कर्म कांडों को कर पुण्य अर्जित करने में आकंठ लीन रहते हैं | देश के बहुत बड़े मंदिर तो देखने का सौभाग्य कभी नहीं मिला पर अपने मायके की कुल देवी के मदिर में जाकर, मुझे नए वैभवशाली मंदिर से कहीं ज्यादा उसकी बगल में पड़े पुराने मंदिरों के खँडहर सुकून देते हैं , जिन्हें समय ने उपेक्षित और एकाकी रख छोड़ा है | पर वहाँ के सुंदर भीति-चित्र , पुरानी मूर्तियाँ और अपेक्षाकृत अत्यंत शांत वातावरण मन को असीम आनंद और शान्ति का अनुभव कराते हैं | अब तो बहुत कम जा पाती हूँ वहां , पर बचपन में सबसे अलग चुपके से उन पुराने मंदिरों को निहारना बहुत अच्छा लगता था | आज भी कभी जाती हूँ तो उधर ज्यादा समय बिताना अच्छा लगता है | आजकल लगता है मंदिर और अन्य पूजा- स्थल मानों धन उगाही का एक साधन बन गये हों | यहाँ भी जातीय और ऊँच- नीच की भावना खूब दिखाई पड़ती है | सो सही में वही इंसान सच्चा धार्मिक हैं जिसके पास बड़ों की निस्वार्थ सेवा और छोटो के प्रति अनन्य स्नेह के संस्कार के साथ दया , करुणा और दूसरों के प्रति परोपकार की भावना है | क्योकिं आत्मा सो परमात्मा|| ईश्वर अपनी संतानों के भीतर बसता है | उनके प्रति सद्व्यवहार ही सच्चा सत्कर्म और उत्तम पूजा और ईश्वर भक्ति है |

    हार्दिक आभार इस बहुत ही अनौपचारिक और प्रभावी लेख के लिए | | |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत-बहुत आभार माननीया रेणु जी अपने विचार एवं अनुभव विस्तृत रूप से साझा करने के लिए। आपकी टिप्पणी से तो इस लेख का मूल्य बढ़ गया है।

      हटाएं
  13. बहुत अच्छा लेख है | मैं आपके शब्द शब्द से सहमत हूँ |सच कहूं आप अपनी बात बहुत ही प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत करते है | बस सदा ऐसे ही लिखते रहिये |

    जवाब देंहटाएं
  14. जो ख़ुदा के बंदों की कद्र न कर सके, वो ख़ुदा के नज़दीक कैसे जा सकता है ? जिसके मन में प्राणिमात्र के लिए करुणा हो, ममत्व हो; जिसके लिए सद्गुणों का मूल्य धन, अधिकार और वैभव से अधिक हो; जो सत्य और न्याय जैसे सनातन मूल्यों को ईश्वर का वरदान मानकर उन्हें महत्व देता हो; उसके लिए तो उसका हृदय ही सबसे बड़ा तीर्थ है क्योंकि मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
    सही कहा आपने जितेन्द्र जी!प्राणीमात्र की सेवा ही सच्ची ईश्वर भक्ति है यदि हम कुछ लोग ही इस बात को मानकर इन धर्म अनुयायियों के बड़े-बड़े मंदिरों (धन ऐंठने के अड्डों) में जाना बन्द कर दें तो इनका धन्धा चौपट हो सकता है....।
    देश में जातिवाद फैलाना इन का और राजनीतिज्ञों का ही काम है असल में मैंने भी सभी लोंगो को एक साथ मिलजुल कर एक दूसरे के रीतिरिवाजों और धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करते ही देखा है
    मन की शान्ति इन मंदिरों में कहाँ मिल पाती है जहाँ घंटों लाइन में खड़े भगवान के दर्शन के लिए जब पहुँचते हैं तो दर्शन कहाँ प्रसाद वितरण वाले को ही देखते रह जाते है....मुझे तो हमेशा ऐसी जगहों पर वापस लौटते हुए शान्ति की जगह गिल्ट होता है कि मैंने तो सचमुच मन से दर्शन किये ही नहीं मैं तो वहाँ की अन्य चीजें और व्यवस्था ही देखती रह गयी कि तभी भीड़ ने आगे धकेल दिया... ।
    आखिर मन की शान्ति मंदिर के नीचे बैठे अपंग दुखी लोगों को सामर्थ्यानुसार कुछ देकर ही मिल पाती है तो क्यों न हम यही करें....।
    बहुत ही चिन्तनपूर्ण लेख हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. विस्तृत विचाराभिव्यक्ति हेतु हृदय से आभार माननीया सुधा जी। मैं आपसे पूर्णरूपेण सहमत हूं। हम भी यही करते हैं और मन में एक प्रकार का संतोष पाते हैं।

      हटाएं
  15. आदरणीय जितेंद्रजी, आपका यह लेख बहुत पसंद आया। अक्सर देखा गया है कि हम दूर दूर की यात्रा करके तीर्थस्थानों में भगवान के दर्शन करने पहुँचते हैं और हमें वहाँ दो मिनट भी भगवान के दर्शन करने नहीं मिलते। वी आई पी लाइन और सामान्य लाइन में लगनेवाले भक्तों के साथ बड़ा पक्षपात होता है। मैंने कई तीर्थस्थानों में पुजारियों और पुलिस द्वारा भगवान के आगे ही भक्त को गर्दन से पकड़कर बाहर धकेल देते देखा है। नाशिक के त्र्यंबकेश्वर में इस बात पर मेरे पति पुलिसवाले से भिड़ गए। मैं भी आपकी तरह छोटे छोटे, शांतिपूर्ण माहौलवाले मंदिर जाना पसंद करती हूँ। सबसे ज्यादा शांति तो मुझे अपने घर के मंदिर में बालगोपाल की सेवा पूजा से ही मिलती है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मुझे भी कुछ ऐसे ही कटु अनुभव हुए थे आदरणीया मीना जी। अतः मैं आपकी भावनाओं को भलीभांति समझ सकता हूं। हृदयतल से आभार आपका।

      हटाएं
  16. सुन्दर, सात्विक भावों से परिपूर्ण बहुत सारगर्भित आलेख।
    सचमुच 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' अन्यथा भटकन तो भटकन ही है!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी बिल्कुल सही कहा आपने। हृदय की गहनता से आपका आभार व्यक्त करता हूं।

      हटाएं
  17. सकारात्मक लेख है !मन की शांति जहाँ मिले वही पवित्र तीर्थ स्थल है !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक आभार माननीया अनुपमा जी। मेरा भी यही मानना है कि जहाँ मन को शान्ति मिले, वही सच्चा तीर्थस्थल है।

      हटाएं