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मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

भारतीय कार्य-संस्कृति और व्यवस्था की कड़वी सच्चाई

जॉन अब्राहम द्वारा निर्मित तथा अभिनीत चर्चित हिन्दी फ़िल्म परमाणु को देखने का सौभाग्य मुझे तनिक विलंब से ही मिला जब इसे मेरे नियोक्ता संगठन भेल के क्लब में प्रदर्शित किया गया । फ़िल्म बहुत ही अच्छी निकली । मई १९९८ में पोखरण में किए गए परमाणु विस्फोट जिसने भारत को नाभिकीय शक्ति सम्पन्न देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया, की पृष्ठभूमि को इस फ़िल्म में फ़िल्मकार ने अपनी कल्पना का तड़का लगाकर मनोरंजक तथा प्रभावी स्वरूप में प्रस्तुत किया है तथा इसके माध्यम से वह दर्शक-वर्ग में राष्ट्रप्रेम तथा राष्ट्रीय कर्तव्य के प्रति निष्ठा की भावनाएं जगाने में भी सफल रहा है । फ़िल्म आद्योपांत दर्शक को बाँधे रखती है तथा उसके समापन पर वह अपने मन में राष्ट्र के सम्मान को सर्वोपरि रखने के ध्येय के साथ राष्ट्र के प्रति कर्तव्यपालन का भाव अनुभव करता है । फ़िल्म का तकनीकी पक्ष, अभिनय पक्ष तथा संगीत सभी सराहनीय हैं तथा कुल मिलाकर इसे निस्संदेह एक अच्छी फ़िल्म कहा जा सकता है । 

लेकिन जिस संदर्भ में इस फ़िल्म को एक कटु सत्य का उद्घाटन करने वाली आलोचनात्मक फ़िल्म कहा जा सकता है, वह है भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था एवं तंत्र तथा उसमें समाहित कार्य-संस्कृति का बिना किसी लाग-लपेट के बेबाक चित्रण । यद्यपि यह फ़िल्म परोक्ष रूप से तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी जी का महिमामंडन करती-सी प्रतीत होती है, तथापि नेताओं एवं मंत्रियों के अधीन जो अफ़सर प्रशासनिक तंत्र की बागडोर संभाले होते हैं, उनकी सोच एवं काम करने के ढंग पर यह फ़िल्म एक करारा व्यंग्य है । यह फ़िल्म उस सम्पूर्ण कार्य-संस्कृति पर भी एक तीखा व्यंग्य है जिसमें अपने निजी हित के अतिरिक्त प्रत्येक बात को अत्यंत हलके रूप में लिया जाता है चाहे वह कितने ही बड़े राष्ट्रीय अथवा सार्वजनिक हित से जुड़ी हो । 

फ़िल्म में नायक जो कि तकनीकी विशेषज्ञता रखने वाला एक युवा प्रशासनिक अधिकारी है, अपने वरिष्ठ अधिकारियों के सम्मुख एक बैठक में देश की आणविक क्षमता को प्रतिपादित करने वाले एक परीक्षण का प्रस्ताव तथा उससे सम्बद्ध सम्पूर्ण योजना की रूपरेखा प्रस्तुत करता है । उसके उच्चाधिकारी न केवल उसका एवं उसकी बातों का उपहास करते हैं, बल्कि जिस फ़्लॉपी डिस्क में उसने अपनी विस्तृत कार्य-योजना को संरक्षित किया था, एक अधिकारी उसे चाय का कप रखने वाली तश्तरी की तरह काम में लेते हुए अपनी चाय का कप उसी पर रख देता है । बैठक की अध्यक्षता करने वाला उच्चाधिकारी उस पर मानो कोई अहसान-सा करते हुए उसे प्रधानमंत्री कार्यालय तक ले तो जाता है लेकिन प्रधानमंत्री से उसे नहीं मिलवाता और स्वयं ही प्रधानमंत्री से मिलकर (युवा अधिकारी के परिश्रम का श्रेय स्वयं लेने के लिए) सब कुछ तय कर लेता है । सम्पूर्ण योजना को पढ़ने का कष्ट तक ये वरिष्ठ एवं अनुभवी नौकरशाह नहीं करते और योजना के सबसे आवश्यक अंग गोपनीयता का कोई ख़याल नहीं रखा जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि जो कार्य पूर्णतः गुप्त रूप से बिना किसी को भनक तक लगे किया जाना था, उसकी ख़बर चौतरफ़ा हो जाती है । बिना तकनीकी दक्षता के किया गया वह परीक्षण असफल भी हो जाता है और देश की बदनामी होती है सो अलग । अब इस विफलता का ठीकरा फोड़ने के लिए एक बलि का बकरा भी चाहिए जो कि उसी निष्ठावान एवं कर्तव्यपरायण अत्यंत प्रतिभासम्पन्न युवक को बनाया जाता है जिसने परीक्षण से संबंधित विचार एवं योजना को प्रस्तुत किया था । उस निर्दोष एवं योग्य युवा अधिकारी को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया जाता है । निकम्मी एवं क्रूर व्यवस्था का मारा वह देशप्रेमी युवा अपने देश के लिए यह परीक्षण तभी कर पाता है जब तीन वर्ष की अवधि के उपरांत शासन-प्रशासन में हुए कतिपय परिवर्तनों के कारण उसके भाग्य से उसे दूसरा अवसर मिलता है । 


फ़िल्म में दिखाई गई यह काल्पनिक कथा हमारे इस अभागे देश की निरंतर दृष्टिगोचर होने वाली वह कड़वी सच्चाई है जिससे क्षुद्र स्वार्थों के हाथों की कठपुतली बनी इस भ्रष्ट, काहिल एवं हृदयहीन व्यवस्था में वे चंद ईमानदार एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति दिन-प्रतिदिन दो-चार होते हैं जो अपनी सम्पूर्ण निष्ठा एवं सम्पूर्ण क्षमता के साथ अपने देश के लिए कुछ सार्थक करना चाहते हैं । आए दिन प्रतिभा-पलायन का राग अलापने वाले शृगालों से कोई पूछे कि भारत से प्रतिभा-पलायन का वास्तविक कारण क्या है और क्या कोई उसे दूर करने में सचमुच रुचि रखता है । क्या प्रतिभा-पलायन का झूठा रोना रोने वाले नहीं जानते कि प्रतिभाओं को हमारी संवेदनहीन एवं उत्तरदेयताविहीन व्यवस्था किस प्रकार प्रताड़ित, हतोत्साहित एवं कुंठित करती है एवं उनका मनोबल पूरी तरह तोड़ देती है ? ऐसे में या तो वे फ़िल्म के नायक की भाँति बलि के बकरे बन जाते हैं या फिर उसी निकम्मे, स्वार्थी एवं भ्रष्ट तंत्र के अंग बन जाते हैं जिससे जूझना अब उन्हें संभव नहीं लगता । इस तरह कीचड़ में कमल की तरह खिलने का स्वप्न देखने वाली  इन कलियों को कीचड़ अपने ही रंग में रंग देता है । ऐसे प्रतिभावान एवं कुछ हटकर करने के इच्छुक युवाओं को बार-बार स्मरण कराया जाता है कि रोम में रहना है तो रोमनों जैसे बनकर रहो । यह कोई नहीं सोचता कि रोम में आने वाला प्रत्येक आगंतुक यदि वहाँ पहले से रह रहे रोमनों के ही रंग में रंगकर उनके जैसा ही बन जाएगा तो रोम में सुधार कैसे होगा ? 

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में वर्षों बिता देने के उपरांत मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि भारत की सरकारी कार्य-संस्कृति में तर्क, औचित्य एवं विवेकशीलता का कोई स्थान नहीं है । निष्ठापूर्वक कर्तव्यपालन, प्रतिभा एवं परिश्रम सभी पार्श्व में रहते हैं तथा सभी प्रकार के पुरस्कारों का वितरण रेवड़ियों की भाँति पहुँच के आधार पर किया जाता है । ताक़तवर कुर्सियों पर प्रायः वे ही पहुँचते हैं जो चापलूसी एवं तिकड़मबाज़ी में तेज़ हैं और कुर्सियां लेने के उपरांत वे अपने जैसे लोगों को ही शासकीय पदानुक्रम में आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं । जिसकी सत्ता के गलियारों में पहुँच है, वह सभी तरह के पुरस्कार ले लेता है और दंड से बच जाता है जबकि जिसकी ऐसी पहुँच नहीं है, उसे उसके परिश्रम का पुरस्कार तो नहीं ही मिलता है, साथ ही वह गाहे-बगाहे बलि का बकरा बना दिया जाता है । ऐसे सभी सुयोग्य एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति परमाणु फ़िल्म के नायक की भाँति सौभाग्यशाली नहीं होते जिन्हें ज़िंदगी अपने आपको साबित करने का दूसरा मौका दे, अपने दिल पर पड़े असह्य भार से मुक्ति पाने का दुर्लभ सुअवसर दे । ऐसी वंचित प्रतिभाएं आजीवन मन मसोसकर रह जाने और अपने भाग्य को कोसने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पातीं । लेकिन यह दुर्भाग्य क्या केवल उन्हीं का है ? क्या यह इस राष्ट्र का दुर्भाग्य नहीं ? क्या सत्ता के शीर्ष पदों पर व्यवस्था को इस दृष्टिकोण से देख सकने वाले सही सोच से युक्त व्यक्ति कभी नहीं पहुंचेंगे ?

 

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20 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही विचारणीय पोस्ट। भारत में कई प्रतिभाएं भ्रष्ट तंत्र की शिकार जो जाती है।
    जितेंद्र भाई,मैं एक बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं कि वाक्य के समाप्त होने पर बिना स्पेस दिए ही पूर्णविराम या प्रश्नचिन्ह लिखा जाता है। आपने हर बार स्पेस देकर लिखा है जो देखने और पढ़ने में अटपटा लग रहा है।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया ज्योति जी। इंटरनेट पर लिखते समय मेरी आदत सदा से पूर्णविराम और ऐसे ही चिहनों से पूर्व स्पेस देने की रही है। प्रयोजन इतना ही है कि वे पढ़ने वालों को स्पष्ट रूप से दिखाई दें। यदि यह भाषा की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है तो मैं इसमें सुधार करूंगा।

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  2. 'परमाणु'फिल्म एक बार फिर से आँखोँ के आगे साकार हो गई समीक्षा पढ़ कर । सत्य कहा आपने यह कि पारम्पारिक ढांचे पर चलती प्रशासनिक व्यवस्था में हर ऊर्जा से भरे व्यक्ति को ऐसा सुअवसर कहाँ मिल पाता है कि वह अपनी प्रगतिशील सोच को मूर्तरुप में ढाल सके । सदैव की तरह चिंतनपरक समीक्षा ।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-04-2021) को  "आओ कोरोना का टीका लगवाएँ"    (चर्चा अंक-4029)  पर भी होगी। 
    --   
    मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। परन्तु प्रसन्नता की बात यह है कि ब्लॉग अब भी लिखे जा रहे हैं और नये ब्लॉगों का सृजन भी हो रहा है।आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --  

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  4. मैं फिल्म तो नही देखती लेकिन आपके पोस्ट पर आने का एक फायदा जरूर मिलता कि फिल्मों की कहानी के बारे मे जान जाती हूँ , बेहतरीन समीक्षा, शुक्रिया

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  5. आपने इस चलचित्र परमाणु के माध्यम से सच उजागर कर दिया है कि सरकारी संस्थानों में क्या होता है ... योग्यता से अधिक चापलूसी को स्थान मिलता है ... जब हमारे योग्य युवाओं को यहाँ अपने देश में नहीं पूछा जायेगा तो पलायन निश्चित ही है ... विचारणीय लेख .

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  6. फिल्म तो मैंने नहीं देखी पर आपकी समीक्षा से सरकार की वास्तविकता का बहुत कुछ पता चला । सुन्दर लेख ।

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    1. फ़िल्म अच्छी है आलोक जी । आप देख सकते हैं । आगमन एवं टिप्पणी हेतु आपका हार्दिक आभार ।

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  7. "ऐसी वंचित प्रतिभाएं आजीवन मन मसोसकर रह जाने और अपने भाग्य को कोसने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पातीं । लेकिन यह दुर्भाग्य क्या केवल उन्हीं का है ? क्या यह इस राष्ट्र का दुर्भाग्य नहीं ? क्या सत्ता के शीर्ष पदों पर व्यवस्था को इस दृष्टिकोण से देख सकने वाले सही सोच से युक्त व्यक्ति कभी नहीं पहुंचेंगे ?"

    आपका यह कथन जो कि पूरे लेख का निष्कर्ष भी है, वैचारिक धरातल को झकझोरने वाला है।

    इस सार्थक सृजन के लिए साधुवाद 🙏

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    1. आपने मेरे इस लेख के सारतत्व को समझा, इससे मेरे हृदय को संतोष प्राप्त हुआ वर्षा जी । बहुत-बहुत आभार आपका ।

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  8. बहुत सुंदर विवेचना, परमाणु फिल्म की, अच्छे और पढ़े लिखे लोग दलाल और चापलूस के आगे त्रस्त दिखते है कई सरकारी संस्थान में , सुधार होना चाहिए व्यवस्था बदले तो आनन्द आए, राधे राधे

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    1. जी हां आदरणीय सुरेन्द्र जी । प्रतिभा पलायन को रोकने हेतु व्यवस्था में वांछित सुधार महती आवश्यकता है ।

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  9. सरकारें किसी भी क्षेत्र में उसी व्यक्ति का साथ या पुरस्कार देती हैं, जो उनकी कार्य संस्कृति का अनुगामी हो, आप का लेख फिल्म के साथ साथ सरकार की भी पोल खोलता है,सार्थक लेखन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।

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