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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

जब व्यक्ति नहीं, समाज खलनायक हो

नैसर्गिक प्रतिभा के धनी ऋषि कपूर जो अपने ज़माने में लाखों-करोड़ों जवां दिलों की धड़कन हुआ करते थेआज से ठीक एक साल पहले तीस अप्रैल दो हज़ार बीस की सुबह अपने चाहने वालों को मर्माहत करके इस संसार से चले गए। उनके अवसान के उपरान्त मैंने उनकी एक पुरानी फ़िल्म जो दशकों पूर्व मैंने दूरदर्शन पर देखी थी, फिर से यूट्यूब पर देखी। यह फ़िल्म है : ज़हरीला इंसान (१९७४)।

१९७४ में प्रदर्शित 'ज़हरीला इंसान' युवा नायक के रूप में ऋषि कपूर की दूसरी ही फ़िल्म थी  रूमानी नायक के रूप में अपनी पहली ही फ़िल्म 'बॉबी' (१९७३) से धूम मचा देने वाले ऋषि कपूर के लिए अपनी दूसरी ही फ़िल्म में ऐसी गंभीर भूमिका करना अपने आप में ही अत्यंत साहस का कार्य था उन्होंने यह जोखिम उठाया जिसका मूल्य उन्हें इस फ़िल्म की घोर व्यावसायिक असफलता के रूप में चुकाना पड़ा। लेकिन आत्मविश्वास के धनी ऋषि कपूर जोखिम उठाने से तो अपने सम्पूर्ण करियर में कभी नहीं कतराए।  

 

'ज़हरीला इंसान' वस्तुतः फ़िल्म के निर्देशक एस.आर. पुट्टण कनगल की कन्नड़ फ़िल्म 'नागरहावू' (१९७२) का हिंदी संस्करण है जिसकी कथा प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार टी.आर. सुब्बा राव के तीन विभिन्न उपन्यासों की कथाओं को आधार बनाकर लिखी गई थी। कन्नड़ भाषा के शब्द 'नागरहावू' का अर्थ होता है - विषैला सर्प या नाग। मूल फ़िल्म में प्रमुख भूमिका विष्णुवर्धन ने निभाई थी। 

 

चूंकि मेरे प्रस्तुत लेख का उद्देश्य 'ज़हरीला इंसान' फ़िल्म की समीक्षा नहीं है, इसलिए फ़िल्म की गुणवत्ता के विषय में इतना ही कह देना पर्याप्त है कि निर्देशक हिंदी फ़िल्म बनाने में मूल कन्नड़ फ़िल्म जैसी दक्षता का परिचय नहीं दे सके एवं फ़िल्म पटकथा व प्रस्तुतीकरण दोनों ही स्तरों पर सशक्त नहीं बन पाई। फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएं दो ही हैं - एक तो ज़हरीला इंसान कहलाने वाला निर्मल मन का नायक तथा दूसरे बचपन से ही उसके हृदय की निर्मलता को देखने एवं अनुभव करने वाले उसके शिक्षक जो उसे समझने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं तथा जिन्हें वह पितातुल्य मानकर उनके प्रत्येक आदेश का पालन करता है। इन भूमिकाओं में ऋषि कपूर तथा प्राण ने श्रेष्ठ अभिनय किया, किंतु उनका अभिनय दुर्बल पटकथा को ऊपर नहीं उठा सका। संगीतकार राहुल देव बर्मन तथा गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा रचित कुछ अच्छे गीत भी इस प्रभावहीन फ़िल्म को बचा नहीं सके।  

लेकिन 'ज़हरीला इंसान' (या नागरहावू) की कहानी कुछ गंभीर सवाल उठाती है जो इसके पहले भी उठाए गए थे लेकिन जिन पर ग़ौर नहीं किया गया (अब भी नहीं किया जाता है)।  मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण समाज करता है (उसके बचपन और लड़कपन में), इसलिए व्यक्ति (अच्छा या बुरा) जैसा भी बनता है, उसके लिए समाज अपने उत्तरदायित्व से नहीं बच सकता। कोई भी व्यक्ति अपने अनुभवों का ही उत्पाद होता है। उसके अपने अनुभवों का निचोड़ ही उसके व्यक्तित्व का सत्व बनता है। अच्छे अनुभव व्यक्ति को अच्छा बना देते हैं और बुरे अनुभव बुरा।  तो क्या किसी प्रत्यक्षतः बुरे दिखाई देने वाले व्यक्ति पर 'बुरा' होने का ठप्पा लगा देना ही पर्याप्त है? क्या समाज को अपने भीतर झाँक कर नहीं देखना चाहिए कि यदि आज वह बुरा है तो वह बुरा बना कैसे ? क्या उसे 'ज़हरीला' कहने वालों का फ़र्ज़ यह सोचना नहीं कि उसके अंदर ज़हर भरा किसने

 

'ज़हरीला इंसान' के प्रदर्शन के पाँच वर्ष पूर्व एक अन्य हिंदी फ़िल्म 'सच्चाई' (१९६९) में इसी तथ्य को प्रतिपादित किया गया था कि मनुष्य वैसा ही बनता है जैसा उसके अनुभव, परिस्थितियां एवं वातावरण उसे बना देते हैं। श्वेत-श्याम हिन्दी फ़िल्म 'सीमा' (१९५५) में अत्यन्त प्रभावी एवं प्रेरक ढंग से दर्शाया गया था कि अच्छे अनुभव, अच्छे व्यक्तियों की संगति तथा अनुकूल परिस्थितियां बुरे व्यक्ति की बुराई को भी समाप्त करके उसे एक अच्छा मनुष्य बना सकती हैं जबकि बुरे अनुभव, बुरे व्यक्तियों की संगति तथा प्रतिकूल परिस्थितियां किसी मूलतः अच्छे व्यक्ति को भी बुरे व्यक्ति में रूपांतरित कर सकती हैं। इसीलिए कई बार ऐसा कहा जाता है कि आदमी बुरा नहीं होता, उसके हालात बुरे होते हैं। बीज चाहे कितना ही उत्तम हो, उसका उचित विकास उस खाद, पानी व मिट्टी पर ही निर्भर करता है जो उसे मिलते हैं; जिनके द्वारा वह अंकुरित होता एवं पलता है।

 

अपने पिता राज कपूर की क्लासिक फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' (१९७०) के बाल कलाकार के रूप में अपनी फ़िल्मी पारी आरंभ करने वाले ऋषि कपूर अपने समकालीन, अपने से पहले आने वाले तथा अपने पश्चात् आने वाले अनेक बाल कलाकारों की तुलना में सौभाग्यशाली रहे क्योंकि वे अत्यंत सफल वयस्क नायक भी बने। उनकी गणना उन भाग्यवान कलिकाओं में की जा सकती है जो खिलकर सुगंधित पुष्प बनती हैं । लेकिन उनके जैसे बाल कलाकार अपवादस्वरूप ही रहे। समुचित पृष्ठभूमि, मार्गदर्शन, प्रोत्साहन, संसाधनों तथा अवसरों के अभाव में अनेक बाल कलाकार वयस्क होने पर असफलता एवं विस्मृति के अंधकार में लुप्त हो गए। उन्हीं जैसे अभागों के लिए कहा गया है - 'हसरत तो उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए'। यह वास्तविकता प्रत्येक उस बालक एवं बालिका पर लागू होती है जिसकी प्रतिभा पूर्ण रूप से निखर कर संसार के समक्ष न आ सके। सही खाद, पानी, मिट्टी न मिल पाए तो बीज की किस्मत धूल में मिल जाना ही होती है। 

 

समाज एक बार किसी व्यक्ति पर बुरे होने का बिल्ला लगा दे तो इस बात की प्रबल संभावना है कि कालांतर में वह सचमुच बुरा बन जाए। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि संबंधित व्यक्ति के मन में यह धारणा पैठ सकती है कि जब समाज उसे बुरा ही कहता है तो वह अच्छा बनकर क्या करे? ऐसे में उसकी जीवन-कथा का खलनायक कौन है? क्या समाज नहीं जिसमें वह पला है? जब तक एक मासूम बच्चा होश न संभाले, जिस्म और दिलोदिमाग़ से बड़ा न हो, अपना ख़याल ख़ुद रख पाने के क़ाबिल न बन जाए; उसकी ज़िम्मेदारी किस पर है? क्या समाज पर नहीं? बड़े होने पर उस पर ज़हरीला होने की मोहर लगाने वाला समाज अगर सोचे कि उसके अंदर भर चुके ज़हर का सोता निकल कहाँ से रहा है तो उसकी ओर उठ रही समाज की उंगली ख़ुद समाज की ही ओर मुड़ जाएगी। कितने ही डाकुओं, मुजरिमों और दहशतगर्दों की ज़िन्दगी की कहानियां बेइंसाफ़ी की कलम से लिखी गई है। बुरे और मुजरिम कहे जाने वाले कितने ही बदकिस्मतों की ऐसी दास्तानें समाज के बेहिस निज़ाम और इंसाफ़ के बेदर्द गलियारों में घुटकर ख़ामोश हो गई हैं जिनके सुनाने वाले ज़िन्दा नहीं रहे। 

 

सिनेमा की इस ताक़त को सबसे बेहतर तरीके से गुरु दत्त ने समझा था जिसके नज़रिये में आदमी नहीं, समाज खलनायक होता है। उनकी 'प्यासा' (१९५७) और 'कागज़ के फूल' (१९५९) इसकी बेहतरीन नज़ीरें हैं। इसी श्रेणी में बिमल रॉय कृत 'दो बीघा ज़मीन' (१९५३) को भी रखा जा सकता है एवं राज कपूर कृत 'आवारा' (१९५१) को भी। मुकुल एस. आनंद की फ़िल्म 'अग्निपथ' (१९९०) चाहे इन महान फ़िल्मों के समकक्ष नहीं रखी जा सकती, उसके कथानक का आधार यही तथ्य है। और गुलज़ार की कृति 'माचिस' (१९९६) का भी। यहाँ मैं उन दर्ज़नों बल्कि सैकड़ों हिंदी (एवं अन्य भारतीय भाषाओं की) फ़ॉर्मूलाबद्ध फ़िल्मों की बात नहीं कर रहा हूँ जो नायक अथवा नायिका के साथ हुए अन्याय अथवा उत्पीड़न के उपरांत उसके अपने आतताइयों से प्रतिशोध लेने के विषय पर बनाई गई थीं (मुख्यतः साठ के दशक से नब्बे के दशक तक)। 

 

अच्छे सिनेमा की ही भाँति उत्कृष्ट साहित्य में भी यह शक्ति होती है कि वह समाज के खलनायक रूप को पाठक वर्ग के सम्मुख रख देता है। प्रेमचन्द के 'गोदान' तथा बिमल मित्र के 'आसामी हाज़िर' जैसे अमर उपन्यासों के कथानक इसी श्रेणी में आते हैं ('आसामी हाज़िर' पर 'मुजरिम हाज़िर' के नाम से धारावाहिक भी बनाया गया था जिसका प्रसारण अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर हुआ था)। समय-समय पर अपना महिमामंडन करके आत्ममुग्ध रहने वाले समाज इस तथ्य को अत्यन्त सुविधापूर्वक भूल जाते हैं कि अपराधी किसी दूसरी दुनिया से नहीं आते, समाज के बीच से ही आते हैं। उनके अपराधी बनने में समाज का पूर्ण नहीं तो आंशिक योगदान तो अवश्य ही होता है।

 

समस्याओं को हल करने के मामले में हमारी सच्ची समस्या यह है कि हम हमेशा आसान रास्तों की तलाश करते हैं और वही करने में दिलचस्पी लेते हैं जो आसानी और सहूलियत से किया जा सके। मुश्किल काम कौन करे? लेकिन समस्याओं के वास्तविक एवं स्थायी समाधान का गंतव्य तो कठिन मार्गों पर चलने से ही प्राप्त हो सकता है । शॉर्टकट अपना कर केवल अपने आपको बहलाया जा सकता है कि हमने कुछ किया फिर चाहे कोई ठोस परिणाम न निकले या वास्तविक समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहे। यही बात समाज के साथ भी है विशेषतः भारत में स्थित विभिन्न समाजों के साथ कि वे अपराधियों को समाप्त करने में रुचि लेते हैं (क्योंकि यह सरल है‌), अपराध को समाप्त करने में नहीं (जो कि कठिन एवं श्रमसाध्य है)। जिसे आतंकवादी करार दे दिया जाए, उसे फाँसी पर चढ़ाकर (या बिना गिरफ़्तार किए ही गोली मारकर) ही हम तसल्ली कर लेते हैं; वह मूल रूप से कैसा व्यक्ति था एवं आतंकवाद के मार्ग पर चला तो क्यों चला, इसकी पड़ताल में सर नहीं खपाते। इसलिए एक आतंकवादी मरता है तो दर्ज़नों नए पैदा हो जाते हैं। 

 

कुछ दशक पूर्व जब डाकू बहुतायत में होते थे तो पहली बार बंदूक उठाकर डाकू बनने वाला (या वाली) अपने आप को 'बाग़ी' कहता था जिसने समाज और व्यवस्था से बग़ावत की। प्रश्न है - किसी को ऐसी बग़ावत कब करनी पड़ती है? उत्तर है - जब न्याय नहीं मिलता। न्याय देने के लिए व्यवस्था में सुधार करना होता है, स्वयं निष्पक्ष होकर व्यवस्था में निष्पक्षता स्थापित करनी होती है, वास्तविक आतताइयों को दंडित करके पीड़ित को राहत पहुँचानी होती है, एक विश्वास जगाना होता है कि आगे से ऐसे अन्याय को होने से रोका जाएगा। इतना कष्ट कौन करे? ज़ालिम ताक़तवर है तो उससे बैर मोल लेने की जगह मज़लूम को ही बुरा कहकर ख़त्म कर दो। ज़हर को मौजूद रहने दो, उस ज़हरीले इंसान की ही हस्ती मिटा दो। जब समाज का दृष्टिकोण यह हो तो खलनायक कौन हुआ?  

 

कोई भी व्यक्ति एक निर्दोष बालक के रूप में ही जन्म लेता है। उसकी निर्दोषिता उसका साथ कब छोड़ती है? जब उससे बार-बार झूठ बोला जाता है, जब बार-बार उसके विश्वास को तोड़ा जाता है, जब बार-बार उसे ठगा और छला जाता है। तब जल्दी या देर से, एक-न-एक दिन वह मासूम बच्चा समझ लेता है कि यह दुनिया ऐसी ही है जो सच्चाई का उपदेश तो देती है लेकिन सच्चे को बेवकूफ़ और झूठे को समझदार मानती है। वह जान जाता है कि कथित बड़े लोग झूठे ही नहीं, ख़ुदगर्ज़ भी होते हैं जो केवल लेना ही चाहते हैं, कुछ देना नहीं चाहते; वे उससे तो अपने सारे काम करवा लेना चाहते हैं लेकिन उसे बच्चा (और नादान) समझते हुए केवल मीठी बातों से बहलाना चाहते हैं और उनकी इसी ख़ासियत को उनकी क़ाबिलियत माना जाता है। एक बार इस हक़ीक़त को जान जाने के बाद बालक का बालपन और उसकी निश्छलता उसका साथ छोड़ जाते हैं, कभी वापस न आने के लिए। क्या ऐसे बालक से आगे चलकर एक आदर्श नागरिक बनने की अपेक्षा करना समाज की स्वार्थपरता की चरम सीमा नहीं है जो उससे उसका भोलापन छीनकर उसे दुनियादार बना देने का दावा करता है

 

'ज़हरीला इंसान' एक दुखान्त फ़िल्म है। लेकिन उसका नायक (जिस पर समाज ने 'ज़हरीला इंसान' होने की छाप लगा दी थी) इस मायने में ख़ुशकिस्मत था कि उसे समझने वाला, उसके मन की निश्छलता और उसकी शख़्सियत में बसी महानता को देखने और महसूस करने वाला कम-से-कम एक इंसान था - उसके बचपन के शिक्षक जिनका साथ बड़ा हो जाने पर भी उससे छूटा नहीं। प्रत्येक बालक को अपने जीवन में कम-से-कम एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता तो होती ही है। और नहीं मिलता तो अच्छे बालक के अच्छे वयस्क बनने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो जाती हैं। ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़त यह भी है कि समझाने वाले तो हर गली-कूचे-नुक्कड़ पर मिल जाते हैं पर समझने वाला सिर्फ़ किस्मत से मिलता है।

 

बचपन में अपनी पाठ्यपुस्तक में एक प्रेरक कथा पढ़ी थी - 'दिया दूर नहीं जात' जिसकी शिक्षा यह थी कि सदा जो उत्तम व श्रेष्ठ हो, वही दूसरे को दिया जाना चाहिए क्योंकि जो दिया जाता है, देरसवेर वही लौटकर देने वाले के पास वापस चला आता है। आज मैं भिन्न संदर्भ में लेकिन बेहतर ढंग से इस शिक्षा को समझता और पहचानता हूँ। हम ज़िन्दगी को वही दे सकते हैं जो ज़िन्दगी हमें देती है। व्यक्ति समाज को वही लौटा सकता है जो समाज से उसे मिला है। यदि समाज नाना प्रकार की नकारात्मकता व्यक्ति पर थोप देने के उपरान्त उससे सकारात्मकता की आशा करता है तो इसे गूलर के वृक्ष पर पुष्प लगने की आशा के समान ही समझना चाहिए। व्यक्ति समाज का ही अंग होता है। यदि समाज उसके लिए खलनायक बनता है तो उससे नायक सरीखा आदर्श आचरण करने की अपेक्षा करके समाज अपने आप को ही धोखा देता है। 

 

जिस वर्ष (१९७४ में) 'ज़हरीला इंसान' प्रदर्शित हुई थी, उसी वर्ष एक अन्य हिंदी फ़िल्म 'ईमान' भी प्रदर्शित हुई थी। 'ईमान' (१९७४) में प्रमुख भूमिका संजीव कुमार ने निभाई थी । उस फ़िल्म की कथा में स्पष्ट बयान किया गया था कि अच्छा होना घाटे का सौदा है क्योंकि व्यक्ति के इर्द-गिर्द उपस्थित समाज के लोग अच्छे व्यक्ति की अच्छाई को उसकी दुर्बलता समझते हैं (और तिकड़मी व्यक्ति को बुद्धिमान कहकर उसकी प्रशंसा भी करते हैं)। कई बार आप इसलिए अधिक दुख नहीं उठाते कि लोग बुरे हैं बल्कि इसलिए उठाते हैं कि आप बहुत भले हैं, इतने भले हैं जितने कि न होते तो बेहतर होता (आपके लिए)। वक्र चन्द्रमा को ग्रहण नहीं लगता और ज़हरीले नाग से लोग डरकर रहते हैं। खरगोश का शिकार आसान लगता है, शेर का मुश्किल। सीधे पेड़ ही पहले काटे जाते हैं। 'ईमान' के अंत में अदालत में कटघरे में खड़ा सीधा-सच्चा और परोपकारी नायक जज साहब से पूछता है - अगर किसी इंसान को मारना जुर्म है जिसकी सज़ा मिलती है तो किसी इंसान के भीतर की इंसानियत को मार देना जुर्म क्यों नहीं है?  

 

मेरा भी यही सवाल है।

 

समाज से। 

 

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22 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०१-०५ -२०२१) को 'सुधरेंगे फिर हाल'(चर्चा अंक-४०५३) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. इस सम्मान हेतु आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं आदरणीया अनीता जी।

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  2. प्रत्येक बालक को अपने जीवन में कम-से-कम एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता तो होती ही है। और नहीं मिलता तो अच्छे बालक के अच्छे वयस्क बनने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो जाती हैं। ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़त यह भी है कि समझाने वाले तो हर गली-कूचे-नुक्कड़ पर मिल जाते हैं पर समझने वाला सिर्फ़ किस्मत से मिलता है। ..बहुत सुंदर तथ्यपरक समीक्षा की है आपने, ऋषि कपूर के बारे में और उनकी फिल्मों के बारे उदाहरण के साथ की गई सुंदर समीक्षा बहुत ही सुंदर और पठनीय है ।

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  3. ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़त यह भी है कि समझाने वाले तो हर गली-कूचे-नुक्कड़ पर मिल जाते हैं पर समझने वाला सिर्फ़ किस्मत से मिलता है।

    बहुत खूब,कहा आपने जीवन में एक समझने वाला मिल जाए जीवन सार्थक। बेहतरीन समीक्षा,सादर नमन आपको

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया कामिनी जी। ज़िन्दगी गुज़र जाती है उस एक के इंतज़ार में जो आपको समझ सके।

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  4. अच्छा और बुरा.. इन दो विशेषणों को इंसानी जीवन के विविध संयोगों के परिपेक्ष्य में, सिनेमा जगत एवं साहित्य के माध्यम से कई प्रश्नों को उठाती एवं उनका जवाब देती हुई आपकी प्रस्तुति अतुलनीय है..बेहतरीन ।

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  5. उद्वेलित करता हुआ अत्यंत भावपूर्ण आलेख । चिंतनीय ।

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  6. सदा जो उत्तम व श्रेष्ठ हो, वही दूसरे को दिया जाना चाहिए क्योंकि जो दिया जाता है, देरसवेर वही लौटकर देने वाले के पास वापस चला आता है। यदि हम इसी को अपने जीवन का मापदण्ड बनाएं तो जीवन सही दिशा की ओर अग्रसर होगा, सार्थक लेखन !

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  7. प्रत्येक बालक को अपने जीवन में कम-से-कम एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता तो होती ही है। और नहीं मिलता तो अच्छे बालक के अच्छे वयस्क बनने की संभावनाएं लगभग समाप्त हो जाती हैं।

    जब व्यक्ति के मन में प्रेम के बदले प्रेम देने की भावना उत्पन्न होती है तो फिर नफरत के बदले नफरत देने की भावना कैसे नहीं उत्पन्न होगी? फिर कैसे हम नफरत के बदले उससे प्रेम की अपेक्षा कर सकते हैं? खुद उसके साथ दुर्व्यवहार करके उससे अच्छे व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं?
    सर आप बिल्कुल सही कह रहे हैं प्रत्येक व्यक्ति को एक ऐसे इंसान की जरूरत होती है जो उसे समझे! बहुत किस्मत वाले होते हैं जिनको ऐसे व्यक्ति मिलते हैं कोई कितना भी मजबूत क्यों ना हो लेकिन हर व्यक्ति की चाहत होती है कि कोई उसकी ताकत बने!
    बहुत ही बेहतरीन लेख जितनी तारीफ की जाए कम है! बहुत ही तार्किक प्रश्न आपने उठाए !सर आपकी हर एक बात से सहमत हूं!

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  8. बहुत ही भावपूर्ण लेख है, हमारे बच्चों के लिए अच्छे वातावरण का निर्माण करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए ।

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