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सोमवार, 19 अप्रैल 2021

शर्तों पर प्रेम ?

सलमान ख़ान को प्रमुख भूमिका में प्रस्तुत करती हुई फ़िल्म 'सुल्तान' की मैंने बहुत प्रशंसा सुनी और पढ़ी थी लेकिन इसे देखने का अवसर कुछ विलंब से ही मिल पाया जब इसे मेरे नियोक्ता संगठन (भेल) के क्लब में प्रदर्शित किया गया । कहानी के प्रस्तुतीकरण के उद्देश्य की पूर्ति हेतु फ़िल्म के लेखक एवं निर्देशक द्वारा ली गई अनेक छूटों के बावजूद यह फ़िल्म जिस प्रकार सामान्य दर्शकों एवं स्थापित समीक्षकों को अच्छी लगी थी, उसी प्रकार मुझे भी अच्छी लगी । जीवन में पराजित एवं निराश हो चुके नितांत एकाकी एवं अवसादग्रस्त व्यक्तियों के लिए बड़ा प्रेरणास्पद संदेश है इस फ़िल्म में - किसी और से नहीं, अपने से जीतो; किसी और के लिए नहीं, अपने लिए जीतो; किसी और की दृष्टि में उठने से पूर्व अपनी दृष्टि में उठो । यह फ़िल्म सहज ही अनेक स्थलों पर मेरे हृदय को स्पर्श कर गई, अपने संदेश को मेरे हृदय-तल पर ले जाकर उसे वहाँ सदा के लिए स्थापित कर गई ।

लेकिन इस अत्यंत प्रभावशाली तथा किसी भी फ़िल्म की गुणवत्ता के मूल्यांकन के सभी मानकों पर खरी उतरने वाली इस फ़िल्म में एक ऐसी बात मैंने पकड़ी जो संभवतः किसी भी और समीक्षक ने या तो पकड़ी नहीं या पकड़कर भी उसे महत्व नहीं दिया । इस फ़िल्म में नायक को नायिका से सच्चे मन से प्रेम करते हुए दिखाया गया है जो नायिका का हृदय जीतने के लिए ही अपने निरर्थक तथा संसार की दृष्टि में हास्यास्पद जीवन को एक दिशा, एक सार्थकता प्रदान करने का निर्णय लेता है । इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु वह नायिका की ही भाँति एक पहलवान बनता है एवं कुश्ती के खेल में सफल हो चुकने के उपरांत नायिका की सहमति से उसे जीवन-संगिनी के रूप में प्राप्त करता है । उसके जीवन में दुखद मोड़ तब आता है जब अपनी गर्भवती पत्नी के मना करने पर भी वह विश्व चैम्पियनशिप में भाग लेने के लिए जाता है एवं उसकी अनुपस्थिति में नायिका के गर्भ से उत्पन्न उसकी संतान रक्ताल्पता के कारण बच नहीं पाती । नायिका नवजात शिशु के न बच पाने के लिए नायक को दोषी ठहरा कर उसे छोड़ देती है तथा वह पूर्णतः एकाकी एवं अवसादग्रस्त हो जाता है । चूंकि उसकी संतान अपने समूह का रक्त न मिल पाने के कारण नहीं बच सकी थी, अब उसकी एकमात्र अभिलाषा अपने आवासीय क्षेत्र में एक रक्त-बैंक स्थापित करने की है जिसे वह अपने कथित पाप के प्रायश्चित्त के रूप में देखता है । किन्तु कुश्ती छोड़ देने के कारण उसके पास आय का कोई समुचित साधन नहीं रहता तथा उसका लक्ष्य उससे आकाश-कुसुम की भाँति तब तक दूर रहता है जब तक वह इसी उद्देश्य के निमित्त पुनः कुश्ती से नाता जोड़कर एक पेशेवर प्रतिस्पर्द्धा में भाग नहीं लेता । अंत में उसे ठुकरा चुकी नायिका पुनः उसका हाथ थाम लेती है एवं उनके सुखी गृहस्थ-जीवन का नवीन आरंभ होता है ।

फ़िल्म देखकर मेरे मन में जो प्रश्न उठा, वह यह था कि नायक को तो नायिका से प्रेम था लेकिन नायिका को किससे प्रेम था - नायक के व्यक्तित्व एवं उसमें निहित एक सच्चे प्रेमी से या फिर नायक की भौतिक सफलता से ? नायक के सफल न होने तक तो नायिका न केवल उसके प्रेम को ठुकराती है, वरन उसे यथोचित सम्मान भी नहीं देती लेकिन जैसे ही वह भौतिक सफलता के सांसारिक मानदंड पर खरा उतरकर दिखा देता है, वैसे भी नायिका उसके प्रणय-निवेदन को स्वीकार कर लेती है (यह स्वीकृति भी फ़िल्म में नायिका द्वारा यूं करते हुए दिखाया गया है मानो वह नायक पर कोई उपकार कर रही हो) । अर्थात् नायिका की न तो एक नारी के रूप में नायक रूपी पुरुष के प्रति कोई भावनाएं हैं और न ही वह एक पुरुष के रूप में अपने प्रति उसकी भावनाओं को कोई महत्व देती है । उसके लिए महत्वपूर्ण है तो केवल नायक की भौतिक सफलता । लेकिन यह प्रेम तो नहीं । यह तो सांसारिकता है । सारा संसार ही सफलता की पूजा करता है । ऐसे में नायिका ने ही क्या अलग किया ?

नायिका का फ़िल्म में सदा यही दृष्टिकोण दिखाया गया है कि नायक उसकी इच्छानुरूप ही चले, अपनी इच्छानुरूप नहीं । उसे कहीं पर भी स्वयं की किसी भूल को अनुभव करते या स्वीकार करते हुए नहीं बताया गया है । वह ओलंपिक से पूर्व गर्भवती हो जाती है तो ओलंपिक में भाग न लेकर एवं नायक की प्रसन्नता के लिए संतान को जन्म देने का निर्णय लेकर अपने इस निर्णय को नायक के प्रति त्याग (या उस पर किए गए उपकार) के रूप में प्रदर्शित करती है लेकिन जब उसे ओलंपिक में भाग लेना था तो संभावित गर्भधारण को रोकने के लिए वह स्वयं भी तो सचेत रह सकती थी (जैसा कि उसके पिता भी अनुभव करते हैं) । लेकिन अपने इस कथित त्याग का उसे प्रतिदान इस रूप में चाहिए कि जब उसके प्रसव का समय निकट आए तो नायक भी त्याग करते हुए विश्व कुश्ती प्रतियोगिता में भाग न ले । क्या प्रेम और त्याग व्यापार के सिद्धांतों पर किए जाते हैं ? नायक विश्व कुश्ती प्रतियोगिता में न जाकर उसके प्रसव के समय में उसके निकट रहकर क्या कोई महान कार्य करता ? नायक उसी के प्रेम के लिए पहलवान बना था और उसकी सभी सफलताओं से वह प्रसन्न थी लेकिन अब वह चाहती है कि वह उसी की इच्छा का मान रखने के लिए विश्व चैम्पियनशिप में भाग न ले । भौतिक सफलता प्राप्त करने के उपरांत फ़िल्म के नायक-नायिका पर्याप्त धनी एवं साधन-सम्पन्न हो चुके दिखाए गए हैं, ऐसे में नवजात शिशु से जुड़ी सभी संभावनाओं एवं आवश्यकताओं का ध्यान नायक की अनुपस्थिति में भी रखा जा सकता था (नायिका के पिता वहीं पर थे) । उसकी संतान रक्ताल्पता के कारण जी नहीं सकी, इसके लिए वह नायक को उत्तरदायी ठहराकर उसे छोड़ देती है । अंत में नायक के पास लौटकर भी वह अपने इस कार्य को यह कहकर न्यायोचित ही ठहराती है कि संतान के लिए माता का दर्द पिता से अधिक होता है । मुझे उसकी यह बात सत्य होते हुए भी अपनी भूल को न मानने एवं नायक को त्यागने को न्यायोचित सिद्ध करने का कुतर्क ही लगी । नायक उसके प्रति अपने प्रेम के कारण ही नियमित रूप से दरगाह जाता रहता है जहाँ वह आती है ताकि वह उसे देख सके । अंत में नायिका उसे बताती है कि वह भी इसीलिए नियमित रूप से दरगाह जाती थी ताकि वह उसे देख सके । यदि ऐसा ही था तो पूरे आठ वर्षों तक नायक के प्रेम को अपने नयनों से देखने के उपरांत भी उसका हृदय पिघला क्यों नहीं ? क्या पत्थरदिल होना ही नारी-शक्ति का प्रतीक है ? वह नायक के रक्त-बैंक स्थापित करने के पावन लक्ष्य को भी कहीं कोई महत्व देती हुई दिखाई नहीं देती । अंत में नायक के पास वह लौटती भी है तो तब जब वह सभी विपरीत परिस्थितियों के मुख मोड़ता हुआ शक्तिशाली प्रतिस्पर्द्धियों को परास्त करते हुए पेशेवर प्रतियोगिता को जीतने के निकट पहुँचता है । यानी नायक के पास सफलता लौटी तो नायिका भी लौट आई और जब वह असफल व एकाकी था तो नायिका ने भी मुँह मोड़ रखा था । इससे यही सिद्ध हुआ कि नायिका को प्रेम नायक से नहीं उसकी सफलता से रहा ।

फ़िल्म में नायिका की भूमिका अनुष्का शर्मा ने निभाई है । उन्होंने ठीक ऐसी ही भूमिका एक दशक पूर्व आई फ़िल्म 'बैंड बाजा बारात' में भी निभाई थी । उस फ़िल्म को भी भारी व्यावसायिक सफलता मिली थी एवं उसका गुणगान विभिन्न लेखों में कुछ इस प्रकार किया गया था मानो वह कोई महान फ़िल्म हो । 'बैंड बाजा बारात' में भी उनके नायक (रणवीर सिंह) ने केवल उनके निकट रहने तथा उनका हृदय जीतने के लिए ही उनके साथ वैवाहिक प्रबंधक (वेडिंग प्लानर)  बनने के व्यवसाय में उनके साथ कदम रखा था एवं उसके बाद पग-पग पर उनका साथ निभाया था । उस व्यवसाय को छोटे पैमाने से उठाकर बड़े पैमाने पर ले जाने में भी नायक की ही प्रेरणा एवं विश्वास की मुख्य भूमिका रही थी । उस फ़िल्म में भी नायिका अपने सिद्धांतों एवं व्यवहार को नायक पर थोपती ही रही थी । वैसे तो मैं नहीं मानता कि कोई भी नारी अपने को प्रेम करने वाले पुरुष के निकट संपर्क में रहते हुए उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ रह सकती है लेकिन यदि नायिका नायक की भावनाओं से अनभिज्ञ रही भी तो जब उसे उसके प्रति स्वयं अपनी भावनाओं का पता चला, तब तो उसका दृष्टिकोण बदल सकता था । उसने नायक से कहा था कि 'जिसके साथ व्यापार करो, उससे कभी न प्यार करो' के सिद्धान्त पर अमल करे एवं उसके निकट आने का प्रयास न करे और नायक ने उसकी यह बात उसके प्रति अपनी भावनाओं को अपने मन में ही दबाकर मानी । लेकिन जब वह स्वयं नायक से प्रेम कर बैठी तो अब वह चाहती थी कि नायक उस कथित सिद्धान्त का उल्लंघन करके उसके प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करे । अर्थात् नायक किसी सामान्य पुरुष की भांति नहीं उसके हाथों की कठपुतली की भाँति व्यवहार करे । और जब नायक ऐसा नहीं कर पाता (या उसके एकतरफ़ा नज़रिए को ठीक से नहीं समझ पाता) तो वह नायक को अपने व्यवसाय तथा कार्यालय से अपमानित करके निकाल देती है । यह प्रेम है या कृतघ्नता ? फिर भी अंत में उनका पुनर्मिलन दिखाया गया है । मैं नहीं समझ सका कि अपने प्रति ऐसा अपमानजनक एवं कृतघ्नतापूर्ण व्यवहार करने वाली तथा अपनी भावनाओं को कभी भी सम्मान न देने वाली ऐसी नायिका के साथ नायक कैसे प्रेमपूर्वक जीवन बिता सकेगा विशेष रूप से तब जबकि नायिका को अपने किए का कोई पछतावा भी नहीं है ?

स्त्री-पुरुष समानता में मेरा दृढ़ विश्वास है लेकिन यह समानता सबसे अधिक प्रेम के क्षेत्र में होती है क्योंकि सच्चा प्रेम लिंग-भेद से ऊपर होता है । मुझे 'बैंड बाजा बारात' तथा 'सुल्तान' जैसी फ़िल्मों में यह देखकर दुख हुआ कि नारी-उत्थान एवं नारी-शक्ति के नाम पर नारी के एकांगी दृष्टिकोण तथा पुरुष के प्रति अवहेलनापूर्ण व्यवहार को स्थापित किया गया है एवं उसे न्यायोचित ठहराया गया है । हिन्दी फ़िल्मों में ऐसा पहली बार १९९९ में प्रदर्शित 'हम आपके दिल में रहते हैं' नामक फ़िल्म में किया गया था । ऐसा लगता है कि जिस तरह कुछ दशकों पूर्व तक की भारतीय फ़िल्में पुरुष-प्रधान दृष्टिकोण के आधार पर बनाई जाती थीं जिनमें नारी को नीचा दिखाते हुए पुरुष दर्शकों के अहं को संतुष्ट किया जाता था, वैसे ही अब भारतीय फ़िल्में नारी-प्रधान दृष्टिकोण से बनाई जाती हैं जिनमें पुरुष को नीचा दिखाते हुए (कथित आधुनिक) स्त्री दर्शकों के अहं को संतुष्ट करने का लक्ष्य साधा जाता है । लेकिन नर-नारी का पारस्परिक प्रेम तो दोनों में से किसी को भी नीचा दिखाने में निहित नहीं । सच्चा प्रेम दूसरे के दृष्टिकोण को समझने में है, अपने दृष्टिकोण को दूसरे पर आरोपित करने में नहीं । किसी से सच्चा प्रेम वह करता (या करती) है जो विभिन्न बातों को अपने प्रियतम के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास करता (या करती) है । अपने प्रिय के दृष्टिकोण एवं भावनात्मक आवश्यकता को समझना एवं तदनुरूप अपने आचरण को निर्धारित करना ही निस्वार्थ प्रेम है । 'सुल्तान' फ़िल्म में नायिका का यह दृष्टिकोण केवल एक दृश्य में दिखाई देता है जब उसे अपने गर्भवती होने का पता चलता है एवं वह नायक के पिता बनने की प्रसन्नता को अपने ओलंपिक में भाग लेने एवं पदक जीतने के लक्ष्य पर वरीयता देती है ।

'सुल्तान' फ़िल्म के आरंभिक भाग में में जब नायिका नायक को उसके किसी भी योग्य न होने का ताना देती है एवं कहती है कि स्त्री उस पुरुष से कैसे प्रेम कर सकती है जिसे वह सम्मान न दे सके तो मुझे महान साहित्यकार एवं स्वतन्त्रता सेनानी यशपाल जी के कालजयी उपन्यास 'झूठा-सच' की याद आ गई जिसमें यही बात कुछ भिन्न शब्दों में कही गई है - 'स्त्री सदैव पुरुष को अपने से बेहतर ही देखना चाहती है, वह उसी को अपना हृदय अर्पित करना सार्थक समझती है जो उसे अपने से बेहतर लगे' । मैं यशपाल जी के दृष्टिकोण से सहमत हूँ लेकिन मेरा प्रश्न यही है कि सम्मान किसका होना चाहिए - पुरुष के गुणों तथा स्त्री के प्रति उसकी भावनाओं का या फिर पुरुष की भौतिक सफलता का ? यदि स्त्री के लिए पुरुष की भौतिक सफलता ही सम्मान-योग्य है, पुरुष के वास्तविक गुण तथा उसका सच्चा प्रेम नहीं तो फिर स्त्री की स्वीकृति एवं समर्पण न तो सम्मान है और न ही प्रेम । वह तो सौदा है । और प्यार में सौदा नहीं होता । प्यार तो प्रिय को उसके गुण-दोषों के साथ यथावत् स्वीकार करने में है, उसे बलपूर्वक परिवर्तित करने में नहीं । न तो प्रेम शर्तों पर किया जा सकता है और न ही किसी को सम्मान देने के लिए उसकी भौतिक सफलता को शर्त बनाया जाना उचित है । मैंने 'आशिक़ी २' नामक अत्यंत प्रभावशाली फ़िल्म देखकर अनुभव किया था कि हृदय के तल से किया गया वास्तविक प्रेम भी स्वार्थी हो सकता है यदि वह प्रेयस या प्रेयसी की वास्तविक इच्छाओं एवं भावनाओं को समझे बिना उस पर अपनी आकांक्षाओं को आरोपित करते हुए किया जाए । उस फ़िल्म में नायक द्वारा नायिका को अपने से मुक्ति देने हेतु किया गया आत्मघात भी वस्तुतः उसकी स्वार्थपरता ही है क्योंकि ऐसा वह नायिका की वास्तविक भावनाओं एवं प्रसन्नता के स्रोत को समझे बिना अपने एकांगी दृष्टिकोण के आधार पर करता है । आवश्यक तो नहीं कि जिसे आप अपने प्रिय के लिए ठीक समझते हों, आपका प्रिय भी उसी को अपने लिए ठीक समझे । उसकी वास्तविक प्रसन्नता किसी और बात में भी हो सकती है । और आपके प्रेम की सत्यता की कसौटी यही है कि आप उस तथ्य को जानने एवं आत्मसात् करने का प्रयास करें ।

निजी अनुभव से मैं जानता हूँ कि सम्मान प्रेम से पहले आता है और बात चाहे पुरुष की हो या नारी की, प्रेम उसी से किया जा सकता है जिसे आप अपने हृदय में सम्मान भी देते हों । लेकिन प्रेम एवं सम्मान जैसी उदात्त भावनाएं सांसारिक सफलता पर निर्भर नहीं होनीं चाहिए । प्रेम एवं सम्मान की अर्हता स्थापित करने के लिए यह मानदंड उचित नहीं है क्योंकि सांसारिक दृष्टि से असफल व्यक्ति भी वस्तुतः गुणी हो सकता है एवं अवगुणी व्यक्ति भी भौतिक रूप से अत्यंत सफल हो सकता है । मूल्य प्रेमी के मन में अपने प्रति विद्यमान भावनाओं का होना चाहिए, न कि उसकी भौतिक उपलब्धियों का । व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रेम का पर्यायवाची नहीं हो सकता क्योंकि प्रेम हृदय करता है, मस्तिष्क नहीं । जो सशर्त है, वह और कुछ भी हो सकता है लेकिन प्रेम नहीं । मैं 'सुल्तान' फ़िल्म के नायक के स्थान पर होता तो फ़िल्म के अंत में अपने पास लौटने वाली नायिका को फ़िल्म 'पूरब और पश्चिम' में स्वर्गीय मुकेश जी द्वारा गाया गया अमर गीत सुनाते हुए कहता - 'कोई शर्त होती नहीं प्यार में मगर प्यार शर्तों पे तुमने किया . . . ।'

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34 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-4-21) को "श्वासें"(चर्चा अंक 4042) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. यशपाल जी की पंक्तियों की कूची से आपने अपनी समीक्षा में अत्यंत सार्थक रंग भर दिया है। बहुत तार्किक विश्लेषण से लबरेज है यह आलेख। बधाई और आभार।

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    1. आपके आगमन एवं प्रशंसा से भावाभिभूत हूँ आदरणीय विश्वमोहन जी। आपका आभार किन शब्दों द्वारा प्रकट करूं ?

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  3. वाह ! किसी फिल्म का इतना सुंदर विश्लेषण पहली बार पढ़ा है

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  4. अभी तक फिल्म देखी नहीं है. अब आपका लिखा पढ़कर देखने की इच्छा और प्रबल हो गयी है.

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  5. गहन भावों की पकड़ ,सच्च एक समालोचक सिर्फ गुण ही नहीं देखता उसकी दृष्टि समार रूप से कमियों को भी देखती है ।
    सुंदर विस्तृत वाख्या।
    धाराप्रवाह रोचक समीक्षा।
    साधुवाद।

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  6. सम्माननीय जितेन्द्र जी , यह फिल्म मैंने नहीं देखी पर आपकी विस्तृत और गहन समीक्षा से काफी कुछ समझ आगया .यह मुद्दा एक लम्बी बहस की अपेक्षा रखता है . पता नहीं यह किस दुखी आत्मा ने मान लिया है कि बिना चीखे चिल्लाए , बिना पुरुष को नीचा दिखाए ( चाहे वह एक सहृदय व्यक्ति हो ), हर बात में विरोधी रुख अपनाए बिना स्त्री सशक्त नहीं हो सकती .एक दूसरे पर तानाशाह की तरह शासन करने की चाह ही अत्याचार को जन्म देती है चाहे वह स्त्री की चाह हो या पुरुष की . फिल्मकार और टीवी सीरियल निर्माताओं ने लोकप्रियता का यही मूलमंत्र अपना रखा है . जिन्दगी के यथार्थ से दूर ...दूसरी बात अखरने वाली यह है कि हमारे यहाँ फिल्म के केन्द्र में प्रेम ही रहता है . वह भी बेअसर तरीके का . ऐसी फिल्में आती है ,चली जाती हैं .

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    1. आपकी विस्तृत एवं तर्कपूर्ण प्रतिक्रिया हेतु आपका हृदय से आभारी हूं गिरिजा जी। वैसे यदि कोई विपरीत कारण न हो तो मेरे आग्रह पर इस फ़िल्म का एक बार अवलोकन करें।

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  7. बहुत ही शानदार समीक्षा लेखन हेतु आपको बधाई और हार्दिक शुभकामनायें |सादर अभिवादन सहित

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  8. बहुत सुंदर शानदार समीक्षा ।प्रभावशाली आलेख ।

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  9. अतयंत प्रभावशाली तर्क, किसी भी शर्त पर आधारित प्रेम कभी सच्चा नहीं होता और प्रेम के लिए शर्त क्यों? सच्चे प्रेम में ना तो शरीरिक मो़ह होता है और ना ही भौतिक सुख सुविधाओं का मो़ह प्रेम ना पैसा देखता है और ना ही सफलता और जिस प्रेम में ये सारी चीजे देखी जाती है वो प्रेम, प्रेम नहीं मतलब होता है!

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    1. आपने ठीक कहा मनीषा जी। प्रेम में न तो शारीरिक मोह होता है, न ही भौतिक सुख-सुविधाओं, धन या सफलता को देखा जाता है। वैसे भी प्रेम ऐसी कोई बात देखकर नहीं किया जा सकता, प्रेम तो हो जाता है। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई आपको इस पृष्ठ पर देखकर। हृदय से आभार आपका।

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  10. जितेंद्र भाई, सही कहा आपने की जो शर्तो पर होता है वो प्रेम होता ही नही है। बहुत सुंदर समीक्षा।

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  11. फ़िल्मी पर्दा वह सब दिखा देता जो वास्तविक जिंदगी में सर्वथा संभव नहीं होता, कुछ भाग वास्तविक जिंदगी के करीब जरूर होते हैं लेकिन अधिकांश भाग उससे कोसों दूर ही होते हैं ,

    अच्छी विस्तृत समीक्षा प्रस्तुति फिल्म की

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    1. कविता जी, आपकी बात ठीक है लेकिन साहित्य हो या सिनेमा, वह समकालीन समाज के अनुरूप ही होता है तथा उस समयकाल में सामान्य नागरिकों की सोच को उजागर करता है। हृदयतल से आभार आपका।

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  12. स्त्री सशक्तिकरण के नाम पर किसी भी फिल्म या साहित्य में स्त्री को इस तरह हृदयहीन एवं स्वार्थी दिखाना समाज में गलत संदेश स्थापित करना हैं ।ये फिल्म तो मैंने नहीं देखी पर फिल्म बैंड बाजा बारात देखकर मेरे मन में भी यही भाव थे जिनका आपने इतना सुन्दर विश्लेषण किया है आपकी समीक्षा एवं प्रेम के प्रतग विचार दोनों ही बहुत लाजवाब हैं....।
    हमेशा की तरह शानदार समीक्षा।

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