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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

काश्मीर : जटिल समस्या की सरलीकृत व्याख्या से उसका समाधान संभव नहीं

(यह लेख जम्मू-काश्मीर में अगस्त 2019 में हुए प्रशासनिक परिवर्तनों से तीन वर्ष पूर्व लिखा गया था एवं मूल रूप से दिनांक चार अगस्त, 2016 को प्रकाशित हुआ था; अतः इसे उस समय के संदर्भों को ध्यान में रखते हुए पढ़ा जाए)

काश्मीर में अलगाववादी आंदोलन तथा उससे जुड़ी हिंसा भारत की एक गंभीर समस्या के रूप में देखी जाती है । विभिन्न मंचों पर विचारक समस्या की अपनी-अपनी व्याख्या तथा उससे उद्भूत अपने-अपने समाधान प्रस्तुत करते हैं । ऐसे अधिकतर लेख वस्तुनिष्ठ एवं निरपेक्ष न होकर लेखकों के अपने-अपने पूर्वाग्रहों एवं सामाजिक, धार्मिक अथवा राजनीतिक झुकावों के अनुरूप होते हैं तथा इस उलझी हुई समस्या को सरलीकृत रूप में देखते हैं । यही कारण है कि उनकी व्यावहारिक उपादेयता सीमित होती है । काश्मीर की गुत्थी जटिल है जिसे वहाँ की ज़मीनी सच्चाईयों से कटकर केवल सतही जानकारी एवं एकांगी दृष्टिकोण के द्वारा नहीं समझा जा सकता ।

एक दशक पूर्व फ़िल्मकार राहुल ढोलकिया ने इस विषय पर हिन्दी फिल्म 'लम्हा' प्रस्तुत की थी । फ़िल्म से दर्शकों तथा समीक्षकों दोनों ही को वृहत् अपेक्षाएं थीं जिन पर फ़िल्म खरी नहीं उतर सकी और इसीलिए आलोचना का पात्र बनी । लेकिन मैंने जब यह फ़िल्म इसके प्रदर्शन के समय ही बड़े चित्रपट पर देखी थी, तब भी एवं हाल ही में इसे इन्टरनेट पर पुनः देखने पर भी मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि फ़िल्मकार के अथक परिश्रम एवं निष्ठायुक्त प्रयास के प्रति समीक्षक एवं दर्शक दोनों की ही प्रतिक्रिया आवश्यकता से अधिक कठोर रही थी । राहुल ढोलकिया ने फ़िल्म की अवधि बहुत कम रखी तथा सीमित समय में ही इस जटिल समस्या के अनेक पक्षों को टटोलने का प्रयास किया । यही कारण रहा कि किसी भी पक्ष के साथ न्याय करने के लिए वे स्वयं को पर्याप्त समय नहीं दे सके । तथापि इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि उनका यह प्रयास एक शोधपूर्ण, निष्पक्ष एवं ईमानदार प्रयास था जिसकी प्रासंगिकता आज भी वैसी ही है जैसी कई वर्षों पूर्व तब थी जब यह फ़िल्म बनकर प्रदर्शित हुई थी ।

हाल ही में मैंने पत्रकार मनु जोसेफ़ का इस विषय पर एक लेख पढ़ा जिसमें उनकी यह बात मुझे बिलकुल सटीक लगी कि काश्मीर की समस्या को उलझाने के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी वे लोग हैं जो स्वयं काश्मीर में नहीं रहते लेकिन दूरस्थ नियंत्रण (रिमोट कंट्रोल) द्वारा काश्मीर की उन गतिविधियों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं जिनके दुष्परिणाम उन्हें स्वयं नहीं भुगतने पड़ते (क्योंकि वे तो भौतिक रूप से वहाँ रहते नहीं), ये दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं उन निर्दोषों को जो वहाँ रहते हैं लेकिन जिनके जीवन इन दूर बैठे शतरंज के खिलाड़ियों के हाथों मोहरों से अधिक कुछ नहीं होते । दूर बैठे साधन-सम्पन्न लोगों और नज़दीक रहकर भी जनसामान्य के दुख-दर्द से प्रभावित न होने वाले पाखंडी राजनेताओं के अपने-अपने स्वार्थ हैं जिनके अनुरूप वे समस्या की सरलीकृत व्याख्याएं गढ़ते एवं प्रचारित करते हैं ।

हाल ही में एक नवीन फ़िल्म के विज्ञापन-चित्र (टीज़र) में कहा गया है कि किसी भी बात के तीन पहलू होते हैं - प्रथम दूसरे पक्ष का दृष्टिकोण, द्वितीय अपना दृष्टिकोण और तृतीय सत्य । काश्मीर के मुद्दे पर भी यही बात लागू है क्योंकि इस पर अपना-अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले न तो अन्य पक्षों के दृष्टिकोणों को समझने का प्रयास करते हैं और न ही सत्य के उस भाग को जानने का प्रयास करते हैं जो कि निहित स्वार्थों द्वारा छुपा दिया जाता है तथा जिससे केवल भुक्तभोगी ही अवगत होते हैं । सियासतदानों के घड़ियाली आँसू आम काश्मीरी के दर्द को बयां नहीं कर सकते । आम काश्मीरियों के दर्द को काश्मीर में उनके मध्य रहकर ही समझा जा सकता है जिसके लिए उन विषम परिस्थितियों में रहने और उन संकटों का सामना करने का धैर्य तथा साहस होना चाहिए जिनसे वे बदनसीब रोज़ दो-चार होते हैं ।

राहुल ढोलकिया ने 'लम्हा' में जिस्मफ़रोशी के जहन्नुम में जाने के लिए मजबूर की जाने काश्मीरी लड़कियों के दर्द को उनके मुँह से यूं बयां करवाया है - 'हमें तो हर कोई लूटता है चाहे वे जेहादी हों या मिलिटरी वाले' । आम काश्मीरी का दर्द दरअसल इन्हीं और इनके जैसे अल्फ़ाज़ में ही छुपा है जो बरसों से बहरे कानों पर ही पड़ रहे हैं । भारतीय सेना के साहस और धैर्य दोनों ही की भूरि-भूरि प्रशंसा करने के साथ-साथ मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ कि काली भेड़ें उनमें भी हैं जिनकी पहचान करना बहुत आवश्यक है । यदि सेना में सभी देवदूत ही होते तो कोर्ट-मार्शल जैसी व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं होती । राहुल ढोलकिया ने जहाँ एक ओर ईमानदार सैनिकों के दर्द को उन्हीं के मुख से कहलवाया है जिन्हें जान जोखिम में डालकर कर्तव्य-निर्वहन करने के उपरांत भी पर्याप्त वेतन नहीं मिलता, वहीं दूसरी ओर भ्रष्ट सैनिकों की गतिविधियों पर भी प्रकाश डाला है जो सीमा पार के घुसपैठियों से भारी राशि रिश्वत के रूप में लेकर उनकी सुविधानुसार अल्पकाल के लिए चुपचाप सीमा खोल देते हैं और इस प्रकार अपनी जेबें भरने के लिए निर्दोषों के जीवन और काश्मीर की शांति के शत्रुओं के सहयोगी बन बैठते हैं । ढोलकिया ने उन महिलाओं का दर्द भी शिद्दत से बयां किया है जिनके परिवारों के पुरुषों को पूछताछ के नाम पर पुलिस वाले या सैनिक उनके घरों से बलपूर्वक उठा ले गए और फिर वे कभी नहीं लौटे । ऐसी दुखी और लाचार महिलाओं को उन उठा ले गए पुरुषों के बारे में पूछताछ करने के लिए पुलिस या सैन्य अधिकारियों तक पहुँचने पर यथोचित सहयोग भी नहीं दिया जाता है और स्पष्ट झूठ कह दिया जाता है कि उन्हें तो उठाया ही नहीं गया था । यह सैन्य उच्चाधिकारियों का ही दायित्व है कि वे काश्मीर में उपस्थित सैन्यबल की गतिविधियों पर पैनी दृष्टि रखें ताकि न तो कर्तव्यपरायण सैनिकों की समस्याएं अनसुनी रहें और न ही उनकी नाक के नीचे हो रही उनके ही कतिपय अधीनस्थों की भ्रष्ट, अनैतिक एवं क्रूर कार्रवाईयां अनदेखी रहें ।

ढोलकिया ने फ़िल्म की नायिका अज़ीज़ा (बिपाशा बसु) के चरित्र के माध्यम से संकेत किया है कि सही सोच वाली महिलाएं किस प्रकार वहाँ के हालात सुधारने में अहम भूमिका निभा सकती हैं यद्यपि ज़ाहिल एवं गुमराह मुस्लिम महिलाओं की एक भीड़ द्वारा अज़ीज़ा की पिटाई एवं मुँह काला किए जाने के एक हृदयविदारक दृश्य के माध्यम से उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उनकी राह किस सीमा तक कठिन हो सकती है । आतिफ़ (कुणाल कपूर) के चरित्र के माध्यम से उन्होंने बताया है कि काश्मीरियों की खुशहाली बंदूक के रास्ते से नहीं आ सकती लेकिन चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में सम्मिलित होकर वे अपनी समस्याओं के हल के लिए अपनी आवाज़ सही माध्यम से बुलंद कर सकते हैं और अपने भाग्य-नियंता स्वयं बन सकते हैं । आतिफ़ द्वारा अपने चुनाव प्रचार के दौरान जम्मू में काश्मीरी पंडितों के शिविर में जाकर उनके साथ खड़े होने तथा उनसे काश्मीर घाटी में वापस लौटने का आह्वान करने के प्रसंग से ढोलकिया ने इस अटल सत्य को रेखांकित किया है कि काश्मीरी मुस्लिम तभी अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं जब वे पंडितों को भी काश्मीर का अंग समझें तथा उन्हें घाटी में पुनः लौटने में व्यावहारिक सहयोग तथा भावनात्मक एवं नैतिक समर्थन दें । यह दृष्टिकोण वस्तुतः फारूक़ अब्दुल्ला एवं महबूबा मुफ़्ती जैसे स्वार्थी एवं दोगले राजनेताओं के मुँह पर तमाचा है जो मज़हबी अलगाववाद को परोक्ष समर्थन देते हैं तथा यही चाहते हैं कि काश्मीरी पंडित घाटी में कभी न लौटें एवं अंततः घाटी पूर्णतः मुस्लिम जनसंख्या वाला प्रदेश बन जाए

मुझे यह देखकर दुख एवं आश्चर्य दोनों होते हैं कि काश्मीरियों के दर्द की बात करने वाले सभी लेखक, बुद्धिजीवी एवं राजनेता जम्मू एवं लद्दाख की समस्याओं के हल पर चुप्पी साध लेते हैं या ऐसा प्रदर्शन करते हैं मानो जम्मू एवं लद्दाख में कोई समस्या है ही नहीं । सत्य यह है कि अलगाववादी आंदोलन तो काश्मीर के स्थान पर जम्मू में होना चाहिए था जहाँ की समस्याओं के प्रति इस राज्य की तथा केंद्र की भी सभी सरकारों ने उपेक्षा ही दर्शाई । सभी संसाधन काश्मीर घाटी में झोंक दिये जाते हैं एवं विधान सभा का ढाँचा प्रारम्भ से ही ऐसा बनाया गया है कि जम्मू का व्यक्ति मुख्यमंत्री बन ही नहीं सकता । जब जम्मू से आने वाले राजनेता ग़ुलाम नबी आज़ाद को उनके दल ने मुख्यमंत्री बनाया था तो महबूबा मुफ़्ती इसी बात को लेकर सड़कों पर उतर आई थीं कि जम्मू का व्यक्ति मुख्यमंत्री कैसे बना ? ऐसे में कोई ग़ैर-मुस्लिम तो राज्य का मुख्यमंत्री बनने की सोच तक नहीं सकता । लद्दाख में रहने वाले बौद्धों की तो बात ही छोड़ दीजिए । उनकी सुध लेने की तो किसी को भी फ़ुरसत नहीं । हज़ारों करोड़ रुपया काश्मीर घाटी में फूंक दिये जाने के उपरांत भी वहाँ अशांति ही है और विकास नाम की चिड़िया तक दिखाई नहीं देती । सब ओर काश्मीर-काश्मीर का ही शोर सुनाई देता है । जम्मू और लद्दाख की पीड़ा इसी शोर में खो जाती है जिसे सुनने वाला कोई नहीं

तीन दशक पूर्व कांग्रेसी नेता एवं हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल ने पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-काश्मीर को मिलाकर 'महापंजाब' नामक एक वृहत् राज्य बनाए जाने का सुझाव दिया था । उनके आला दिमाग़ के मुताबिक ऐसा करने से न केवल पंजाब एवं हरियाणा के मध्य सीमा तथा जल संबंधी विवाद समाप्त हो सकते थे वरन जम्मू-काश्मीर से जुड़ी समस्याओं के भी समाधान ढूंढे जा सकते थे । उनका यह सुझाव अव्यावहारिक ही नहीं था, उनके दिमाग़ी दिवालियेपन का भी प्रमाण था । लेकिन इसका उलटा करने के विषय में सोचा जाना चाहिए तथा विचार पर स्थिरमति हो जाने के उपरांत उसे अमली जामा पहनाया जाने का भी सार्थक प्रयास किया जाना चाहिए । जम्मू-काश्मीर राज्य को एक बनाकर रखने का अब कोई अर्थ नहीं है विशेष रूप से तब जबकि काश्मीर घाटी एवं जम्मू की जनता में स्पष्ट राजनीतिक विभाजन भी हो चुका है जो विगत विधानसभा चुनाव में दृष्टिगोचर हुआ था । अतः एक साहसिक कदम उठाते हुए इस राज्य को काश्मीर तथा जम्मू नाम के दो पृथक राज्यों तथा लद्दाख नाम के केन्द्रशासित प्रदेश में विभाजित कर दिया जाना चाहिए । लद्दाख पूर्णतः केंद्र के नियंत्रण में रहे जबकि जम्मू की अपनी पृथक विधानसभा हो, पृथक शासन-प्रशासन हो । संविधान का विवादित अनुच्छेद ३७० केवल काश्मीर घाटी पर लागू हो जबकि जम्मू एवं लद्दाख को उसके दायरे से बाहर कर दिया जाए । ऐसे में न केवल सीमापार से संचालित होने वाले आतंकवाद को काश्मीर घाटी में ही केंद्रीकृत करके उससे बेहतर ढंग से निपटा जा सकेगा बल्कि जम्मू एवं लद्दाख के सदा से उपेक्षित प्रदेशों के साथ भी न्याय हो सकेगा

जैसा कि मैंने पहले भी कहा, राज्य के विकास के नाम पर काश्मीर घाटी में हजारों करोड़ रुपये का पैकेज झोंकने से काश्मीरियों को अपना नहीं बनाया जा सकता जो कि भारत को भी उसी तरह से एक दूसरा देश समझते हैं जिस तरह से वे पाकिस्तान को समझते हैं । भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७० तथा महाराजा हरी सिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय-पत्र का संदर्भ भी व्यर्थ है क्योंकि  १९४७ से अब तक झेलम में इतना पानी बह चुका है कि ये बातें अपना अर्थ खो चुकी हैं एवं अलगाववादी आंदोलन की आँधी से प्रभावित काश्मीरी इन्हें न समझते हैं, न समझना चाहते हैं । काश्मीर को केवल सेना के बल पर स्थायी रूप से भारत से जोड़कर नहीं रखा जा सकता । सुशिक्षित काश्मीरी मुस्लिम युवक भी मज़हबी अपनत्व के कारण पाकिस्तान से ही हमदर्दी रखते हैं जबकि भारत के प्रति कोई सौहार्द्र अपने मन में रखे बिना भी भारत के ही संसाधनों का उपयोग अपने हित-साधन के लिए करने में वे किसी झिझक का अनुभव नहीं करते । अब उनका स्वप्न एक सार्वभौम इस्लामी काश्मीर राज्य का है जो शरीयत के अनुरूप चले एवं जो भारत व पाकिस्तान दोनों से ही स्वतंत्र हो । पाकिस्तान की खोखली एवं बनावटी हमदर्दी में बहकर वे यह नहीं समझ पा रहे कि पाकिस्तान ही उनका यह स्वप्न कभी पूरा नहीं होने देगा । भारतीय सेना के सभी अच्छे कार्यों के बावजूद उसकी छवि काश्मीरी अवाम की नज़र में उसी तरह बिगड़ी हुई है जिस तरह पुलिस की बिगड़ी हुई है । जम्मू-काश्मीर को जब हम भावनात्मक रूप से अपनेपन का अहसास कभी नहीं करवा सके तो केवल संसाधनों को झोंककर और सैन्य बलों को तैनात करके उसे भारत का अभिन्न अंग बनाए रखने की आशा करना स्वयं को धोखा देना ही है । हम में तो इतनी भी हिम्मत नहीं है कि पाक-अधिकृत काश्मीर को आज़ाद करवा सकें । वस्तुतः सैन्यबल का प्रयोग तो इस कार्य में होना चाहिए था । १९९९ में कारगिल में घुसपैठ करके एवं हम पर अप्रत्याशित युद्ध थोपकर पाकिस्तान ने हमें एक ऐतिहासिक भूल को सुधारने का ऐतिहासिक अवसर दिया था जिसे हमारी सरकार ने कतिपय पूर्ववर्ती सरकारों की ही लीक पर चलते हुए गंवा दिया । मौजूदा हालात में तो संयुक्त राष्ट्र के संज्ञान में जनमत-संग्रह में भी कोई हर्ज़ नहीं है बशर्ते कि वह जनमत-संग्रह काश्मीर के दोनों ही भागों में एक साथ समान रूप से हो तथा उसके आधार पर संयुक्त काश्मीर के लिए निर्णय लिया जाए

तथापि यदि हम काश्मीर को सच्चे मन से भारतवर्ष का अभिन्न अंग मानते हैं एवं उसे अपने साथ बनाए रखना चाहते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वहाँ की जनता की जिस सेक्यूलर मानसिकता के कारण काश्मीर मज़हबी उन्माद की नींव पर बने पाकिस्तान के स्थान पर उदार भारत के साथ जुड़ा था, वह अब हमारी अपनी ही भूलों एवं दुर्बलताओं के कारण तिरोहित हो चुकी है । उसे पुनः जागृत करने के लिए हज़ारों करोड़ के पैकेज जैसा कोई शॉर्टकट या वहाँ जाकर दीवाली मनाने जैसा कोई स्टंट या सैन्यबल के माध्यम से शक्ति-प्रदर्शन काम नहीं आने वाला । काश्मीरियों को कृतघ्न मानकर उनके लिए अपने मन में वितृष्णा रखना भी अनुचित होगा । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक दीर्घकालिक परियोजना बनाकर अत्यंत धैर्य के साथ कार्य आरंभ करना होगा, मनोमस्तिष्क खुला रखते हुए पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी तथ्यों पर निरपेक्ष भाव से विचार करना होगा, हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों ही समुदायों के घावों पर मरहम लगाना सीखना होगा, तोड़ने वालों को मानसिक रूप से पराजित करके लोगों को एकदूसरे से जोड़ना होगा, वाणी में संयम एवं उदारता बरतनी होती तथा अन्याय से पीड़ित लोगों को वास्तविक अर्थों में न्याय देना होगा क्योंकि अन्याय-पीड़ित के मन के घाव तभी भरते हैं और पीड़ा तभी घटती है जब उसे न्याय मिलता है । राहुल ढोलकिया की फ़िल्म 'लम्हा' का नायक विक्रम (संजय दत्त) भारत सरकार का एक गुप्तचर ही नहीं वरन एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति भी है जो एकांगी दृष्टिकोण न रखते हुए संतुलित भाव से प्रत्येक तथ्य का विश्लेषण करता है एवं तदनुरूप अपना कर्तव्य निर्धारित करता है । ऐसे ही संवेदनशील प्रतिनिधियों को काश्मीर में वहाँ के जनसामान्य के बीच रहते हुए वहाँ की जटिल एवं बहुआयामी परिस्थिति को समझकर काश्मीरियों को अपना बनाने का दायित्व सौंपना होगा । तभी इस मकड़ी के जाले की भांति उलझी हुई जटिल समस्या का वांछित समाधान हो सकेगा 

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12 टिप्‍पणियां:

  1. कश्मीर समस्या पर मनोमस्तिष्क खुला रखते हुए पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी तथ्यों पर निरपेक्ष भाव से विचार करना होगा। आपकी इस बात से मैं पूर्णतः सहमत हूं, जितेंद्र भाई। विचारणीय आलेख।

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  2. बढ़िया लेख ... अब तो कुछ समस्याएं सुलझी भी होंगी तो कुछ नयी भी आ रही होंगी ... काली भेड़ें हर क्षेत्र में होती हैं ... आँख खोलने वाला लेख .

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  3. आप ठीक कह रही हैं संगीता जी। हृदय से आभार आपका।

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  4. कश्मीर की समस्या पर बहुत तर्कपूर्ण आलेख. भले ही यह पुराना लेख है लेकिन अभी के लिए भी उतना ही सार्थक. शुभकामनाएँ.

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