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रविवार, 7 फ़रवरी 2021

बदला तो आपने हमसे ले लिया सुजॉय भाई

मैंने तक़रीबन एक दशक पहले हिंदी फ़िल्मों की समीक्षाएं लिखना आरंंभ इसलिए किया था क्योंकि मैंने विभिन्न समीक्षकों की (जिनमें कई प्रख्यात समीक्षक भी सम्मिलित थे) द्वारा की गई समीक्षाओं को न केवल सतही वरन पक्षपातपूर्ण भी पाया था । इस स्थिति में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है जिसका सत्यापन एक ही फ़िल्म की विभिन्न समीक्षाएं पढ़कर अत्यंत सरलता से किया जा सकता है । स्पष्टतया ऐसा करके समीक्षक वस्तुपरक समीक्षा करने के अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं और अपनी समीक्षा पर विश्वास करके फ़िल्म देखने जाने वाले दर्शक-वर्ग के साथ अन्याय ही करते हैं जो फ़िल्म देखने के उपरांत स्वयं को ठगा गया अनुभव करता है ।  

जब कोई फ़िल्मकार एक प्रशंसित अथवा व्यावसायिक रूप से सफल एवं लोकप्रिय फ़िल्म बनाकर संचार माध्यमों में एवं फ़िल्म-जगत में प्रतिष्ठा अर्जित कर लेता है तो उसकी आगामी फ़िल्म के लिए उसके प्रदर्शन से पहले से ही एक सकारात्मक धारणा बना ली जाती है और तदनुरूप उसकी फ़िल्म पर उन प्रशंसाओं की अनावश्यक वर्षा की जाती है जिसकी वह अधिकारिणी नहीं होती (यद्यपि इसका विपरीत भी होता है जब अपेक्षा पर खरा न उतरने के कारण फ़िल्मकार को आलोचना सहनी पड़ती है) । संजय लीला भंसाली इसका सर्वोत्तम उदाहरण हैं जिनकी 'हम दिल दे चुके सनम' (१९९९) से अर्जित प्रतिष्ठा आज तक उनके काम आ रही है और फ़िल्म समीक्षकों ने विगत एक दशक में आई उनकी कई फ़िल्मों की आँखें बंद करके अनावश्यक प्रशंसा ही की है और उनकी कमियों को अनदेखा किया है ।
यही बात सुजॉय घोष के संदर्भ में भी लागू होती है जिन्होंने अपनी 'कहानी' (२०१२) से दर्शकों तथा समीक्षकों दोनों ही की सराहना प्राप्त की थी और उस फ़िल्म को टिकट खिड़की पर भी भरपूर सफलता मिली थी । उनकी बाद की फ़िल्में उस स्तर को नहीं छू सकीं लेकिन उनकी प्रतिष्ठा यथावत रही । अब वे अमिताभ बच्चन एवं तापसी पन्नू की प्रमुख भूमिकाओं से युक्त 'बदला' लेकर आए हैं । यद्यपि मैं रहस्यकथाओं का रसिया हूँ तथापि मैंने फ़िल्म देखने से पूर्व उसकी अनेक समीक्षाएं (हिंदी तथा अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाओं में) पढ़ीं और अधिकांश समीक्षाओं में फ़िल्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई ही पाई । परिणामतः एक अच्छी, मनोरंजक तथा प्रभावशाली फ़िल्म देखने की अपेक्षा लिए मैं सिनेमाघर पहुँचा और बुरी तरह ठगा गया । 
सुजॉय घोष मौलिक कथाकार नहीं हैं (वैसे अब बॉलीवुड में मौलिक सर्जक बचे ही कितने हैं) । वे किसी-न-किसी विदेशी फ़िल्म की कथा लेकर उसे भारतीय पात्रों के साथ प्रस्तुत करते हैं । उन्होंने एक बहु-प्रशंसित स्पेनी फ़िल्म 'कोंट्राटिएंपो' (जिसका शाब्दिक अर्थ 'धक्का' या 'असफलता' होता है) जो अंग्रेज़ी में 'द इनविज़िबल गेस्ट'  के नाम से प्रदर्शित हुई थी, की कथा को अपने भारतीय (हिंदी) संस्करण के लिए लिया है ।  चूंकि इस कथा का ढाँचा ऐसा है कि इसे भारतीय परिवेश में स्थापित नहीं किया जा  सकता था  और घटनाओं का स्थल किसी भारतीय नगर को नहीं बनाया जा सकता था,  इसलिए उन्होंने घटनाक्रम का स्थान ग्लासगो (स्कॉटलैंड)  रखा है । इससे निश्चय ही उन्हें विदेशी लोकेशन के मनोहर बर्फ़ानी वातावरण की सुंदरता दिखाने का पर्याप्त अवसर मिला है और फ़िल्म के छायाकार (अविक मुखोपाध्याय) ने अपने छायांकन कौशल का अत्यंत प्रभावी प्रदर्शन किया है ।  पर फ़िल्म की विडम्बना यह है कि यह दर्शनीयता ही इस फ़िल्म का प्रमुख सकारात्मक पक्ष है जिसके लिए यह फ़िल्म देखी जा सकती है ।

सुजॉय घोष ने जिस स्पेनी फ़िल्म की कथा 'बदला' के लिए चुनी है, वह नेटफ्लिक्स पर सहजता से उपलब्ध है और अब भारत में नेटफ्लिक्स देखने वाले बहुतायत में हैं । इसलिए जिन लोगों ने मूल फ़िल्म देख ली है, उन्हें तो 'बदला' वैसे भी फीकी ही लगेगी क्योंकि सुजॉय घोष ने मूल कथा का अनुकूलन (एडेप्टेशन) नहीं किया है बल्कि उसे हू-ब-हू (केवल पात्रों का लिंग परिवर्तन करके) नक़ल कर लिया है । जब लोग असल देख सकते हैं (या देख चुके हैं) तो वे नक़ल क्यों देखेंगे ? दूसरी बात यह कि चूंकि नक़ल में भी अक़्ल की ज़रूरत होती है, अक़्ल ठीक से न लगाने के कारण सुजॉय घोष औंधे मुँह गिरे हैं । वे इस तथ्य को बिसरा बैठे कि भारतीय दर्शकों और विदेशी दर्शकों में बहुत अंतर होता है । फ़िल्म बेहद ऊबाऊ है और एक ही कमरे में हो रहे लम्बे-लम्बे वार्तालाप श्रोतागण के सर में दर्द कर देने के लिए पर्याप्त हैं । आपसी वार्तालाप में फ़िल्म के दोनों मुख्य पात्र एक-दूसरे को मूर्ख बनाना चाह रहे हैं लेकिन फ़िल्म के दर्शक को लगता है मानो वे एक-दूसरे को नहीं, उसे अर्थात फ़िल्म देखने वाले को मूर्ख बनाने का प्रयत्न कर रहे हों ।
'बदला' एक रहस्यकथा है जिसका नाम ही उसके कथानक में छुपे रहस्य की पोल खोल देने के लिए कुछ कम नहीं । उस पर तुर्रा यह कि अधिकांश दर्शक (जो कि निश्चय ही सुजॉय घोष से ज़्यादा समझदार हैं) वास्तविक रहस्य को पहले ही भांप जाते हैं । जिस अंतिम घुमाव (ट्विस्ट) का ढोल कई समीक्षकों ने ज़ोर-शोर से पीटा है, वह ऐसा बोदा और अविश्वसनीय घुमाव है (जो रहस्य को अंतिम रूप से खोल देता है) कि वह एक विवेकशील दर्शक को अपना सर पकड़ने तथा इस अनुभूति के साथ सिनेमाघर छोड़ने के लिए विवश कर देता है कि फ़िल्म बनाने वाला उसे परले दरज़े का बेवक़ूफ़ समझता है । ऐसे तथाकथित ट्विस्ट के साथ यदि कोई जासूसी उपन्यास लिखा जाता तो चल जाता (स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा ऐसा टोटका अपने हिंदी उपन्यासों में बहुतायत से काम में लेते थे) लेकिन फ़िल्म में इसे देखकर फ़िल्म की कहानी लिखने वाले की और उसे निर्देशित करने वाले की (साथ में ऐसी फ़िल्म देखने के लिए अपनी भी) अक़्ल पर तरस ही खाया जा सकता है । समीक्षक इसे रहस्यकथाएं (सस्पेंस-थ्रिलर) पसंद करने वाले दर्शकों के लिए बेहतरीन फ़िल्म बता रहे हैं लेकिन सच यह है कि एक-से-बढ़कर-एक उम्दा रहस्यकथाएं पढ़ने और देखने वाले ऐसे दर्शक इस फ़िल्म को देखकर ख़ुद को बुरी तरह से ठगा गया महसूस करेंगे ।

सुजॉय घोष ने एक विदेशी कहानी को बलपूर्वक भारतीय जामा पहनाने के लिए अमिताभ बच्चन के संवादों में महाभारत के उद्धरण डाले हैं जिनका कथा से कोई लेना-देना नहीं है और वे सब कथा पर उसी तरह थोपे गए लगते हैं जिस तरह इस विदेशी कहानी पर भारतीय पात्र थोपे गए हैं । यह काम काली मिट्टी में तुलसी का पौधा लगाने के प्रयास जैसा ही है । यदि सुजॉय घोष ने विदेशी फ़िल्म की कहानी की सीधे-सीधे नक़ल करने के स्थान पर उससे केवल प्रेरणा ली होती और भारतीय परिवेश में स्वाभाविक लगने वाली भारतीय कहानी लिखी होती तो वे सम्भवतः एक बेहतर फ़िल्म बना पाते ।
फ़िल्म का अभिनय पक्ष भी सशक्त नहीं है । अमिताभ बच्चन का अभिनय प्रभावी है लेकिन उनका पात्र मनोरंजन कम करता है, देखने वाले में चिढ़ अधिक उत्पन्न करता है । तापसी पन्नू के अभिनय के कसीदे बेवजह पढ़े जा रहे हैं । हाँ, अमृता सिंह का अभिनय निस्संदेह स्मरणीय है । मलयाली अभिनेता टोनी ल्यूक का दक्षिण भारतीय व्यक्ति के ढंग से संवाद बोलना फ़िल्म देखने वाले के जले पर नमक छिड़कने के समान ही काम करता है (चापलूसी की हद यह है कि कुछ समीक्षक इसे भी फ़िल्म की ख़ूबी बता रहे हैं) । पार्श्व संगीत ठीक है ।

सारांश यह कि पक्षपाती समीक्षकों की अधकचरी समीक्षाओं पर भरोसा करके यदि आप यह फ़िल्म देखेंगे तो मेरी ही तरह ठगे जाएंगे । वैसे फ़िल्म के निर्माता (शाहरुख़ ख़ान की कंपनी रेड चिलीज एंटरटेनमेंट) पहले ही सप्ताह में फ़िल्म की लागत और अपना लाभ तो वसूल कर ही चुके हैं लेकिन सुजॉय घोष ने यह फ़िल्म बनाकर अपनी साख पर बट्टा ही लगाया है । उन्होंने 'बदला' वस्तुतः उस विशाल भारतीय दर्शक-वर्ग से ले लिया है जो उनकी प्रतिभा एवं कार्यनिष्ठा पर विश्वास करके उनकी यह फ़िल्म देखने गया था । 

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