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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

बायोपिक की भेड़चाल

(यह लेख मूल रूप से 6 फ़रवरी, 2019 को प्रकाशित हुआ था) 

भारतीय सिनेमा में किसी भी विषय पर बनी कोई एक फ़िल्म यदि व्यावसायिक रूप से सफल हो जाती है तो वैसी ही फ़िल्में बनाने की एक ऐसी प्रवृत्ति चल पड़ती है जिसे भेड़चाल कहा जाए तो अनुचित न होगा क्योंकि इस अंधानुकरण में प्रायः व्यावसायिक पक्ष इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि विवेक एवम् तर्क पार्श्व में चले जाते हैं । और जब दर्शक-वर्ग की भावनाओं से खिलवाड़ करके येन-केन-प्रकारेण लाभार्जन ही प्रधान हो जाए तो न तो प्रस्तुत तथ्यों की प्रामाणिकता का ध्यान रखा जाता है एवम् न ही इस बात का कि मनोरंजन की चाशनी में भिगोकर दर्शकों को कोई अनुचित सीख तो नहीं दी जा रही है । चूंकि यह एक भेड़चाल होती है जिसमें प्रवृत्त लोग अपने नेत्र बंद रखकर चलते हैं, अतः प्रत्येक ऐसा प्रयास व्यावसायिक दृष्टि से सफल ही हो, यह आवश्यक नहीं । कभी-कभी ऐसी फ़िल्में टिकट खिड़की पर असफल भी हो जाती हैं । ऐसी ही एक भेड़चाल बायोपिक की है जिसमें किसी प्रसिद्ध व्यक्ति (सेलिब्रिटी) की जीवन-कथा अथवा उसके एक भाग को रूपहले चित्रपट पर प्रस्तुत किया जाता है । विगत कुछ वर्षों से यह भेड़चाल बढ़ती ही जा रही है ।

यदि ऐतिहासिक चरित्रों के जीवन की कुछ सच्ची या मिथक सरीखी घटनाओं पर आधारित फ़िल्मों यथा राजा हरिश्चंद्र (१९१३), संत तुकाराम (१९३६), पुकार (१९३९), सिकंदर (१९४१), भक्त कबीर (१९४२) आदि को न गिना जाए तो महान फ़िल्मकार स्वर्गीय वी. शांताराम द्वारा निर्मित-निर्देशित-अभिनीत फ़िल्म - डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी (१९४६) को सम्भवतः भारत में निर्मित पहली बायोपिक कहा जा सकता है । चीन-जापान युद्ध के दौरान चीन जाकर घायलों एवम् रोगियों की सेवा-शुश्रूषा में अपना जीवन होम कर देने वाले इस महान भारतीय चिकित्सक के त्यागमयी जीवन को दर्शाती हुई देश की स्वतंत्रता तथा तकनीकी विकास के युग से पूर्व सीमित संसाधनों से बनी यह श्वेत-श्याम फ़िल्म अत्यंत प्रभावशाली है क्योंकि इसे वी. शांताराम ने अपने हृदय की गहनता से बनाया था ।

देश की स्वतंत्रता के उपरांत समय-समय पर बायोपिक बनती रहीं यथा - झांसी की रानी (१९५३), मिर्ज़ा ग़ालिब (१९५४), चंद्र शेखर आज़ाद (१९६३), मीना कुमारी की अमर कहानी (१९७९), सरदार (१९९३), डॉक्टर बाबासाहेब अम्बेडकर (२०००), अशोक (२००१), ज़ुबैदा (२००१), मंगल पांडे (२००५), शाहिद (२०१३) आदि । भगत सिंह के जीवन पर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह (१९५४), शहीद भगत सिंह (१९६३), शहीद (१९६५) अमर शहीद भगत सिंह (१९७४) आदि फ़िल्में बनीं और इक्कीसवीं सदी में (२००२ में) तो उनके जीवन पर पाँच-पाँच फ़िल्में एक साथ बनकर आईं । सुभाष चंद्र बोस की सेना में सम्मिलित रहे हेमेन गुप्ता ने उनके जीवन को अपनी फ़िल्म नेताजी सुभाष चंद्र बोस (१९६६) में दर्शाया तो चार दशकों के उपरांत श्याम बेनेगल ने सहारा इंडिया द्वारा निर्मित फ़िल्म नेताजी सुभाष चंद्र बोस - द फ़ॉरगॉटन हीरो(२००५) में उस महानायक के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पाँच वर्षों को ही अत्यंत विस्तार से प्रस्तुत किया । हाल ही में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की भी बायोपिक बनकर प्रदर्शित हो  गई है – वो जो था एक मसीहा मौलाना आज़ाद । और साथ ही प्रदर्शित हो चुकी है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जीवन-कथा पर बनी नवीनतम फ़िल्म मणिकर्णिका। इन ढेर सारी फ़िल्मों में से कोई फ़िल्म अच्छी बनी थी तो कोई साधारण । विदेशी फ़िल्मकार रिचर्ड एटनबरो ने गांधी(१९८२) जैसी ऑस्कर पुरस्कार विजेता फ़िल्म बनाई जो मूल रूप से अंग्रेज़ी में बनी थी तो श्याम बेनेगल ने द मेकिंग ऑव द महात्मा (१९९६) बनाकर सिद्ध किया कि भारतीय भी राष्ट्रपिता के जीवन पर श्रेष्ठ फ़िल्म बना सकते हैं । गांधी जी के ज्येष्ठ पुत्र हरिलाल गांधी पर भी बायोपिक बनी – गांधी माय फ़ादर (२००७) जिसे पर्याप्त सराहना मिली । महान चित्रकार राजा रवि वर्मा की बायोपिक रंग रसिया (२०१४) भी प्रशंसित हुई तो अकेले ही पहाड़ काटकर राह बनाने वाले दशरथ मांझी की प्रेरक गाथा सुनाने वाली फ़िल्म मांझी द माउंटेन मैन (२०१५) भी, अपने अदम्य साहस से अपहृत विमान के यात्रियों की प्राण-रक्षा करते हुए आत्मोसर्ग करने वाली विमान-परिचारिका नीरजा भनोट को चित्रपट पर साकार करने वाली फ़िल्म नीरजा (२०१६) भी और प्रसिद्ध कथाकार सआदत हसन मंटो के जीवन एवं कथाकर्म पर बनी फ़िल्म मंटो (२०१८) भी ।     

लेकिन समस्या तब हुई जब भाग मिल्खा भाग (२०१३) और मैरी कॉम (२०१४) जैसी बायोपिकों की व्यावसायिक सफलता ने भारतीय फ़िल्मकारों में बायोपिक बनाकर पैसा कमाने की ऐसी भेड़चाल आरम्भ कर दी जिसमें तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना निर्लज्ज रूप से सामान्य बात हो गई । भाग मिल्खा भाग फ़िल्म भी सम्पूर्ण ईमानदारी से नहीं बनाई गई थी और महान एथलीट मिल्खा सिंह के जीवित होने की बावजूद सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी बातें दिखाई गई थीं जो कि तथ्यों से परे थीं । इसे तो जनता झेल गई लेकिन उसके बाद अज़हर, एम. एस. धोनी, संजू और द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर जैसी बायोपिक आने लगीं हैं जो न केवल अभी तक सक्रिय लोगों के जीवन पर आधारित हैं बल्कि स्पष्टतः जनता को मूर्ख समझकर अपनी तिज़ोरियां भरने के उद्देश्य से प्रेरित हैं । भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री की बायोपिक भी आने वाली है जिसका इस चुनावी वर्ष में वही अभीष्ट हो सकता है जो भूतपूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की तथाकथित बायोपिक द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के निर्माण के पीछे रहा है । कुछ ऐसा ही इंदु सरकार (२०१७) के द्वारा भी किया गया था । यानी तथाकथित बायोपिक एवम् यथार्थवादी फ़िल्मों के माध्यम से अर्थलाभ के साथ-साथ अब राजनीतिक लक्ष्य भी साधे जा रहे हैं ।

मेरी निजी राय में बायोपिक एवम् जीवनियां केवल उन हस्तियों के जीवन पर बनाई जानी या लिखी जानी चाहिए जो या तो दिवंगत हो चुके हों या अपने जीवन के सक्रिय भाग से बाहर आ चुके हों (अर्थात् अपने कर्मक्षेत्र से रिटायर हो चुके हों) । महिला मुक्केबाज़ मैरी कॉम,  हॉकी खिलाड़ी संदीप सिंह, क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी आदि अभी तक सक्रिय हैं और उनके सक्रिय जीवन में बायोपिक के प्रदर्शन के उपरांत भी बहुत कुछ घटित हुआ है जो यह सिद्ध करता है कि उन पर बायोपिक का बनना समयानुकूल नहीं था, उसके लिए कुछ वर्षों तक प्रतीक्षा की जानी चाहिए थी । अभी भी सक्रिय भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल के बायोपिक के  निर्माण की तैयारियां हो चुकी हैं । सक्रिय (और दिवंगत भी) राजनेताओं के मामले में तो यह और भी अनुचित है क्योंकि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता से सीधे रूप से जुड़ने वाले राजनीतिज्ञों का न तो परदे पर महिमामंडन ही वांछनीय है और न ही उनकी एकपक्षीय आलोचना । यदि ऐसा होता है तो फिर वह सिनेमा नहीं है, राजनीतिक प्रचार (या दुष्प्रचार) है और इस प्रभावशाली माध्यम का दुरूपयोग है ।

तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और विकृत करने का काम केवल बायोपिक ही नहीं, वे फ़िल्में भी कर रही हैं तो तथाकथित रूप से किसी सत्य घटना या घटनाक्रम पर आधारित हैं । इसका सबसे अच्छा उदाहरण भारतीय हॉकी दल के १९४८ के लंदन ओलम्पिक में अंतिम मैच में इंग्लैंड को पराजित करके स्वर्ण पदक जीतने की घटना पर आधारित फ़िल्म गोल्ड(२०१८) है जिसमें स्थापित तथ्यों की निर्लज्जता से धज्जियां उड़ाई गई हैं । १९९८ के पोखरण विस्फोट पर आधारित परमाणु(२०१८) एक अच्छी फ़िल्म होते हुए भी तथ्यपरक नहीं थी और उसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री का अनावश्यक महिमामंडन किया गया था । यही बात हाल ही में प्रदर्शित रीपर भी लागू होती है और मेघना गुलज़ार द्वारा निर्देशित राज़ी(२०१८) पर भी जिसका आधार एक असत्यापित तथ्यों को लेकर लिखा गया उपन्यास (कॉलिंग सहमत) है जबकि इन्हीं मेघना गुलज़ार ने आरुषि हत्याकांड के आधार पर तलवार’ (२०१५) सरीखी प्रामाणिक फ़िल्म बनाई थी । 

पुस्तक-लेखन एवम् फ़िल्म-निर्माण वृहद उत्तरदायित्व का वहन करने वाले कार्य हैं क्योंकि अपनी प्रभावशीलता तथा व्यापक आकर्षण (मास अपील) के कारण ये जनमानस को प्रेरित तथा उद्वेलित करते हैं । अतः इन्हें बनाने वालों को मनोरंजन परोसने के नाम पर तथ्यों के साथ अनावश्यक  खिलवाड़ करने की छूट नहीं दी जा सकती । जनभावनाओं को भुनाकर धनोपार्जन करने में भी अपने नैतिक दायित्व का पूर्णता एवम् सत्यनिष्ठा से निर्वहन किया जाना चाहिए अन्यथा यह लोकप्रिय माध्यम अपनी विश्वसनीयता तो खो ही बैठेगा, इसका दुरूपयोग करने वाले अपराधी भी भविष्य में लिखे जाने वाले इतिहास की क्षमा के अधिकारी नहीं होंगे

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13 टिप्‍पणियां:

  1. आपका प्रस्तुतीकरण बहुत ही बढ़िया होता है। जानकारी कमाल की होती है। आपके विचारों से सहमत। इस आलेख से बहुत कुछ नया जानने को मिला। आपको बधाई और शुभकामनाएँ।

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    1. बहुत-बहुत आभार आदरणीय वीरेन्द्र सिंह जी ।

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    2. बहुत शोधपूर्ण लेख
      मैं सहमत हूं आपकी इस बात से कि " बायोपिक एवम् जीवनियां केवल उन हस्तियों के जीवन पर बनाई जानी या लिखी जानी चाहिए जो या तो दिवंगत हो चुके हों या अपने जीवन के सक्रिय भाग से बाहर आ चुके हों "

      मुझे लगता है कि ऐसे अनेक व्यक्ति इस हेतु निर्माताओं को आर्थिक सहयोग भु देते हैं ताकि उनके कार्यों को महिमामंडित करके स्क्रीन पर प्रदर्शित किया जा सके।

      बहुत बढ़िया विवेचनात्मक लेखन है आपका... साधुवाद !!!
      शुभकामनाओं सहित
      सादर,
      डॉ. वर्षा सिंह

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  2. कृपया पढ़ें ... सहयोग भी देते हैं
    -------------

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    1. आपके विचारों से मैं पूर्णरूपेण सहमत हूँ वर्षा जी । लेख का मूल्य-संवर्द्धन करने वाली विचाराभिव्यक्ति के लिए हार्दिक आभार आपका ।

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  3. क्या विश्लेषण करते हैं आप..अती उत्तम..
    सिनेमा के बारे में मेरा ज्ञान बढ़ने लगा है..
    लेकिन जो बिकता है ज्यादा ,वहीं दिखता है ज्यादा..
    व्यवसायिक जगत में भेड़चाल के सिवा क्या उम्मीद करें..
    फिर भी कुछ अच्छा सिनेमा दिख अवश्य जाता है.आपकी समीक्षा से पता चलता रहेगा..

    सादर प्रणाम

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    1. अरे इतनी प्रशंसा न कीजिए । मैं इतना योग्य नहीं । फिर भी मेरे सिनेमा तथा साहित्य संबंधित लेख यदि आप पढ़ेंगी तो मुझे प्रसन्नता होगी । आपकी बात सही है कि जो बिकता है, वही दिखता है (और वही चलता है) । हार्दिक आभार आपका ।

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  4. आपकी समीक्षा हमेशा आँख खोलने वाली होती है..जिस विषय में जानकारी रखना मुश्किल हो उस विषय वस्तु की बारीक जानकारियां आपके लेखन में मिलती हैं..श्रमसाध्य कार्य हेतु आपको हार्दिक शुभकामनायें..सदैव अग्रणी रहें सादर नमन..

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  5. रोचक लेख है। फ़िल्म एक कला तो हैं लेकिन इसमें काफी पैसा लगा होता है। ऐसे में निर्माता की यही इच्छा होती है कि जितना पैसा लगा है उतना निकाल लिया जाए। प्रसिद्ध व्यक्ति के जीवन या सत्य घटना से प्रेरित चीजों को लेकर आम जनता में रुचि और उत्सुकता होती ही है और इसी को फ़िल्म निर्माता भुनाने की कोशिश करता है और सफल भी होता है। उसका ध्येय तो बस यही है।

    व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि एक व्यक्ति के जीवन को डेढ़ या ढाई घण्टे की फ़िल्म में समाना न्यायोचित नहीं होता है। इससे आप केवल कैरीकेचर ही बना सकते हो क्योंकि जीवन के सभी पहलुओं को इतने कम वक्त में दर्शना सम्भव नहीं है। मैं बायोपिक देखना वैसे भी पसन्द नहीं करता हूँ। जनता को भी समझदार होना पड़ेगा।

    हमेशा की तरह रोचक एवं ज्ञानवर्धक आलेख।

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    1. मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं । विस्तृत एवं सार्थक टिप्पणी हेतु हार्दिक आभार आपका विकास जी ।

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  6. कृपया इसका भी अवलोकन करें तो मैं उपकृत होऊंगी -
    बुज़ुर्गों से व्यवहार और श्रवणकुमार

    हार्दिक धन्यवाद 🙏

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    1. उपकृत होने वाली तो कोई बात ही नहीं वर्षा जी । आपकी रचनाओं को पढ़ना तो मेरा सौभाग्य है ।

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