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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

पाठक साहब का भूला-बिसरा मानस-पुत्र - प्रमोद

सुरेन्द्र मोहन पाठक ने बहुत से नायकों और उनकी सीरीज़ का सृजन किया है । हम सुनील, विमल, सुधीर और जीत सिंह की सीरीज़ नियमित रूप से पढ़ते रहते हैं । विवेक आगाशे, विकास गुप्ता और मुकेश माथुर भी अब थ्रिलर के पात्रों की श्रेणी से बाहर से निकलकर हमारे जाने-पहचाने किरदार बन चुके हैं । मुझसे पूछा जाए तो मैं तो सब-इंस्पेक्टर महेश्वरी को भी पाठक साहब का रचा हुआ नायक ही कहूंगा जिसने थ्रिलर श्रेणी के कई उपन्यासों में अपनी ज़ोरदार हाज़िरी लगाई है । लेकिन पाठक साहब के दो सीरीज़ नायक ऐसे भी हैं जिनकी सीरीज़ अरसा पहले बंद हो चुकी हैं । उनमें से एक है जेम्स बॉन्ड जिसके पाठक साहब ने हंगरी में हंगामा से लेकर जान्सी तक कुल दस उपन्यास लिखे हैं और दूसरा है प्रमोद जिसके पाठक साहब ने कुल जमा चार उपन्यास लिखे हैं । प्रमोद का पहला उपन्यास मौत का सफ़र 1966 में छ्पा था जबकि चौथा और आख़िरी उपन्यास एक रात एक लाश 1976 में प्रकाशित हुआ था । इस तरह पाठक साहब द्वारा रचित सीरीज़ के उपन्यासों में सबसे कम उपन्यास प्रमोद सीरीज़ के ही हैं । केवल चार उपन्यासों का यह नायक वर्तमान पीढ़ी के पाठकों के लिए अनजाना-सा ही है । 

प्रमोद का सृजन पाठक साहब ने तब किया था जब वे सुनील सीरीज़ ही लिखते थे और कुछ नहीं लिखते थे । इसलिए प्रमोद के किरदार पर ही सुनील की छाप नहीं बल्कि उसका शहर भी पाठक साहब ने वही रखा है जो कि सुनील का शहर है – यानी कि राजनगर – बैंक स्ट्रीट, मुग़ल बाग़, हर्नबी रोड, मेहता रोड, शंकर रोड, कूपर रोड, मैजेस्टिक सर्कल, जॉर्जटाउन, नेपियन हिल, शेख सराय, नॉर्थ शोर और धोबी नाका क्रीक वाला राजनगर । जहाँ सुनील बैंक स्ट्रीट की इमारत नंबर तीन के एक फ्लैट में रहता है, वहीं प्रमोद कमर्शियल स्ट्रीट में मार्शल हाउस नाम की इमारत के एक फ्लैट में रहता है । क़त्ल के मामलों में सुनील का पाला इंस्पेक्टर प्रभु दयाल से पड़ता है तो प्रमोद का पाला इंस्पेक्टर आत्माराम से पड़ता है ।  आयु में प्रमोद सुनील से थोड़ा बड़ा है । सुनील की आयु स्थायी रूप से लगभग तीस वर्ष है जबकि प्रमोद की आयु उसके अंतिम उपन्यास के काल में लगभग पैंतीस वर्ष है । 

प्रमोद के पहले तीन उपन्यास जल्दी-जल्दी प्रकाशित हुए थे जबकि उसके तीसरे कारनामे जान की बाज़ी और चौथे – अंतिम – कारनामे  एक रात एक लाश में सात साल का अंतराल रहा । और फिर यह सीरीज़ बंद हो गई । 

प्रमोद सीरीज़ का पहला उपन्यास मौत का सफ़र और तीसरा उपन्यास जान की बाज़ी थ्रिलर कहे जा सकते हैं जबकि क्रम संख्या में दूसरा उपन्यास आधी रात के बाद और चौथा उपन्यास एक रात एक लाश निश्चित रूप से पारंपरिक रहस्यकथाएं या मर्डर मिस्ट्री ही हैं जिनमें प्रमोद क़त्ल या क़त्लों के रहस्य का पर्दाफ़ाश करता है ।


इस सीरीज़ के उपन्यासों को पढ़कर मैं यह नहीं समझ सका कि प्रमोद का कारोबार या शगल क्या है । बहरहाल इतना स्पष्ट है कि प्रमोद को रुपये-पैसे की कोई समस्या नहीं है । वह एक सम्पन्न व्यक्ति है । 

पाठक साहब की इस सीरीज़ की मुख्य ख़ासियत इसके नायक यानी प्रमोद के दो युवतियों से निकट संबंध और उनके कारण उसका दो बार भारत छोड़कर विदेश चला जाना है । पहली बार प्रमोद सात साल के लिए मुल्कबदर होता है तो दूसरी बार तीन साल के लिए । पहली बार वह चीन चला जाता है तो दूसरी बार अमरीका । 

ये दो युवा लड़कियां जो कि प्रमोद की ज़िंदगी में पैबस्त हैं,  हैं – कविता ओबराय और सुषमा ओबराय । पाठक साहब ने बताया है कि प्रमोद जब केवल बाईस साल का था तो अपने दोस्त की बीवी कविता से दिल-ही-दिल में मुहब्बत कर बैठा था । कविता न केवल शादीशुदा थी बल्कि वह प्रमोद से तीन-चार साल बड़ी भी थी । लेकिन जैसा कि जगजीत सिंह साहब के गाए हुए और इंदीवर साहब के लिखे हुए अजर-अमर गीत होठों से छू लो तुम के एक अंतरे के बोल हैं – ना उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन’; प्रमोद के दिल में जाग उठी सच्ची मुहब्बत को न कविता की बड़ी उम्र से कोई सरोकार है और न ही उसकी शादीशुदा हैसियत से । लेकिन चूंकि वह उसके दोस्त की बीवी है, इसलिए कहीं उससे ऐसी कोई नादानी न हो जाए जो कि कविता के लिए समस्या बन जाए, वह हिंदुस्तान छोड़कर चीन चला जाता है । और चीन में ही घटित होता है उसका पहला कारनामा – मौत का सफ़र जो कि मेरी निगाह में इस सीरीज़ का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है । पृष्ठ संख्या में बेहद कम लेकिन बड़े कैनवास पर लिखा गया यह रोमांचक उपन्यास रोलरकोस्टर राइड की तरह जिस्म और दिल में सनसनी दौड़ा देता है । 

चीन में रहकर ही प्रमोद मन को एकाग्र करने की कला (कंसंट्रेशन आर्ट) सीखता है । बरसों के अभ्यास के बाद भी प्रमोद केवल चार सैकंड ही अपने आप को किसी बिन्दु पर स्थिर रख पाता है । पर यह चार सैकंड की एकाग्रता भी उसे किसी भी मामले की तह तक पहुँचने और किसी भी गुत्थी को सुलझाने में बड़ी मदद करती है । वह या तो किसी कागज पर कई दायरों में एक बिन्दु को बनाकर उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है या फिर माचिस की तीली जलाकर उसकी लौ पर अपनी मानसिक शक्तियों को स्थिर करता है, लेकिन अधिक-से-अधिक चार सैकंड के ही लिए, उससे अधिक नहीं । 

सात साल चीन में गुज़ार देने के बाद प्रमोद अपने वतन लौटता है और इस सीरीज़ का दूसरा उपन्यास आधी रात के बादवजूद में आता  है जो कि एक हत्या के रहस्य पर आधारित है । राजनगर लौटने के बाद प्रमोद पाता है कि गुज़श्ता सात सालों में ज़िंदगी कई करवटें बदल चुकी है । उसकी महबूबा कविता अब सुहागिन नहीं रही । उसके दोस्त और अपने शौहर की मौत के बाद अब वह बेवा हो चुकी है । प्रमोद अपनी मुहब्बत का वास्ता देकर कविता से उसकी ज़िंदगी को ख़ुशियों से भर देने की इजाज़त मांगता है मगर कविता उसकी मुहब्बत को तस्लीम करने के बावजूद दो वजूहात का हवाला देकर उसकी बन जाने से इनकार करती है – एक तो वह तीस साल से ऊपर की अपनी उम्र और बेवा हो जाने के मद्देनज़र ख़ुद को प्रमोद के क़ाबिल नहीं मानती, दूसरे उसे पता चल जाता है कि उसकी छोटी कुंवारी बहन सुषमा भी प्रमोद पर फ़िदा है । वह प्रमोद से इल्तज़ा करती है कि वो सुषमा से शादी कर ले । लेकिन प्रमोद ने सुषमा को हमेशा अपनी छोटी बहन की निगाह से देखा है और वह कविता की इस बात को मानने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हो सकता । फिर वह यह भी महसूस करता है कि सुषमा में अभी बचपना है और वह किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेती । 

आधी रात के बाद की मर्डर मिस्ट्री में उलझने के साथ ही प्रमोद का साबिक़ा पड़ता है पुलिस इंस्पेक्टर आत्माराम से। यहाँ सुनील सीरीज़ और प्रमोद सीरीज़ की यह समानता सामने आती है कि जिस तरह सुनील सीरीज़ का इंस्पेक्टर प्रभु दयाल एक ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और कार्यकुशल पुलिस अधिकारी है, उसी तरह प्रमोद सीरीज़ का इंस्पेक्टर आत्माराम भी है । जिस तरह सुनील और प्रभु दयाल एक दूसरे के बरख़िलाफ़ रहने के बावजूद एक दूसरे की ख़ूबियों को महसूस करते हैं, उसी तरह प्रमोद और आत्माराम भी एक दूसरे की लाइन काटने और आपस में शह-मात का शतरंजी खेल खेलने के बावजूद एक दूसरे की ख़ूबियों की इज़्ज़त ही करते हैं । जहाँ इंस्पेक्टर प्रभु दयाल का तकिया कलाम है – मुझे मेरा धंधा सिखाने की कोशिश मत करो’, वहीं इंस्पेक्टर आत्माराम का तकिया कलाम है – आपसे मिलने की बात उठते ही मेरे मन में जो पहला ख़याल आता है वो यह है कि एक पुलिस अधिकारी की ड्यूटी भी कितनी अप्रिय होती है, उसे कैसे-कैसे अप्रिय काम करने पड़ते हैं . . . 

इसी उपन्यास में हमारा परिचय होता है दो और दिलचस्प किरदारों से । ये दो दिलचस्प किरदार हैं – एक चीनी वृद्ध चू की और उसकी नौजवान बेटी सो हा । ये लोग चायना टाउन में रहते हैं जो कि उसी तरह राजनगर में स्थित एक चीनियों की बस्ती है जिस तरह जार्जटाउन ईसाइयों की बस्ती है । चायना टाउन का हवाला सुनील सीरीज़ के उपन्यासों में कभी नहीं आता मगर प्रमोद सीरीज़ के तो दो स्टॉक कैरेक्टर यानी कि चू की और सो हा चायना टाउन में ही रहते हैं तो ऐसे में स्वाभाविक रूप से हम चायना टाउन का भी परिचय प्राप्त करते हैं । चायना टाउन से अपरिचित लोग केवल उसके प्रवेश द्वार तक ही पहुँच सकते हैं क्योंकि एक बार भीतर घुस जाने के बाद वह आगंतुकों के लिए किसी भूल-भुलैया से कम साबित नहीं होता । जहाँ चू की प्रमोद को बेहद पसंद करता है और सदा उसकी मदद करने के लिए तैयार रहता है, वहीं सो हा दिल-ही-दिल-में प्रमोद को चाहती है और उसके लिए कुछ भी कर गुज़रने को आमादा हो जाती है हालांकि उसे मालूम है कि प्रमोद कविता ओबराय से मुहब्बत करता है । 

चीन से अपने वतन लौटने पर प्रमोद के साथ उसका चीनी नौकर भी आता है जो इस सीरीज़ का स्टॉक कैरेक्टर है । इस नौकर का नाम है – याट टो । याट टो एक अत्यंत स्वामिभक्त सेवक है जो अपने मालिक के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है । चूंकि कविता ओबराय एक चित्रकार है और अपनी चित्रकला के लिए ही बेहतर जानी जाती है, याट टो और प्रमोद की बातचीत में उसका ज़िक्र पेंटर महिला कहकर किया जाता है । वैसे कविता की छोटी बहन सुषमा भी एक चित्रकार ही है लेकिन उसकी चित्रकला अभी शुरुआती दौर में है । 

कविता के उससे शादी करने से इनकार कर देने से प्रमोद का दिल टूट जाता है । चूंकि वह उसकी यह ज़िद तो क़ुबूल कर नहीं सकता कि वह सुषमा से शादी कर ले, इसलिए आधी रात के बाद वाले केस के बाद प्रमोद एक बार फिर मुल्कबदर हो जाता है । इस बार वह याट टो को साथ लेकर अमरीका चला जाता है जहाँ उसकी ज़िंदगी में वो बातें घटित होती हैं जो इस सीरीज़ के तीसरे उपन्यास जान की बाज़ी की शक़्ल अख़्तियार करती है । पाठक साहब बताते हैं कि आगे चलकर भारत लौटने से पहले प्रमोद अमरीका में तीन साल व्यतीत करता है । 

ओबराय बहनों का छोटा भाई युगल ओबराय अमरीका में रहता है । वह वहाँ इसलिए रहता है क्योंकि वह हिंदुस्तान की धीमी ज़िंदगी की जगह अमरीका की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी को पसंद करता है । वह प्रमोद को अपने पारिवारिक मित्र के रूप में जानता है । प्रमोद उसी राज्य और उसी शहर में रहता है जिसमें कि युगल रहता है । कविता प्रमोद को एक ख़त लिखकर उससे गुज़ारिश करती है कि वह युगल का  ख़याल रखे जो कि नादान है, नातजुर्बेकार है । 

अपनी नादानी की वजह से ही युगल अपनी अमरीकी प्रेमिका के अपहरण और क़त्ल के मामले में फँस जाता है । ऐसे में वह प्रमोद से मदद मांगता है । यहाँ पाठक साहब की यह विचारधारा एक बार फिर सामने आती है कि वे स्वामिभक्ति को बहुत बड़ा गुण मानते हैं । प्रमोद जब अपनी महबूबा के भाई को बचाने के लिए क़त्ल का इल्ज़ाम अपने सर पर लेने को तैयार हो जाता है तो वफ़ादार और नमकख़्वार ख़ादिम याट टो भी पीछे नहीं रहता । वह उस इल्ज़ाम को अपने सर पर लेने की पेशकश करता है । लेकिन प्रमोद उसे समझाता है कि वह ऐसी योजना के तहत काम कर रहा है जिसमें उसकी जान को कोई ख़तरा नहीं है । वह अपने लिए अत्यंत चिंतित याट टो को समझा-बुझाकर भारत भेज देता है और उसे हिदायत देता है कि वह उसके राजनगर स्थित फ़्लैट को ठीकठाक करके रिहाइश के काबिल बनाए क्योंकि थोड़े दिनों के बाद वह भी राजनगर आ आएगा । 

याट टो को भारत भेज देने के बाद प्रमोद एक बेहद पेचीदा योजना बनाकर अमरीका के दो अलग-अलग राज्यों की कानून-व्यवस्था को धोखा देता है और क़त्ल के जुर्म का (झूठा) इक़बाल करके भी अपने आप को सज़ा नहीं होने देता । वह उसी की सलाह पर पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करके गिरफ़्तार हो चुके युगल को रिहा करवा देता है और वास्तविक षड्यंत्रकारियों को कानून के चक्रव्यूह में फँसा देता है । यहाँ पाठक साहब ने प्रमोद के माध्यम से अमरीका में लागू प्रत्यर्पण संबंधी विधि-विधान का बड़ा रोचक उपयोग किया है । मैं नहीं जानता कि पाठक साहब को ऐसी गहरी जानकारी कैसे हुई मगर दिमाग को घुमा देने वाली प्रमोद की योजना को अमली जामा पहनते देखना अत्यंत आनंददायी है । जिस तरह प्रमोद दो बैंकों में खाते खोलकर कार बेचने वाली कंपनी को अपने चैक के माध्यम से भ्रम में डालकर क़ायदे-कानून की मशीनरी को इस्तेमाल करता है, वह विकास गुप्ता के पहले उपन्यास धोखाधड़ी की याद दिला देता है । लेकिन इन दोनों उपन्यासों के संबंधित प्रसंगों की तुलना करते समय ध्यान रहे कि जान की बाज़ी’ ‘धोखाधड़ी के दस साल से भी ज़्यादा पहले लिख दिया गया था । 

अब अपने चौथे और आख़िरी उपन्यास एक रात एक लाश में प्रमोद तीन साल के अंतराल के बाद फिर से अपने देश भारत लौट आता है जहाँ उसका इंतज़ार कर रहा है एक हत्या का मामला जिसमें सुषमा का वर्तमान प्रेमी जोगेन्द्रपाल फँसा हुआ है । उस पर अदालत में इल्ज़ाम साबित हो चुका है और सज़ा भी सुनाई जा चुकी है । पर कानून, इंसाफ़ और सच्चाई में ही नहीं बल्कि ज़िंदगी और सुषमा के प्यार में भी अपना ऐतबार खो चुका जोगेन्द्रपाल जेल से भाग चुका है और पुलिस उसकी तलाश में है । प्रमोद के राजनगर आते ही एक क़त्ल और हो जाता है । अब एक बार फिर इंस्पेक्टर आत्माराम के साथ लुका-छुपी का खेल खेलते हुए प्रमोद असली ख़ूनी को बेनक़ाब करके जोगेन्द्रपाल की बेगुनाही साबित करता है । प्रमोद की गतिविधियों में चू की, सो हा और याट टो की भी पूरी-पूरी भागीदारी रहती है । इस उपन्यास के आख़िर में इंस्पेक्टर आत्माराम के मुँह से प्रमोद की ज़हनियत की तारीफ़ बेसाख़्ता निकल पड़ती है । 

क़त्ल का राज़ फ़ाश हो जाने और जोगेन्द्रपाल की रिहाई तय हो जाने के बाद प्रमोद सुषमा से कहता है कि वह जोगेन्द्रपाल को उसकी बेगुनाही साबित होने की ख़बर ख़ुद सुनाए ताकि उसका ज़िंदगी और मुहब्बत से उठ चुका भरोसा फिर से लौटे । इससे एक बार फिर पाठक साहब के नायकों के अत्यंत संवेदनशील होने की बात साबित हो जाती है । सुनील और प्रमोद जैसे नायक संवेदनशील इसलिए हैं क्योंकि उनके रचयिता सुरेन्द्र मोहन पाठक स्वयं एक संवेदनशील मनुष्य हैं जो कि मानवता को सर्वोपरि रखते हैं । 

प्रमोद के इन उपन्यासों में  औरत-मर्द की मुहब्बत और जज़्बात को बाख़ूबी उकेरा गया है । एक रात एक लाश में पाठक साहब प्रमोद के मुँह से कविता के चित्रों में आई गहराई का ज़िक्र करवाते हैं और इस पर कविता के मुँह से कहलवाते हैं कि जब दिल में दर्द पैदा होता है तो कला में गहराई भी आ जाती है । कितनी बड़ी, कितनी सच्ची बात है यह ! दिल में लहर और टीस जगाने वाला यह सोज़ ही तो है जो फ़नकार के फ़न में जान डाल देता है, उसके शाहकार को मामूली से ग़ैर-मामूली बना देता है । 

मैंने बरसों पहले एक कहानी में पढ़ा था कि कोई नहीं समझ सकता कि औरत जब किसी से प्यार करती है तो वो उसमें क्या देखती है । ज़ाती तजुरबे से मैं जानता हूँ कि यह बात एकदम सच है । यह औरत पर ही नहीं, मर्द पर भी लागू है । लोग किसी से प्यार हो जाने की चाहे जितनी वजहें बयां कर दें, किसी को किसी से प्यार क्यों होता है यह कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता । औरत की ख़ूबसूरती भी मर्द के प्यार की बुनियाद नहीं होती है क्योंकि सही मायनों में ख़ूबसूरती देखने वाले की आँखों में होती है । प्रमोद का उम्र में अपने से तीन-चार साल बड़ी और एक शादीशुदा औरत कविता को दिल दे बैठना पाठक साहब द्वारा बहुत बाद में लिखे गए यादगार उपन्यास क़ागज़ की नाव को भी ज़हन में ताज़ा कर देता है जिसमें लालचंद उर्फ़ लल्लू अपने से तीन साल बड़ी और जिस्मफ़रोशी के दलदल में धँसी खुर्शीद से मुहब्बत करने लगता है ।  

कई बार लोग यह सवाल करते हैं कि किसी के शादीशुदा होने के बावजूद उससे मुहब्बत कैसे की जा सकती है । मेरा कहना है कि शादी एक समाजी रस्म है जिसके होने या न होने की बात दिमाग तो समझ सकता है, दिल नहीं । महबूब या महबूबा की शादी हो जाने या जगह की दूरी के कारण प्रत्यक्ष संपर्क समाप्त हो जाने से सच्ची मुहब्बत पर कोई असर नहीं पड़ता है क्योंकि दिल में उसकी याद तो हमेशा ही रहती है और खलील जिब्रान ने कहा है – याद करना भी मिलन का ही स्वरूप है । प्रमोद के दिल में कविता के लिए परवान चढ़ चुकी मुहब्बत को इसी बुनियाद पर समझा जा सकता है । मैं तो समझता हूँ कि महबूब या महबूबा के इस दुनिया में न रहने पर भी उसके लिए मुहब्बत क़ायम रहती है क्योंकि दिलों की वाबस्तगी ज़िंदगी से भी परे जाती है । 

पाठक साहब इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि सच्चा प्रेम निस्वार्थ होता है जो केवल देना, समर्पित करना और त्याग करना जानता है, अपने लिए कुछ मांगना नहीं जानता । कविता के लिए प्रमोद के प्रेम के अतिरिक्त चीनी लड़की सो हा का प्रमोद के लिए प्रेम भी कुछ ऐसा ही है । वह प्रमोद की कविता के लिए भावनाएं जानने के उपरांत भी उससे प्रेम करती है और इस प्रेम के कारण प्रमोद के लिए कुछ भी करने को उद्यत हो जाती है । प्रमोद उसकी इन भावनाओं से परिचित है लेकिन वह उनका प्रत्युत्तर नहीं दे सकता क्योंकि उसे कविता से प्रेम है । दूसरी ओर प्रमोद सुषमा को छोटी, बचपने से ग्रस्त और खिलंदड़ी समझता है लेकिन वह यह नहीं जानता कि उसका प्रेम भी वास्तविक ही है । जोगेन्द्रपाल की प्रेमिका बनने के बाद भी उसका प्रथम प्रेम प्रमोद ही है जिसे वह भूल नहीं सकती । प्रमोद को ख़रगोश कहकर पुकारने वाली सुषमा जानती है कि प्रमोद उसकी बड़ी बहन कविता को चाहता है और इसीलिए वह उससे चुहलबाज़ी चाहे जितनी कर ले, उसके और अपनी बड़ी बहन के मिलन के रास्ते में रुकावट बनना कभी नहीं चाहेगी । 

पाठक साहब यह भी चिह्नित करते हैं कि सच्ची मुहब्बत अगर एकतरफ़ा भी हो तो भी कभी-न-कभी अपना असर ज़रूर दिखाती है । ग़ालिब ने कहा है – आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक। बिलकुल ठीक । लेकिन इसमें एक उम्र चाहे गुज़र जाए, आह का असर होता ज़रूर है । प्रमोद का एकतरफ़ा प्यार बरसों बाद ही सही, रंग लाता है और कविता भी उससे प्यार करने लगती है चाहे अपनी छोटी बहन सुषमा के जज़्बात का ख़याल करके वह उससे शादी करने में हिचक रही हो । 

इस सीरीज़ में पाठक साहब ने खच्चर पर पूंछ की ओर मुँह करके बैठे हुए चीनी दार्शनिक चाउ कोह कोह के हवाले से इस अनमोल जीवन-दर्शन को पाठकों के समक्ष रखा है कि अहमियत सफ़र की है, मंज़िल की नहीं । अगर ज़िंदगी का सफ़र सही ढंग से, सही दिशा में और हर पल का भरपूर लुत्फ़ लेते हुए तय किया जा रहा है तो फिर मंज़िल के बारे में सोचने या फ़िक्रमंद होने की ज़रूरत नहीं है । 

एक रात एक लाश वाले केस के हल हो जाने के बाद प्रमोद की ज़िंदगी में नया क्या हुआ ? वह हिंदुस्तान में ही रहा या एक बार फिर से मुल्कबदर हो गया ? क्या कविता प्रमोद की सच्ची मुहब्बत को क़ुबूल करके उसकी बन जाने को तैयार हुई ? जोगेन्द्रपाल के रिहा हो जाने के बाद सुषमा ने अपनी ज़िंदगी की बाबत क्या फ़ैसला लिया ? हमें इन सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे क्योंकि प्रमोद सीरीज़ बंद हो चुकी है । जनवरी 1998 में मुझे लिखे अपने पहले ही ख़त में पाठक साहब ने यह स्पष्ट कर दिया था कि प्रमोद सीरीज़ को आगे बढ़ाना संभव नहीं । 

आज सुनील, विमल, सुधीर और जीत सिंह की वाहवाही के दौर में पाठक साहब की इस भूली-बिसरी सीरीज़ और इसके भूले-बिसरे नायक का कहीं ज़िक्र तक नहीं होता है । लेकिन मैं प्रमोद से बहुत प्रभावित हूँ । पाठक साहब का यह भूला-बिसरा मानस-पुत्र मेरे हृदय के अत्यंत निकट है और सदा रहेगा ।  

(उन्नीस फ़रवरी को सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब का जन्मदिवस है, उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए मैं यह लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ) 

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11 टिप्‍पणियां:

  1. मूल प्रकाशित लेख (चार जनवरी, 2016 को) पर ब्लॉगर मित्र की प्रतिक्रिया :

    Ramakant MishraJanuary 8, 2016 at 7:10 AM
    आपका लेख पढ़ कर आनंद आ गया। मैं भी प्रमोद सीरीज का फैन हूँ। इतना वस्तुपरक वर्णन लिखने के लिए साधुवाद। यादें ताजा करने के लिए धन्यवाद।

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    जितेन्द्र माथुरJanuary 8, 2016 at 12:13 PM
    बहुत बहुत आभार रमाकांत जी आपका ।

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  2. आलेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। एक दिलचस्प आलेख के लिए आपको बधाई।

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  3. बेहतरीन लेख....

    मेरे भी प्रिय लेखक सुरेन्द्र पाठक जी को जन्मदिवस की असीम शुभकामनाएं 🌹🙏🌹

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  4. एक ही लेख में आप कितना कुछ समेट देते हैं...श्री सुरेन्द्र पाठक जी से परिचय के लिए धन्यवाद आपका..
    बेहतरीन लेख..

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  5. सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है ..बहुत सुन्दर...

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  6. प्रमोद सीरीज का सुंदर खाका खींचता आलेख। आलेख प्रमोद शृंखला के उपन्यास पढ़ने की इच्छा को और बढ़ा देता है। पहला उपन्यास पढ़ने के बाद अब मैं इस शृंखला के दूसरे उपन्यास जरूर पढ़ना चाहूँगा।

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    1. अवश्य पढ़िए विकास जी। कोई असाधारण थ्रिलर या रहस्यकथाएं न होते हुए भी प्रमोद का अपना चरित्र तथा इस सीरीज़ की संरचना आपका दिल जीत लेंगे। हार्दिक आभार आपका।

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