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रविवार, 31 जनवरी 2021

कँवल शर्मा करवाते हैं विनय रात्रा के साथ एक रहस्यभरी यात्रा

एक समय था जब न तो हिंदी में जासूसी उपन्यासों अथवा रहस्यकथाओं को पढ़ने वालों की कोई कमी थी और न ही लिखने वालों और छापने वालों की । ऐसे कथा-साहित्य का बाज़ार बहुत बड़ा था, इसलिए ढेर सारी किताबें लुगदी कागज़ पर छपती थीं और माँग के हिसाब से पठन-सामग्री का इंतज़ाम करने के लिए प्रकाशक बहुत-से लेखकों को मौका देते थे । इसीलिए बहुत-से (वास्तविक नाम वाले भी और छद्म नाम वाले भी) लेखक सक्रिय थे तथा असेम्बली लाइन उत्पादन की तरह दर्ज़नों जासूसी उपन्यास विभिन्न प्रकाशनों के सौजन्य से प्रति माह हिंदी के पाठकों की रहस्य-रोमांच की क्षुधा को तृप्त करने हेतु पुस्तकों की दुकानों पर अवतरित हो जाया करते थे ।

वक़्त बदला और इक्कीसवीं सदी में पाठकों और किताबों, दोनों की ही तादाद घटने से प्रकाशक भी घटे जबकि हिंदी के जासूसी उपन्यास लेखक तो केवल दो ही रह गए – सुरेन्द्र मोहन पाठक और वेद प्रकाश शर्मा । १७ फ़रवरी, २०१७ को वेद प्रकाश शर्मा का असामयिक निधन हो गया जबकि बढ़ती आयु तथा प्रकाशन में लगातार आ रही अड़चनों के कारण सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा रचित नवीन पुस्तकें भी अब कम आ रही हैं । इन वजूहात से कुछ अरसा पहले ऐसा लगने लगा था कि पाठक साहब के बाद हिंदी में जासूसी उपन्यास छपने ही बंद हो जाएंगे । इस निराशाजनक स्थिति में आशा की एक किरण बनकर उभरे हैं एक युवा लेखक - कँवल शर्मा । प्रारम्भ में जेम्स हेडली चेज़ के उपन्यासों के हिंदी अनुवादों के माध्यम से रहस्य-रोमांच के शैदाई हिंदी के पाठकों को अपना तआरूफ़ देने वाले कँवल शर्मा ने अपने पहले मौलिक उपन्यास - वन शॉट’ के द्वारा हिंदी जासूसी उपन्यासों के संसार में पदार्पण किया । कँवल जी का यह प्रथम उपन्यास दो वर्ष पूर्व आया था एवम् इसके उपरांत भी उनके द्वारा रचित कई उपन्यास हिंदी के पाठक समुदाय के समक्ष आ चुके हैं, इसलिए वन शॉट’ की यह समीक्षा निश्चय ही विलम्बित है लेकिन यह उपन्यास मुझे इतना पसंद आया था कि देर से ही सही, इस पर कुछ लिखे बिना मेरा मन नहीं माना ।   


कँवल शर्मा का यह पहला उपन्यास उनके कथा-नायक विनय रात्रा का भी पहला कारनामा है । विनय रात्रा प्रत्यक्षतः एक प्राध्यापक है लेकिन वस्तुतः वह एक गुप्तचर है जो अपने देश अर्थात् भारत के लिए सम्पूर्ण निष्ठा, कुशलता एवम् साहस के साथ काम करते हुए राष्ट्र की सुरक्षा में संलग्न रहता है । उपन्यास की शुरुआत एक तूफ़ानी रात में घनघोर अंधकार और बरसात के माहौल में एक कार से एक लाश को वीराने में फेंके जाने के दृश्य से होती है लेकिन उसके बाद उपन्यास का घटनाक्रम विनय रात्रा के साथ-साथ ही चलता है । देश की धरती से दूर विदेशी धरा पर देश के हित में कार्यरत विनय को स्वदेश लौटकर एक निजी अभियान आरम्भ करना  पड़ता है – अपने भाई रोहन रात्रा की निर्मम हत्या की छानबीन करके हत्यारे तक पहुँचने का अभियान । यह कार्य सरल नहीं है क्योंकि इस कार्य के लिए उसे कोई विभागीय सहायता उपलब्ध नहीं है । यद्यपि निजी सम्बन्धों एवम् मित्रता के आधार पर वह विभाग में अपने सहकर्मी मथुरा प्रसाद का सहयोग प्राप्त कर लेता है, तथापि इस सत्य से वह परिचित है कि अधिकांश कार्य उसे अपने आप ही करना है । उसके लिए अच्छी बात यह होती है कि वह पूरी तरह अकेला नहीं पड़ जाता, राजेश नामक उसका एक मित्र एवम् विभाग में लिपिकीय स्तर का कामकाज देखने वाला युवक इस सिलसिले में उसकी परछाईं की मानिंद उसके साथ रहता है और उसके दर्द को समझते हुए उसकी भरपूर मदद करता है । विनय किस प्रकार विभिन्न लोगों से मिलते हुए और नगर के प्रभावशाली व्यक्तियों से टकराव मोल लेते हुए वास्तविक अपराधियों तक पहुँचता है, यह इस उपन्यास का शेष भाग बताता है ।

कँवल शर्मा ने उपन्यास में विनय रात्रा का प्रवेश ही अत्यंत प्रभावी और स्टाइलिश ढंग  से करवाया है । विनय रात्रा किसी गल्प के नायक की भाँति ही वन शॉट’ के पाठकों के समक्ष अवतरित होता है और उनके दिलों पर अपनी छाप छोड़ देता है । और सही मायनों में नायक तो वही होता है जो दिलों पर छाप छोड़ जाए । इस रूप में विनय रात्रा एक पारम्परिक नायक की मानिंद ही कथानक में आता है और अपनी विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से उसी रूप में उसके अंत तक छाया रहता है । ये गतिविधियां दिमागी दांव-पेच, जासूसी, मारधाड़ और एक्शन के साथ-साथ वतनपरस्ती और इनसानी जज़्बात से भी लबरेज़ रहती हैं । उपन्यास के सारे वाक़यात क़त्ल और उसके राज़ के फ़ाश होने से जुड़े हुए नहीं हैं लेकिन वे नायक को नायक के रूप में स्थापित करने में अपनी भूमिका निभाते हैं और इसीलिए अपनी अहमियत रखते हैं । उपन्यास के संवाद (विशेषतः नायक के संवाद) भी अत्यंत प्रभावशाली हैं जो उपन्यास की गुणवत्ता एवम् मनोरंजन-तत्व को बहुत अधिक बढ़ा देते हैं । लेखक हत्या के रहस्य को अंतिम पृष्ठों तक बनाए रखने में सफल रहा है जो एक उत्तम रहस्यकथा की पहचान है । उपन्यास का अंतिम दृश्य भी अत्यंत रोचक और प्रभावी है जो नायक के कद को और भी ऊंचा उठा देता है । सभी पात्र स्वाभाविक एवम् सजीव हैं तथा नायक के अतिरिक्त अन्य पात्रों को भी उभरने का अवसर मिला है जो इस बात का प्रमाण है कि लेखक ने उपन्यास-लेखन की विधा को भलीभाँति समझा और साधा है ।

उपन्यास में प्रयुक्त हिंदी सरल एवम् बोधगम्य होते हुए भी अपने भाषाई सौंदर्य को आद्योपांत बनाए रखती है (यद्यपि कहीं-कहीं यह प्रयोगधर्मी भी है) । उपन्यास में प्रूफ़-रीडिंग तथा सम्पादन की त्रुटियां हैं जो न होतीं तो यह उपन्यास अधिक सराहना का पात्र होता । कथ्य में कहीं-कहीं कसावट की कमी है लेकिन किसी भी स्थान पर मनोरंजन की कमी नहीं है । उपन्यास किसी कुशल निर्देशक द्वारा निर्मित साफ़-सुथरी बॉलीवुड फ़िल्म सरीखा सम्पूर्ण मनोरंजन प्रदान करता है जिसमें कहीं किसी प्रकार की अश्लीलता अथवा अभद्रता विद्यमान नहीं है । उपन्यास में क़त्ल के रहस्य के अतिरिक्त भी कई मनोरंजक घटक हैं जो पाठक को आदि से अंत तक उपन्यास से चिपकाए रखते हैं तथा समापन के उपरांत उसे संतुष्टि की सुखद अनुभूति होती है । इस उपन्यास को इसे पढ़ने वाले के लिए एक ऐसा रहस्यभरा सफ़र कहा जा सकता है जिसमें मंज़िल अहम तो है लेकिन सफ़र अपने आप में ऐसा दिलचस्प और ख़ुशनुमा है कि उसकी अहमियत भी मंज़िल से कुछ कम नहीं । इसीलिए मंज़िल मिल जाने के बाद भी (यानी रहस्य खुल जाने के बाद भी) ऐसे सफ़र को बार-बार करने का मन करता है । किसी रहस्यकथा की इतनी रिपीट वैल्यू होना उसके रचयिता की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है । मैं स्वयम् वन शॉट’ को कई बार पढ़ चुका हूँ और मेरा आंकलन यही है कि जो भी हिंदी पाठक विनय रात्रा के साथ इस रहस्यभरी यात्रा को एक बार कर लेगा, वह इस यात्रा पर पुनः जाना चाहेगा ।

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गुरुवार, 28 जनवरी 2021

कामयाबी और नाकामयाबी को कैसे संभालें ?

 (यह लेख मूल रूप से 30 मार्च, 2016 को प्रकाशित हुआ था)

६३ वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की घोषणा हो गई है जिनमें हिमाचल प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे से आने वाली तथा बिना किसी फ़िल्मी पृष्ठभूमि के केवल अपने साहस, आत्मविश्वास और पुरुषार्थ से फ़िल्मोद्योग में सफलता और सम्मान पाने वाली कंगना रानाउत ने सभी को चमत्कृत करते हुए अनवरत दूसरे वर्ष सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार जीत लिया है । विगत वर्ष उन्हें यह सम्मान फ़िल्म 'क्वीन' के लिए मिला था तो इस वर्ष फ़िल्म 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' के लिए मिला है । कंगना ने वर्ष २००९ में भी सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मधुर भंडारकर की फ़िल्म 'फ़ैशन' (२००८) के लिए जीता था । इस फ़िल्म में उन्होंने मॉडलिंग के व्यवसाय में पहले सफल और कालांतर में असफल होने वाली एक कुंठित युवती की भूमिका निभाई थी (जो कि एक वास्तविक मॉडल गीतांजलि नागपाल के जीवन से प्रेरित थी) जो जीवन से हताश होकर आत्मघात कर लेती है । वस्तुतः महत्वाकांक्षी युवतियों द्वारा अपने जीवन में सफलता और असफलता का भलीभाँति प्रबंधन न कर पाना ही 'फ़ैशन' फ़िल्म की विषय-वस्तु थी जिसका केन्द्रबिन्दु एक छोटे शहर से मुंबई आई एक महत्वाकांक्षी युवती थी जिसकी भूमिका प्रियंका चोपड़ा ने निभाई थी और उन्होंने इसी फ़िल्म के लिए उसी वर्ष सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था । रोचक तथ्य यह है कि प्रियंका स्वयं भी उत्तर प्रदेश के एक अपेक्षाकृत कम आधुनिक शहर बरेली से हैं और जब वर्ष २००० में उन्होंने विश्वसुंदरी बनने का गौरव पाया था तो इससे उनके पुरातन विचारों से ओतप्रोत गृहनगर में किसी विशेष प्रसन्नता या उत्साह का संचार नहीं हुआ था ।
बहरहाल कुल मिलकर एक अच्छी फ़िल्म मानी जा सकने योग्य 'फ़ैशन' इस तथ्य को रेखांकित करती है कि एक सार्थक और प्रसन्न जीवन के लिए मनुष्य को सफलता और असफलता दोनों का ही कुशल और विवेकपूर्ण प्रबंधन करना आना चाहिए । ऐसा इसलिए है क्योंकि सफलता और असफलता दोनों एक ही मुद्रा के दो पक्ष हैं जिन्हें जुड़वां बहनों की तरह देखा जा सकता है । इन दोनों ही के उद्गम के पीछे मानव के पुरुषार्थ और उसके प्रारब्ध दोनों ही की अपनी-अपनी स्वतंत्र भूमिका होती है । प्रायः इन दोनों ही का साक्षात्कार प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में होता है । इनमें से किसी एक से भी वह बच नहीं सकता । एक स्थान पर बच भी गया तो किसी दूसरे स्थान पर उनसे साक्षात् होकर ही रहेगा । तो फिर क्यों न दोनों का ही स्वागत बाहें पसारकर प्रसन्नतापूर्वक मुक्तचित्त से किया जाए ? क्यों सफलता को अपने सर पर चढ़ने दिया जाए और क्यों असफलता के कारण विषाद में मग्न हो जाया जाए ? 'फ़ैशन' फ़िल्म की मुख्य नायिका (प्रियंका) इस वास्तविकता को समय रहते समझ जाती है और इसी ज्ञानोदय के कारण जब जीवन उसे दूसरा अवसर देता है तो वह उसका उचित उपयोग करके सफलता के सोपान पुनः चढ़ती है जबकि फ़िल्म की सहनायिका (कंगना) ऐसा नहीं कर पाती और असफलता तथा एकाकीपन से उपजी उसकी कुंठा का अतिरेक उसे आत्महनन के मार्ग पर ले जाता है ।  

लिखते हुए बहुत दुख होता है लेकिन इस व्यावहारिक संसार का अत्यंत पीड़ादायक यथार्थ यही है कि असफलता के लिए कहीं कोई स्थान नहीं है । ऐसा आभास होता है मानो यह भौतिक संसार केवल सफल व्यक्तियों के निमित्त ही है । सफल व्यक्ति को सर्वगुणसंपन्न मानते हुए उसका यशोगान करने में लोग कोई न्यूनता नहीं रखते जबकि असफल व्यक्ति के गुणों पर कोई दृष्टिपात तक नहीं करता । सफल के साथ सभी चिपकना चाहते हैं जबकि असफल का साथ तो संभवतः उसकी प्रतिच्छाया भी छोड़ देती है । स्वयं कंगना ने इस यथार्थ को भोगा है और कुछ समय पूर्व ही उन्होंने एक साक्षात्कार में स्पष्ट कहा था कि विजय और सफलता बहुत ओवररेटेड हैं अर्थात उनका मूल्य अनुचित रूप से अधिक आँका जाता है । सफलता में परिवर्तित न हो तो संघर्षशील व्यक्ति के संघर्ष को कोई सराहना नहीं मिलती । संसार की इसी दोषपूर्ण मानसिकता का प्रभाव व्यक्तियों पर पड़ता है जिसके कारण सफल व्यक्ति अपने आपको गुणी और दूसरों को उपदेश देने की अर्हता रखने वाले मानने लगते हैं जबकि असफल व्यक्ति निराशा एवं अवसाद से पीड़ित हो जाते हैं । दुनिया की इसी ग़लत सोच के कारण कामयाबी अकसर गुमराह करती है । सच तो यह है कि इससे ज़्यादा गुमराह करने वाली शै कोई दूसरी नहीं । ज़्यादातर कामयाब लोग हौले-हौले हक़ीक़त से आँखें मूंदने लगते हैं और समझने लगते हैं कि वे जो करते (या कहते या सोचते) हैं, बस वही ठीक है, बाकी कुछ नहीं । वे दूसरों को स्वयं से तुच्छ मानने लगते हैं एवं उनका व्यक्तित्व अहंकार में डूब जाता है । प्रायः इन्हीं कारणों से उनका पतन भी होता है । जब उनका बुरा वक़्त आता है तो उन्हें ख़बर भी नहीं लगती कि कब वे अर्श से फ़र्श पर पहुँच गए । 'फ़ैशन' फ़िल्म में मधुर भंडारकर ने इसी तथ्य को बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रतिपादित किया था ।


इसके विपरीत नाकाम शख़्स के साथ दुनिया कितनी बेरहमी से पेश आती है, यह स्वर्गीय गुरुदत्त ने अपनी बेहतरीन  फ़िल्म 'कागज़ के फूल' (१९५९) में बड़ी बेबाकी से दिखाया था । असफलता के प्रति संसार के तिरस्कार के कारण ही असफल व्यक्ति हीनभावना से पीड़ित होकर स्वयं का अवमूल्यन करने लगते हैं । वे अपने दोषों को अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से परखने लगते हैं जबकि अपने गुणों और क्षमताओं को भूलने लगते हैं । जब यह सिलसिला हद से आगे बढ़ जाता है तो उनके दिलोदिमाग में कुछ ऐसे ही ख़याल बार-बार गूंजने लगते हैं - 'ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं' । उनकी यह मनोदशा उनका ब्रेकिंग प्वॉइंट होती है जब वे पूरी तरह से टूट जाते हैं क्योंकि दिल में पूरा हो सकने लायक कोई सपना नहीं होता और नज़दीक कोई अपना नहीं होता । तभी ख़ुदकुशी की नौबत भी आती है जैसी कि गुरुदत्त के ही साथ १९६४ में आ गई थी जब महज़ उनतालीस साल की उम्र में वे अपनी ज़िंदगी से आजिज़ आ गए थे ।

अतः उत्साह और प्रसन्नता से परिपूरित एक सामान्य जीवन जीने के लिए सफलता और असफलता दोनों को ही सहज भाव से स्वीकार करने की कला प्रत्येक सांसारिक व्यक्ति को अपने भीतर विकसित करनी चाहिए क्योंकि ये दोनों ही वरदान भी बन सकती हैं और अभिशाप भी । कामयाबी और नाकामयाबी दोनों को ही ठीक से संभालना न आए तो दोनों ही आख़िरकार भारी नुकसान पहुँचाती हैं । कामयाबी मिलने पर यह एहतियात ज़रूर बरतनी चाहिए कि उसका नशा दिमाग में न चढ़ जाए जो कामयाब इंसान को घमंडी बना दे, उसके रवैये और नज़रिये को ग़ैर-पेशेवराना बना दे । अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर जैसे लोग सफलता को दीर्घकाल तक अपने पास इसीलिए रख पाए क्योंकि उन्होंने प्रारम्भिक सफलता मिलने पर अपनी विनम्रता और संयमित व्यवहार को तिलांजलि नहीं दी । जब कालचक्र परिवर्तन के कारण उन्हें असफलता मिली, तब भी उन्होंने अपने दृष्टिकोण, वाणी और व्यवहार को पूर्णरूपेण संतुलित बनाए रखा और समय के पुनः अपने पक्ष में परिवर्तित होने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की । और इस सब्र का इनाम उन्हें मिला भी जब उनका अच्छा वक़्त लौटा और वे फिर से कामयाब हुए । नाकामयाबी मिलने पर इंसान को यह याद रखना चाहिए कि वक़्त हमेशा बदलता रहता है और इसी वजह से बुरा वक़्त भी हमेशा टिका नहीं रह सकता । उसका भी गुज़र जाना उसी तरह तय है जिस तरह से हर रात के बाद दिन का आना तय है । अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का जीवन इसका श्रेष्ठ उदाहरण है । जीवन में अनेक कार्यों और अनेक क्षेत्रों में असफल होने के उपरांत अंततः अमरीका का राष्ट्रपति निर्वाचित होकर उन्होंने अपनी इस एक ही उपलब्धि से पूर्व की सभी असफलताओं और निराशाओं को धो डाला । नाकामयाब शख़्स यह न भूले कि ज़िंदगी बेशकीमती है और जान है तो जहान है । बाहर हार हो तो हो, मन में नहीं होनी चाहिए क्योंकि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत । ज़िंदगी तो दूसरा मौका कभी भी दे सकती है मगर ग़म में ही डूबे रहे तो उसे कैसे पकड़ेंगे ? नयन अश्रुओं से भरे हों तो अपनी ओर आता हुआ सुअवसर कैसे दिखाई दे सकता है ? असफलता के कारणों का विश्लेषण किया जाए और यह देखा जाए कि कौनसे कारणों को दूर किया जा सकता है । फिर उन्हें दूर करके नवीन प्रयास किया जाए क्योंकि जीवन तो चलने का ही नाम है । फिर जो कामयाबी बिना मशक़्क़त और बिना इंतज़ार के मिल जाए, उसका लुत्फ़ ही क्या ? वो राही क्या जो थककर बैठ जाए, वो मंज़िल क्या जो आसानी से तय हो ? 

गीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य को स्थितप्रज्ञ बनने का जो परामर्श दिया है, वह अमूल्य है । स्थितप्रज्ञ का अर्थ है - वह मनुष्य जो अपने जीवन के प्रत्येक समय एवं प्रत्येक स्थिति में अपना मानसिक संतुलन बनाए रखे तथा चाहे सौभाग्य आए अथवा दुर्भाग्य, सुख मिले अथवा दुख, हानि हो अथवा लाभ; कभी असंतुलित न हो । जो सफलता मिलने पर प्रसन्नता में उन्मादित न हो तथा असफलता मिलने पर अवसादग्रस्त न हो जाए, वही स्थितप्रज्ञ है । ऐसा व्यक्ति ही जीवन-नौका को संसार-सागर में सहज रूप से खे सकता है क्योंकि उसके पास दो पतवारें हैं - सफलता के चढ़ाव के लिए आत्म-नियंत्रण की तथा असफलता के उतार के लिए धैर्य की । अपने जीवन में बहुत संघर्ष करने वाली तथा कठिन समय देखने वाली कंगना को उनकी इस उपलब्धि पर हार्दिक बधाई देते हुए मैं उनके लिए भी तथा हम सबके लिए भी स्थितप्रज्ञता की ही प्रार्थना करता हूँ ।

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बुधवार, 27 जनवरी 2021

प्रेम की जटिल गुत्थी

इस कायनात का अगर कोई सबसे बड़ा, सबसे ज़्यादा  उलझा हुआ और सबसे पुराना राज़ है तो वह है औरत और मर्द का प्यार । दो भिन्न लिंगियों का पारस्परिक आकर्षण और फिर मिलन ही सृष्टि की उत्तरजीविता का आधार है । यह न होता तो संसार ही न होता, मानव जाति का कोई इतिहास ही न होता । भिन्न लिंगी के प्रति यह आकर्षण मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में भी होता है लेकिन मनुष्य के पास क्योंकि एक विकसित मस्तिष्क है और वह अपने प्रेम को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त कर सकता है, इसलिए उसी के प्रेम की चर्चा (उसी के द्वारा) होती रहती है, होती आ रही है सदियों से । चूंकि मानव-जाति में यह प्रेम किसी विशिष्ट को किसी विशिष्ट से ही होता है, इसलिए यह प्रश्न सनातन काल से चला आ रहा है और अभी तक अनुत्तरित है कि किसी को किसी से प्रेम क्यों होता है, कैसे होता है । क्यों कोई ख़ास किसी ख़ास को ही अपना दिल दे बैठता है या दिल दे बैठती है, किसी और को क्यों नहीं ? प्रेम की यह गुत्थी बड़ी जटिल है । आज तक तो सुलझी नहीं, आगे भी कभी सुलझ सकेगी या नहीं, कौन जाने  

सामाजिक व्यवस्थाओं के विकास एवं परिवार की स्थापना हेतु स्त्री-पुरुष के विवाह की संस्था के उद्भव ने इस अत्यंत प्राकृतिक रूप से अंकुरित होने वाली भावना के संबंध में व्यक्तिगत स्वातंत्र्य को विभिन्न बंधनों में जकड़ दिया । प्रेम पर तो प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता था (और है) लेकिन प्रेम की परिणति प्रेमियों के विवाह में होना कठिन से कठिनतर होता चला गया क्योंकि विवाह में व्यक्ति की नहीं बल्कि उसके माता-पिता, परिवार और समुदाय की इच्छा सर्वोपरि बन गई । पितृसत्तात्मक समाजों में स्त्री के लिए तो जिससे प्रेम हो, उससे विवाह करना लगभग असम्भव ही हो गया क्योंकि उससे तो उसके मन की बात तक पूछे बिना उसका विवाह तय कर दिया जाने लगा और जैसे किसी गाय को खूंटे से बांध दिया जाता है, उसी प्रकार उसे भी बाध्य किया जाने लगा कि जिस व्यक्ति से उसका विवाह उसके परिजनों द्वारा कर दिया जाए, उसी के साथ चली जाए और अपनी इच्छाओं और भावनाओं को भुलाकर आजीवन एक विवाहिता के निर्धारित कर्तव्य निभाती जाए । 

ऐसे में स्वभावत: प्रेम पर पहरे लगाना भी समाज को आवश्यक लगने लगा और वर्जनाओं के कारण प्रेम एक वर्जित फल बन गया जिसका आकर्षण सामान्य से अधिक ही होता है । अत: प्रेम न केवल चारों दिशाओं में फैलने लगा बल्कि कवियों, शायरों और कथाकारों के शब्दों में भी ढलने लगा । कई दुखांत प्रेमकथाएं तो अमर ही हो गईं जो कि सदियों से सुनाई जाती आ रही हैं । आधुनिक साहित्य और सिनेमा में भी सबसे अधिक लोकप्रिय विधा प्रेमकथा ही बन गई क्योंकि जो काम चाहकर भी वास्तविक जीवन में न कर सकें, उसे पुस्तक में पढ़ना और परदे पर देखना लोगों को बहुत भाने लगा । विभिन्न परिवेशों में, विभिन्न आयुवर्ग के पात्रों के साथ प्रेमकथाएं रचने का जो सिलसिला एक बार शुरू हुआ, वह फिर चिरस्थायी दौर ही बन गया । अन्य भाषाओं की तरह हिंदी में भी सबसे अधिक प्रेमकथाएं ही रची जाती हैं । प्रेमकथाओं की इस शृंखला की नवीनतम कड़ी है नवोदित लेखिका अंचल सक्सेना का उपन्यास - 'विश्वास और मैं' । यह उपन्यास आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखा गया है अर्थात् प्रेम करने वाली लड़की विश्वास नामक लड़के के साथ अपने संबंध की कहानी अपनी ज़ुबानी बयान करती है और पूरा घटनाक्रम 'मैं' के साथ-साथ चलता है ।

 


पंद्रह-सोलह वर्ष से इक्कीस-बाईस वर्ष के बीच की कच्ची-पक्की आयु कुछ ऐसी होती है कि मन हवा में उड़ने लगता है, अंतस में कोमल भावनाएं बारंबार करवटें बदलती हैं और रह-रहकर जी चाहता है कि किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ । 'विश्वास और मैं' की नायिका (मैं) भी इसी दौर से गुज़र रही है । स्कूल से निकलकर युवा जब कॉलेज में पहुँचते हैं तो एक किस्म की आज़ादी का एहसास उनके रोम-रोम में समा जाता है । सह-शिक्षा के कारण लड़के-लड़कियों को घुलने-मिलने का अवसर मिलता है, दोस्तियां होती हैं जिनमें से कुछ आगे बढ़कर प्रेम तक जा पहुँचती हैं । कथानायिका और विश्वास के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता है । फ़ोन पर कॉल के ज़रिये ज़बरदस्ती पैदा की गई दोस्ती (या परिचय) वास्तविक दोस्ती में बदलती है और फिर वक़्त के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए कम-से-कम नायिका के मन में यह चाह पैदा करती है कि वह जीवन भर के साथ में बदल जाए पर ...  

इस 'पर' के आगे बहुत कुछ है जिसे लेखिका ने 'अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता' नाम दिया है । जब लेखिका ने अपनी लेखनी को विराम दिया है, तब तक इस प्रेमी-युगल के प्रथम परिचय को तेरह वर्ष बीत चुके हैं, जीवन रूपी सरिता में बहुत जल बह चुका है, दोनों ही के जीवन कई कठोर परीक्षाओं का सामना कर चुके हैं और अब कम-से-कम 'मैं' को जीवन को हलके रूप में लेना स्वीकार्य नहीं है । चाहे विश्वास अभी तक परिपक्व न हुआ हो (कई लोग वास्तव में ही जीवन भर परिपक्व नहीं हो पाते) लेकिन वह परिपक्व हो चुकी है और अपने जीवन को किसी के अनिश्चय का दास नहीं बनने दे सकती । लेकिन अपने मन में गहरी जड़ें जमा चुके प्रेम को भी वह उखाड़ कर नहीं फेंक सकती । प्रेम करने वाले साथ रहें या न रहें, प्रेम तो रहेगा । 

फिक्शन लेखन को लेखक की प्रकृति के दृष्टिकोण से दो श्रेणियों में रखा जा सकता है : व्यावसायिक और शौक़िया (अमेचर) । प्राय: नवोदित लेखक जिनकी आजीविका का स्रोत लेखन नहीं, कुछ और होता है, शौक़िया या अमेचर ही होते हैं । स्वयं एक उपन्यास लिख चुकने के कारण मैं यह बात निजी अनुभव से जानता हूँ कि ऐसे लेखक कम-से-कम अपनी प्रारंभिक रचनाएं दिल से लिखते हैं, वह लिखते हैं जो उन्होंने स्वयं अनुभव किया है और जिससे वे स्वयं अपने जीवन में दो-चार हुए हैं । उनके अपने जज़्बात और तजुरबे ही शब्दों में ढलकर किस्से-कहानियों की शक़्ल अख़्तियार कर लेते हैं । चूंकि उनकी ये रचनाएं दिल से लिखी गई होती हैं, इसीलिए ईमानदार होती हैं । 'विश्वास और मैं' भी अपने अधिकांश भाग में दिल से लिखी गई लगती है, इसीलिए लेखिका की अपनी लेखनी के प्रति ईमानदारी पाठक के दिल को छू जाती है । विश्वास और 'मैं' के पारस्परिक संबंध, भावनाओं एवं व्यवहार के अतिरिक्त भारतीय न्यायालयों के भीतर की (अप्रिय) वास्तविकता का चित्रण भी अत्यंत स्वाभाविक है और लेखिका के निजी अनुभवों पर आधारित होने के कारण सत्यनिष्ठा से ओतप्रोत है (लेखिका की आगामी कृति - 'मेरी कचहरी' की थीम यही है) । 

लेकिन शायद उपन्यास के कथानक को आगे बढ़ाने के लिए लेखिका ने कहीं-न-कहीं दिल की जगह दिमाग़ से घटनाएं जोड़ी हैं जिनके कारण उपन्यास की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है । विश्वास की भाभी की आत्महत्या की घटना इसका एक उदाहरण है जिसकी पृष्ठभूमि अथवा कारण का पता अंत तक नहीं चलता । कथानायिका (मैं) और विश्वास के परिवार वाले भी हाड़-मांस-रक्त से बने वास्तविक लोग कम और कैरीकेचर अधिक लगते हैं । जिस तरह से कथानायिका के परिजन बिना उसकी भावनाओं को जानने का प्रयास किए उसका विवाह एक दहेज-लोलुप परिवार में (भारी दहेज देकर) कर देते हैं, वह तो उनकी विवेकशीलता पर ही एक प्रश्नचिह्न लगाता है (और नायिका की भी जो जीवन का इतना महत्वपूर्ण निर्णय केवल इसलिए कर लेती है कि विश्वास उससे विवाह करने से पीछे हट गया) । कथानायिका के ससुराल वाले (उसके पति सहित) भी फ़िल्मी खलनायक ही लगते हैं ।  

मैंने एक बार कहीं पढ़ा था - 'कोई नहीं समझ सकता कि औरत जब किसी (मर्द) से प्यार करती है तो वह उसमें क्या देखती है' । वाक़ई कोई नहीं समझ सकता । इसलिए कथानायिका का विश्वास से प्रेम करना अस्वाभाविक नहीं लगता है, अलबत्ता अपने जीवन और विश्वास के साथ अपने संबंध को लेकर एक परिपक्व निर्णय लेने में उसके द्वारा किया गया असाधारण विलम्ब कुछ-कुछ अस्वाभाविक लगता है । वह परिपक्वता के वांछित स्तर पर उपन्यास के अंतिम दो अध्यायों में पहुँचती है । अपने आने वाले जीवन में वह विश्वास के अतिरिक्त किसी और पुरुष से प्रेम नहीं कर सकेगी, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जैसा प्रेम उसे विश्वास से रहा (और उपन्यास के अंत में भी है), वैसा प्रेम वह निश्चय ही और किसी से नहीं कर सकेगी क्योंकि प्रथम अनुभूति प्रथम ही होती है, वह फिर नहीं दोहराई जा सकती । 

न केवल उपन्यास की विषय-वस्तु आजकल के उठती हुई आयु के युवाओं से जुड़ी है जिनके जीवन में विपरीत लिंग के व्यक्ति से मित्रता और प्रेम अति-महत्वपूर्ण  मुद्दे हैं, लेखिका ने उपन्यास का ताना-बाना भी ऐसी ही शैली में बुना है जो इस आयु-वर्ग के पाठकों को भाने वाला है । लेकिन इसका परिणाम यह निकला है कि अंतिम दो अध्यायों से पहले के लगभग सभी अध्याय किसी हिंदी टी.वी. धारावाहिक की स्क्रिप्ट जैसे लगते हैं ।  फिर भी इसमें कोई शक़ नहीं कि उपन्यास आद्योपांत रोचक है एवं प्रारंभ से अंत तक पाठक को बांधे रखता है । 

लेखिका ने उपन्यास में कथानायिका के साथ वैवाहिक दुराचार का मुद्दा भी हृदयवेदक रूप में उठाया है । इस संदर्भ में भारतीय न्यायविदों की राय जो भी हो, मानवीय कसौटी पर रखा जाए तो यह निंदनीय (और दंडनीय भी) ही है क्योंकि दुराचार तो दुराचार है चाहे वह विवाह-संस्था के अंतर्गत ही क्यों न हो । लेकिन परिवार वालों द्वारा तय किया गया विवाह करने जा रही युवती यदि अब तक अपरिचित रहे पुरुष के साथ दैहिक-निकटता के लिए मानसिक रूप से तैयार न हो तो बेहतर है कि वह ऐसा विवाह ही न करे । व्यावहारिक दृष्टिकोण तो यही है विशेषत: एक सुशिक्षित तथा आधुनिक युवती के लिए । 

प्रमुखत: एक विशेष आयु-वर्ग के युवाओं को अपील करने वाले इस उपन्यास की भाषा और संवाद वर्तमान पीढ़ी की बोलचाल के अनुरूप ही हैं जो कि उपन्यास के परिवेश के लिहाज़ से सही लगता है । लेकिन नवोदित लेखिका को मेरी सलाह यही है कि वे अपने भाषा-ज्ञान और अभिव्यक्ति, दोनों ही पक्षों में सुधार और परिष्कार करें तथा इस तथ्य को सदा स्मरण रखें कि वे हिंदी की लेखिका हैं, हिंगलिश की नहीं । 

मैंने कुछ वर्षों पूर्व किसी भी कथा के नायक की एक हिंदी उपन्यासकार द्वारा दी गई अग्रलिखित परिभाषा पढ़ी थी : 'नायक वह है जो दिलों पर छाप छोड़ जाए' । इस नज़रिये से 'विश्वास और मैं' में कोई नायक नहीं है (यहाँ नायक में नायिका भी सम्मिलित है) । लेखिका ने 'मैं' द्वारा विश्वास को लिखे गए विस्तृत पत्र के माध्यम से 'प्रेम' और 'प्रेम के भ्रम' के अंतर को सराहनीय ढंग से स्पष्ट किया है । अच्छा यही है कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अध्ययन के साथ-साथ प्रेम की उलझन को भी सुलझाने में लगे युवक-युवती आसक्ति (इनफ़ैचुएशन) और प्रेम (लव) के अंतर को तथा भावी जीवन के लिए सम्बन्धों में प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के महत्व को भली-भांति समझ लें क्योंकि - 

और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

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मंगलवार, 26 जनवरी 2021

इंसाफ़ का सूरज

अभी ज़्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है जब मैंने स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास 'जिगर का टुकड़ा' पर अपने ख़यालात को अल्फ़ाज़ में ढाला था और उपन्यास में शामिल तंत्र-मंत्र की बातों पर भी तबसरा किया था । हाल ही में 'जिगर का टुकड़ा' से तक़रीबन नौ-दस साल पहले लिखे गए उनके एक और उपन्यास 'इंसाफ़ का सूरज' को पढ़ने का इत्तफ़ाक़ हुआ तो मैं यह देखकर दंग रह गया कि इस बेहतरीन उपन्यास में भी तंत्र-मंत्र का ज़िक्र है हालांकि ह उतना ज़्यादा नहीं है जितना कि 'जिगर का टुकड़ा' में है और कहानी में उसकी अहमियत भी कम ही है । बहरहाल इसमें कोई शक़ नहीं कि 'इंसाफ़ का सूरज' भी वेद जी के शानदार उपन्यासों में शामिल है और किसी भी सस्पेंस-थ्रिलर उपन्यासों के शौक़ीन को इसे पढ़े बिना नहीं रहना चाहिए । 

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा का लेखकीय जीवन गुणवत्ता के निकष पर परखा जाए तो सांख्यिकी के सममितीय वितरण (symmetrical distribution) की मानिंद रहा था अर्थात् एकरूप ढंग से उच्चतर होते हुए चरम सीमा पर पहुँचकर उसी प्रकार निम्नतर होता गया तथा अंत में उसी स्तर पर आ गया जिस स्तर पर आरंभ में था । उन्होंने निहायत मामूली उपन्यासों से लिखना शुरु करके आगे चलकर एक-से-एक ज़बरदस्त उपन्यास लिखे लेकिन चोटी पर पहुँचने के बाद फिर से नीचे आते हुए वे मामूली-से-मामूली उपन्यास पेश करते गए जिनमें से कई पर नक़ली (किसी और के लिखे हुए) होने का भी शुबहा होता है । उनका स्वर्णकाल सत्तर के दशक के अंत से लेकर नब्बे के दशक के आरंभ तक माना जा सकता है । अस्सी का दशक तो पूरी तरह उन्हीं का था जब वे लुगदी साहित्य या पल्प फ़िक्शन के बेताज बादशाह माने जाते थे । 'इंसाफ़ का सूरज' उसी समयकाल में सिरजा गया था । 

वेद जी उपन्यासों के नामकरण में भी चतुर थे तथा अपने प्रत्येक उपन्यास का नाम बड़ा आकर्षक रखते थे । प्रायः उनके उपन्यास के नाम का सम्बन्ध उसके कथानक से होता था लेकिन इस उपन्यास में संभवतः उन्हें रखने के लिए कोई ऐसा नाम नहीं सूझा जो कथावस्तु की ओर संकेत करता हो । इसलिए उन्होंने उपन्यास के न्यायप्रिय एवं कर्तव्यपरायण नायक के नाम (सूरज) को रेखांकित करते हुए उपन्यास का नाम 'इंसाफ़ का सूरज' रख दिया जबकि उपन्यास की कहानी से इस शीर्षक का कोई लेना-देना नहीं है । पर उपन्यास है कमाल का । पढ़कर आनंद आ गया । 

'इंसाफ़ का सूरजकहानी कहता है बम्बई (अब मुम्बई) से कोई पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटे-से कस्बे सरूरपुर में स्थित ठाकुर गजेन्द्रसिंह की हवेली की जो 'ठाकुर की हवेलीके नाम से प्रसिद्ध है । ठाकुर गजेन्द्रसिंह को दिवंगत हुए पाँच वर्ष हो चुके हैं । अब हवेली में उनकी विधवा सुलोचना देवी अपने दो पुत्रों - श्रीकांत तथा शूरवीर के साथ रहती हैं । ज्येष्ठ पुत्र श्रीकांत विवाहित है तथा उसकी पत्नी रमा एक आठ वर्षीय पुत्र की माता है जो दुर्भाग्यवश पैर से विकलांग हो गया है । समस्या कनिष्ठ पुत्र शूरवीर को लेकर है क्योंकि उसकी दो दुलहनों की हत्या हो चुकी है । सुलोचना देवी अब उसका तीसरी बार विवाह करने जा रही हैं मंजू नामक युवती से जिसके लिए उन्हें उसके कथित मामा बिज्जू ने बताया है कि वह बिना माता-पिता की अनाथ युवती है तथा जिसका मामा के अतिरिक्त इस संसार में कोई नहीं है । विवाह को रोकने का प्रयास पुलिस भी करती है तथा प्रकृति भी  वैवाहिक कर्मकांड के मध्य ही भीषण आँधी-तूफान-बारिश आकर विघ्न डालते हैं तथा कई अन्य अपशगुन भी होते हैं । लेकिन विवाह हो ही जाता है । 

विवाह के उपरांत यह देखकर मंजू का मस्तिष्क घूम जाता है कि उसके ससुराल के विभिन्न व्यक्ति उसे एकदूसरे से सावधान करते हैं तथा उसके पति की पहली दो पत्नियों की मृत्यु की पृथक्-पृथक् व्याख्या करते हैं । परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त घर का एक कुबड़ा नौकर बबरू भी उसे सावधान करने वालों तथा हवेली की दो पूर्व वधुओं की मृत्यु की कहानी सुनाने वालों में सम्मिलित है । ऐसे में मंजू को लगने लगता है कि वह तो किसी पर भी विश्वास नहीं कर सकती तथा उसके प्राण संकट में हैं । लेकिन उसका अपना चरित्र तथा गतिविधियां भी रहस्यमय हैं । हवेली में पहले भी भुतहा घटनाएं घटती रही हैं तथा अब फिर से वैसा होने के कारण वह बदनाम होती जा रही है । सुलोचना देवी के विचार से ऐसा तंत्र-मंत्र द्वारा करवाया जा रहा है तथा करवाने वाला है उनके पति का पुराना मित्र तथा अब शत्रु जिसका नाम वीर बहादुर है एवं जो बम्बई (मुम्बई) में रहता है । उसकी काट भी वह तंत्र-मंत्र द्वारा ही करवाना चाहती हैं जिसके लिए वे चाण्डाल नामक तथाकथित तांत्रिक की सहायता लेती हैं ।

इधर पुलिस के उप-अधीक्षक त्रिपाठी साहब हवेली की दुलहनों की हत्या के मामले की छानबीन अपने सर्वाधिक विश्वस्त एवं सुयोग्य इंस्पेक्टर सूरज को सौंपते हैं जिसकी वे सदा 'इंसाफ़ का सूरज' कहकर प्रशंसा करते हैं । सूरज अपने साथी सब-इंस्पेक्टर खरे के साथ मिलकर मामले की तह में घुसने लगता है लेकिन तभी हवेली में हो रही डरावनी घटनाओं से घबराकर ठाकुर परिवार हवेली को ख़ाली करके अपने फ़ॉर्म हाउस पर रहने चला जाता है । इन डरावनी घटनाओं में सबसे ज़्यादा ख़ौफ़नाक और दहला देने वाली घटना है बबरू की हत्या । 

ख़ाली हवेली में घुस आता है अपराधियों का एक दल जिसके सदस्य अपने वास्तविक नामों के स्थान पर अपनी विशेषताओं के कारण पशुओं के नाम से जाने जाते हैं - एक चीता कहलाता है, एक बन्दर, एक हिरन, एक तोता; और इस दल के मुखिया को करकेंटा कहा जाता है । ख़ाली हवेली में क्या करना चाहते हैं वे ? क्या है उनका निशाना ? एक  रहस्यमयी 'लोमड़ी' इन लोगों के भी पीछे पड़ी है, वह कौन है ? और क्या हवेली की बहुओं की मौत से इन लोगों का कोई ताल्लुक़ है ?  इन सभी सवालों के जवाब तथा कहानी के सभी रहस्यों का ख़ुलासा पाठकों के सामने भी उसी तरह होता जाता है जिस तरह 'इंसाफ़ के सूरज' के सामने । उसके सामने राज़ उसकी अपनी खोजबीन से खुलते हैं तो पाठकों के सामने उपन्यास के पन्नों को पलटते जाने से । 

पुराने ज़माने में राजा-महाराजा-नवाब वग़ैरह तथा ज़मींदार-जागीरदार जैसे रईस लोग जब हवेलियां बनवाते थे तो उनमें तहख़ाने होते थे, सुरंगें होती थीं, छुपे हुए रास्ते होते थे और होता था एक रहस्य का माहौल । इस उपन्यास की हवेली भी ऐसी ही है जिसके कारण वह भी उपन्यास का वैसा ही अभिन्न एवं जीवंत पात्र है जैसे कि इसके मानवीय पात्र । उपन्यास में यह बहुत अच्छे-से स्थापित किया गया है कि वास्तविक संकट से अधिक व्यक्ति को उसके विचार एवं आशंकाएं भयभीत करती हैं । यह भी रेखांकित किया गया है कि व्यक्तियों के विचार वास्तविक तथ्यों से अधिक उनकी अपनी धारणाओं से प्रभावित होते हैं । इन्हीं कारणों से लोग एकदूसरे पर संदेह करते हैं तथा भ्रमित रहते हैं ।

'इंसाफ़ का सूरज' में वेद प्रकाश शर्मा की लेखनी का जादू प्रथम दृश्य से लेकर अंतिम दृश्य तक बना रहता है । उपन्यास के आख़िर में भी वे पाठकों को एक ज़ोरदार झटका दे ही देते हैं । ऐसे ही झटकों के लिए वे अस्सी के दशक में 'झटका स्पेशलिस्ट' के नाम से मशहूर हो गए थे । सरल हिंदी में लिखे गए इस उपन्यास को एक बार यदि आपने पढ़ना आरंभ कर दिया तो इसे अंत तक पढ़े बिना आप रह ही नहीं सकेंगे । उपन्यास में कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर विश्वास न किया जा सके । सब कुछ तार्किक ही है । सब-इंस्पेक्टर खरे के माध्यम से कुछ हास्य भी उत्पन्न किया गया है । अगर आप जानना चाहते हैं कि क्यों अस्सी के दशक में हिंदी के पाठक वेद प्रकाश शर्मा की कलम के दीवाने हो गए थे तो 'इंसाफ़ का सूरज'  पढ़ लीजिए । जान जाएंगे । 

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