इस कायनात का अगर कोई सबसे बड़ा, सबसे ज़्यादा उलझा हुआ और सबसे पुराना
राज़ है तो वह है औरत और मर्द का प्यार । दो भिन्न लिंगियों का पारस्परिक आकर्षण और फिर
मिलन ही सृष्टि
की उत्तरजीविता का आधार है । यह न होता तो संसार ही न होता, मानव जाति का कोई इतिहास ही
न होता । भिन्न लिंगी के प्रति यह आकर्षण मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में
भी होता है लेकिन मनुष्य के पास क्योंकि एक विकसित मस्तिष्क है और वह अपने प्रेम
को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त कर सकता है, इसलिए उसी के प्रेम की चर्चा (उसी के द्वारा) होती
रहती है, होती आ
रही है सदियों से । चूंकि मानव-जाति में यह प्रेम किसी विशिष्ट को किसी विशिष्ट से
ही होता है, इसलिए यह
प्रश्न सनातन काल से चला आ रहा है और अभी तक अनुत्तरित है कि किसी को किसी से
प्रेम क्यों होता है,
कैसे होता है । क्यों कोई ख़ास किसी ख़ास को ही अपना दिल दे
बैठता है या दिल दे बैठती है, किसी और को क्यों नहीं ? प्रेम की यह गुत्थी बड़ी जटिल है । आज तक तो सुलझी
नहीं, आगे भी
कभी सुलझ सकेगी या नहीं, कौन जाने ?
सामाजिक व्यवस्थाओं के विकास
एवं परिवार की स्थापना हेतु स्त्री-पुरुष के विवाह की संस्था के उद्भव ने इस
अत्यंत प्राकृतिक रूप से अंकुरित होने वाली भावना के संबंध में व्यक्तिगत
स्वातंत्र्य को विभिन्न बंधनों में जकड़ दिया । प्रेम पर तो प्रतिबंध नहीं लगाया
जा सकता था (और है) लेकिन प्रेम की परिणति प्रेमियों के विवाह में होना कठिन से
कठिनतर होता चला गया क्योंकि विवाह में व्यक्ति की नहीं बल्कि उसके माता-पिता, परिवार और समुदाय की इच्छा सर्वोपरि बन गई । पितृसत्तात्मक
समाजों में स्त्री के लिए तो जिससे प्रेम हो, उससे विवाह करना लगभग असम्भव ही हो गया क्योंकि उससे तो उसके मन की बात तक पूछे
बिना उसका विवाह तय कर दिया जाने लगा और जैसे किसी गाय को खूंटे से बांध दिया जाता
है, उसी प्रकार उसे भी बाध्य किया
जाने लगा कि जिस व्यक्ति से उसका विवाह उसके परिजनों द्वारा कर दिया जाए, उसी के साथ चली जाए और अपनी इच्छाओं और भावनाओं को भुलाकर
आजीवन एक विवाहिता के निर्धारित कर्तव्य निभाती जाए ।
ऐसे में स्वभावत: प्रेम पर पहरे
लगाना भी समाज को आवश्यक लगने लगा और वर्जनाओं के कारण प्रेम एक वर्जित फल बन गया
जिसका आकर्षण सामान्य से अधिक ही होता है । अत: प्रेम न केवल चारों दिशाओं में
फैलने लगा बल्कि कवियों, शायरों और कथाकारों के शब्दों
में भी ढलने लगा । कई दुखांत
प्रेमकथाएं तो अमर ही हो गईं जो कि सदियों से सुनाई जाती आ रही हैं । आधुनिक
साहित्य और सिनेमा में भी सबसे अधिक लोकप्रिय विधा प्रेमकथा ही बन गई क्योंकि जो
काम चाहकर भी वास्तविक जीवन में न कर सकें, उसे पुस्तक में पढ़ना और परदे पर देखना लोगों को बहुत भाने लगा । विभिन्न
परिवेशों में, विभिन्न आयुवर्ग के पात्रों के
साथ प्रेमकथाएं रचने का जो सिलसिला एक बार शुरू हुआ, वह फिर चिरस्थायी दौर ही बन गया । अन्य भाषाओं की तरह हिंदी में भी सबसे अधिक
प्रेमकथाएं ही रची जाती हैं । प्रेमकथाओं की इस शृंखला की नवीनतम कड़ी है नवोदित
लेखिका अंचल सक्सेना का उपन्यास - 'विश्वास और मैं' । यह उपन्यास आत्मकथ्यात्मक
शैली में लिखा गया है अर्थात् प्रेम करने वाली लड़की विश्वास नामक लड़के के साथ
अपने संबंध की कहानी अपनी ज़ुबानी बयान करती है और पूरा घटनाक्रम 'मैं' के साथ-साथ चलता है ।
पंद्रह-सोलह वर्ष से
इक्कीस-बाईस वर्ष के बीच की कच्ची-पक्की आयु कुछ ऐसी होती है कि मन हवा में उड़ने
लगता है, अंतस में कोमल भावनाएं बारंबार
करवटें बदलती हैं और रह-रहकर जी चाहता है कि किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ
। 'विश्वास और मैं' की नायिका (मैं) भी इसी दौर से गुज़र रही है । स्कूल से
निकलकर युवा जब कॉलेज में पहुँचते हैं तो एक किस्म की आज़ादी का एहसास उनके रोम-रोम
में समा जाता है । सह-शिक्षा के कारण लड़के-लड़कियों को घुलने-मिलने का अवसर मिलता
है, दोस्तियां होती हैं जिनमें से
कुछ आगे बढ़कर प्रेम तक जा पहुँचती हैं । कथानायिका और विश्वास के साथ भी कुछ-कुछ
ऐसा ही होता है । फ़ोन पर कॉल के ज़रिये ज़बरदस्ती पैदा की गई दोस्ती (या परिचय)
वास्तविक दोस्ती में बदलती है और फिर वक़्त के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए कम-से-कम
नायिका के मन में यह चाह पैदा करती है कि वह जीवन भर के साथ में बदल जाए पर ...
इस 'पर' के आगे बहुत कुछ है जिसे लेखिका
ने 'अधूरी कहानी का पूरा रिश्ता' नाम दिया है । जब लेखिका ने अपनी लेखनी को विराम दिया है, तब तक इस प्रेमी-युगल के प्रथम परिचय को तेरह वर्ष बीत चुके
हैं, जीवन रूपी सरिता में बहुत जल बह
चुका है, दोनों ही के जीवन कई कठोर परीक्षाओं का सामना कर चुके हैं और अब कम-से-कम 'मैं' को जीवन को हलके रूप में लेना
स्वीकार्य नहीं है । चाहे विश्वास अभी तक परिपक्व न हुआ हो (कई लोग वास्तव में ही
जीवन भर परिपक्व नहीं हो पाते) लेकिन वह परिपक्व हो चुकी है और अपने जीवन को किसी
के अनिश्चय का दास नहीं बनने दे सकती । लेकिन अपने मन में गहरी जड़ें जमा चुके
प्रेम को भी वह उखाड़ कर नहीं फेंक सकती । प्रेम
करने वाले साथ रहें या न रहें, प्रेम तो रहेगा ।
फिक्शन लेखन को लेखक की प्रकृति
के दृष्टिकोण से दो श्रेणियों में
रखा जा सकता है : व्यावसायिक और शौक़िया (अमेचर) । प्राय: नवोदित लेखक जिनकी
आजीविका का स्रोत लेखन नहीं, कुछ और होता है, शौक़िया या अमेचर ही होते हैं । स्वयं एक उपन्यास लिख चुकने
के कारण मैं यह बात निजी अनुभव से जानता हूँ कि ऐसे लेखक कम-से-कम अपनी प्रारंभिक
रचनाएं दिल से लिखते हैं, वह लिखते हैं जो उन्होंने स्वयं
अनुभव किया है और जिससे वे स्वयं अपने जीवन में दो-चार हुए हैं । उनके अपने जज़्बात
और तजुरबे ही शब्दों में ढलकर किस्से-कहानियों की शक़्ल
अख़्तियार कर लेते हैं । चूंकि उनकी ये रचनाएं दिल से लिखी गई होती हैं, इसीलिए ईमानदार होती हैं । 'विश्वास और मैं' भी अपने अधिकांश भाग में दिल से
लिखी गई लगती है, इसीलिए लेखिका की अपनी लेखनी के
प्रति ईमानदारी पाठक के दिल को छू जाती है । विश्वास और 'मैं' के पारस्परिक संबंध, भावनाओं एवं व्यवहार के अतिरिक्त भारतीय न्यायालयों के भीतर
की (अप्रिय) वास्तविकता का चित्रण भी अत्यंत स्वाभाविक है और लेखिका के निजी
अनुभवों पर आधारित होने के कारण सत्यनिष्ठा से ओतप्रोत है (लेखिका की आगामी कृति -
'मेरी कचहरी' की थीम यही है) ।
लेकिन शायद उपन्यास के कथानक को
आगे बढ़ाने के लिए लेखिका ने कहीं-न-कहीं दिल की जगह दिमाग़ से घटनाएं जोड़ी हैं
जिनके कारण उपन्यास की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है । विश्वास की भाभी की आत्महत्या की घटना इसका एक उदाहरण है जिसकी
पृष्ठभूमि अथवा कारण का पता अंत तक नहीं चलता । कथानायिका (मैं) और विश्वास के
परिवार वाले भी हाड़-मांस-रक्त से बने वास्तविक लोग कम और कैरीकेचर अधिक लगते हैं
। जिस तरह से कथानायिका के परिजन बिना उसकी भावनाओं को जानने का प्रयास किए उसका
विवाह एक दहेज-लोलुप परिवार में (भारी दहेज देकर) कर देते हैं, वह तो उनकी विवेकशीलता पर ही एक प्रश्नचिह्न लगाता है (और
नायिका की भी जो जीवन का इतना महत्वपूर्ण निर्णय केवल इसलिए कर लेती है कि विश्वास
उससे विवाह करने से पीछे हट गया) । कथानायिका के ससुराल वाले (उसके पति सहित) भी
फ़िल्मी खलनायक ही लगते हैं ।
मैंने एक बार कहीं पढ़ा था - 'कोई नहीं समझ सकता कि औरत जब किसी (मर्द) से प्यार करती है
तो वह उसमें क्या देखती है' । वाक़ई कोई नहीं समझ सकता ।
इसलिए कथानायिका का विश्वास से प्रेम करना अस्वाभाविक नहीं लगता है, अलबत्ता अपने जीवन और विश्वास
के साथ अपने संबंध को लेकर एक परिपक्व निर्णय लेने में उसके द्वारा किया गया
असाधारण विलम्ब कुछ-कुछ अस्वाभाविक लगता है । वह परिपक्वता के वांछित स्तर पर
उपन्यास के अंतिम दो अध्यायों में पहुँचती है । अपने आने वाले जीवन में वह विश्वास
के अतिरिक्त किसी और पुरुष से प्रेम नहीं कर सकेगी, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जैसा प्रेम उसे विश्वास से रहा (और उपन्यास के
अंत में भी है), वैसा प्रेम वह निश्चय ही और
किसी से नहीं कर सकेगी क्योंकि प्रथम अनुभूति प्रथम ही होती है, वह फिर नहीं दोहराई जा सकती ।
न केवल उपन्यास की विषय-वस्तु
आजकल के उठती हुई आयु के युवाओं से जुड़ी है जिनके जीवन में विपरीत लिंग के व्यक्ति से मित्रता और प्रेम अति-महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, लेखिका ने उपन्यास का ताना-बाना भी ऐसी ही शैली में बुना है जो इस आयु-वर्ग के
पाठकों को भाने वाला है । लेकिन इसका परिणाम यह निकला है कि अंतिम दो अध्यायों से
पहले के लगभग सभी अध्याय किसी हिंदी टी.वी. धारावाहिक की स्क्रिप्ट जैसे लगते हैं
। फिर भी इसमें कोई शक़ नहीं कि
उपन्यास आद्योपांत रोचक है एवं प्रारंभ से अंत तक पाठक को बांधे रखता है ।
लेखिका ने उपन्यास में
कथानायिका के साथ वैवाहिक दुराचार का मुद्दा भी हृदयवेदक रूप में उठाया है । इस संदर्भ में
भारतीय न्यायविदों की राय जो भी हो, मानवीय कसौटी पर रखा जाए तो यह निंदनीय (और दंडनीय भी) ही है क्योंकि दुराचार
तो दुराचार है चाहे वह विवाह-संस्था के अंतर्गत ही क्यों न हो । लेकिन परिवार
वालों द्वारा तय किया गया विवाह करने जा रही युवती यदि अब तक अपरिचित रहे पुरुष के
साथ दैहिक-निकटता के लिए मानसिक रूप से तैयार न हो तो बेहतर है कि वह ऐसा विवाह ही
न करे । व्यावहारिक दृष्टिकोण तो यही है विशेषत: एक सुशिक्षित तथा आधुनिक युवती के
लिए ।
प्रमुखत: एक विशेष आयु-वर्ग के
युवाओं को अपील करने वाले इस उपन्यास की भाषा और संवाद वर्तमान पीढ़ी की बोलचाल के
अनुरूप ही हैं जो कि उपन्यास के परिवेश के लिहाज़ से सही लगता है । लेकिन नवोदित
लेखिका को मेरी सलाह यही है कि वे अपने भाषा-ज्ञान और अभिव्यक्ति, दोनों ही पक्षों में सुधार और परिष्कार करें तथा इस तथ्य को
सदा स्मरण रखें कि वे हिंदी की लेखिका हैं, हिंगलिश की नहीं ।
मैंने कुछ वर्षों पूर्व किसी भी
कथा के नायक की एक हिंदी उपन्यासकार द्वारा दी गई अग्रलिखित परिभाषा पढ़ी थी : 'नायक वह है जो दिलों पर छाप छोड़ जाए' । इस नज़रिये से 'विश्वास और मैं' में कोई नायक नहीं है (यहाँ
नायक में नायिका भी सम्मिलित है) । लेखिका ने 'मैं' द्वारा विश्वास को लिखे गए
विस्तृत पत्र के माध्यम से 'प्रेम' और 'प्रेम के भ्रम' के अंतर को सराहनीय ढंग से स्पष्ट किया है । अच्छा यही है
कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में
अध्ययन के साथ-साथ प्रेम की उलझन को भी सुलझाने में लगे युवक-युवती आसक्ति
(इनफ़ैचुएशन) और प्रेम (लव) के अंतर को तथा भावी जीवन के लिए सम्बन्धों में प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के महत्व को भली-भांति समझ लें
क्योंकि -
और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
© Copyrights reserved