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बुधवार, 13 नवंबर 2024

यह लिखा है

हिन्दी फ़िल्म 'ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा' (२०११) में विश्व-भ्रमण पर निकले तीन मित्र - ऋतिक रोशन, फ़रहान अख़्तर तथा अभय देओल अपनी यात्रा के दौरान एक दिन पुरानी बातों को याद करते हुए उन बातों के संदर्भ में एकदूसरे से कहते हैं - 'यह भी लिखा था, वो भी लिखा था'। अर्थात् जो बातें वाक़या हुईं, उनका होना पहले से ही क़िस्मत ने लिख दिया था यानी नियत था उनका होना; वह टल नहीं सकता था। क्या यह सच है ? क्या होनी (या अनहोनी) पहले से तय हो जाती है ? 

मुझे ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फ़िल्म 'स्लमडॉग मिलियनेअर' विशेष पसंद नहीं आई थी किन्तु जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा था, वह इस प्रकार थी - फ़िल्म के प्रथम दृश्य में परदे पर प्रश्न आता है - जमाल प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में भारी धनराशि जीतने की अवस्था में कैसे पहुँचा ? इस प्रश्न के चार वैकल्पिक उत्तर भी परदे पर दिए गए हैं - अ‍. उसने बेईमानी की, ब. वह भाग्यशाली है, स. वह अत्यंत प्रतिभाशाली (genius) है, द. ऐसा होना लिखा है (it is written) अर्थात् ऐसा होना पहले से नियत था; उसके पश्चात् पूरे ढाई घंटे की फ़िल्म गुज़र जाती है तथा फ़िल्म के अंतिम दृश्य में प्रश्न का सही उत्तर परदे पर प्रकट होता है - द. ऐसा होना लिखा है (अर्थात् यह प्रारब्ध ने तय कर दिया था)।

मैं पुरुषार्थ की महिमा से भली-भांति परिचित हूँ तथा मानता भी हूँ कि मानव को पुरुषार्थ से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। कृष्ण भी गीता में यही कहते हैं कि अकर्म में आस्था नहीं होनी चाहिए एवं गोस्वामी तुलसीदास भी मानस में यही कहते हैं-'दैव दैव आलसी पुकारा'। किन्तु कृष्ण गीता में यह भी कहते हैं कि आपका कर्म पर ही अधिकार है, फल पर नहीं। क्या अर्थ है इस बात का ? यही न कि कर्म करते रहो पर उसका फल या अभीष्ट आपके भाग्यानुसार (जैसा कि प्रारब्ध ने आपके लिए नियत कर दिया है) ही आपको मिलेगा ? 

मेरे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिनके होने की मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था। और ऐसी भी अनेक घटनाएं घटते‌-घटते रह गई हैं जिनके होने के लिए मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार था और मानकर चलता था कि वे तो होंगी ही। अर्थात् जो सोचा, वो न हुआ एवं जिसके होने की दूर-दूर तक अपेक्षा न की, वो हो गया। क्या है इसका राज़ ? यही कि सृष्टि में जो कुछ भी होता है, वह पहले से तय है। विधि का विधान है वह जो टलता नहीं। और जो विधि के विधान में होना नहीं लिखा है, वह लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं होने वाला।

आप मुझे भाग्यवादी कह सकते हैं। पर मैं सदा से भाग्यवादी नहीं था। मुझे भाग्यवादी बनाया है जीवन के निरंतर होते रहने वाले अनुभवों ने। अप्रैल २०२१ में जब मूर्धन्य कवयित्रियों वर्षा सिंह तथा शरद सिंह की माताजी विद्यावती जी अस्वस्थ थीं तो मेरे मन में कई बार आता था कि मैं किसी प्रकार उनसे सम्पर्क साधकर उनकी माताजी का कुशल-क्षेम पूछूं किन्तु मैं उनसे सम्पर्क करने का कोई साधन ढूंढ़ ही नहीं पाया। फिर जब उनकी माताजी के देहावसान का समाचार मिला तो उनके दुख में मैंने भी स्वयं को सम्मिलित अनुभव किया। लेकिन जब उनकी माताजी के देहांत के मात्र बारह दिन बाद ही वर्षा जी अकस्मात् चल बसीं तो मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ। इतना समय बीत चुकने के उपरांत भी यदि मैं कहूँ कि मैं उस आघात से पूर्णतः उबर गया हूँ तो यह असत्य ही होगा। क्या स्पष्टीकरण है उनके असामयिक निधन का सिवाय इसके कि उनका जाना ऐसे ही लिखा था ? क्या हैं हम लोग ? क़िस्मत या प्रारब्ध या नियति के हाथ की कठपुतलियां, बस! होना तो वही है जो कर्म की रेख ने पहले ही लिख दिया है, आप चाहे जो कर लें। जो होना है, अपने वक़्त पर होकर ही रहेगा आप बचने के जितने चाहे प्रयास कर लें। और इसी तरह जो नहीं होना है, वो नहीं ही होगा आप उसे करने के चाहे जितने जतन कर लें।

स्वर्गीय वेद प्रकाश शर्मा ने अपने उपन्यास 'रामबाण' में इस बात को रेखांकित किया है कि विधि के विधान में हस्तक्षेप किसी को नहीं करना चाहिए। विधि ने हमारे जीवन में जो एक अनिश्चितता रखी है (हम अपना भविष्य नहीं जान सकते), उसे स्वीकार करना चाहिए। जब होनी टल नहीं सकती और जो अनहोनी है, वो हो नहीं सकती तो भविष्य को जानकर भी हम क्या करेंगे ? 

जोसेफ़ मर्फ़ी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक 'आपके अवचेतन मन की शक्ति' में यह प्रतिपादित किया है कि मनुष्य के अवचेतन मन में यह शक्ति है कि वह आपकी इच्छाओं को पूरा कर सकता है। कुछ सीमा तक उनका यह सिद्धांत ठीक लगता है किन्तु जब विभिन्न व्यक्तियों की इच्छाएं परस्पर विरोधी हो जाएं तो क्या होगा ? उत्तर स्पष्ट है - वही होगा जो पहले से नियत है, जो प्रारब्ध ने पहले ही सुनिश्चित कर दिया है। 

पच्चीस वर्ष पूर्व उनतीस मार्च, सन उन्नीस सौ निन्यानवे को मैं मुम्बई के बांद्रा स्टेशन पर चलती हुई रेलगाड़ी से नीचे जा गिरा। मेरे बाएं हाथ की हड्डी गंभीर रूप से टूट गई तथा मुझे दो बार शल्य-क्रिया से गुज़रना पड़ा। ठीक होने में महीनों लगे तथा मेरे हाथ में एक असामान्यता स्थायी रूप से आ गई। इसके कारण मैंने बहुत कुछ सहा पर अंततः यही माना कि शायद यह मेरे प्रारब्ध में लिखा था। मैंने इस घटना का उल्लेख अपने संघर्ष फ़िल्म पर लिखे गए लेख में किया है।

क़रीब दो माह पूर्व चार सितम्बर को मैं पुनः दुर्घटनाग्रस्त हो गया तथा मेरे हाथ की पच्चीस वर्ष पूर्व टूटी हड्डी पुनः टूट गई। एक बार पुनः मुझे शल्य-क्रिया तथा उसके बाद की जाने वाली चिकित्सकीय प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ा। इन दिनों मेरी फ़िज़ियोथेरापी चल रही है। एक बार फिर बहुत कुछ मैं सह गया (और अभी भी सह रहा हूँ)। मेरे साथ-साथ मेरे परिवार ने भी इसके कारण बहुत सहा है। इस बार तो दुर्घटना के पीछे मैं अपनी कोई ग़लती भी नहीं ढूंढ़ पा रहा। फिर यह क्यों हुई ? क्योंकि होनी लिखी थी। और इसका क्या स्पष्टीकरण हो सकता है ?

दुर्घटना तो फिर भी बड़ी बात है। मैंने तो अपने जीवन में पाया है कि ज़िन्दगी आपको क़दम-क़दम पर चौंकाती है (सरप्राइज़ देती है)। अच्छे सरप्राइज़ भी मिलते हैं, बुरे भी। जो आपको उल्लास से भर दें, ऐसे सरप्राइज़ भी और जो आपको आघात पहुँचाएं, ऐसे सरप्राइज़ भी। जीवन की छोटी-से-छोटी घटनाओं के पीछे ऐसे कारक हो सकते हैं जिन्हें समझ पाना अथवा जिनकी व्याख्या कर पाना संभव नहीं। आप कुछ न करना चाहें पर अगर आपके हाथ से कुछ ऐसा होना बदा हो तो बानक आप-से-आप ही ऐसे बनते चले जाते हैं कि आप वही करते हैं जो नहीं करने के लिए मन पक्का कर चुके थे। आपकी नियति आपको खींचकर उसी पथ पर ले जाती है और आप नियति की शक्ति के समक्ष विवश हो जाते हैं। इसीलिए कहा गया है - मेरे मन कछु और है, विधना के कछु और।

मैं आत्म-सुधार का विरोधी नहीं। अपनी भूलों को महसूस करके उनसे सबक़ सीखना और आगे के लिए ख़ुद में सुधार करना ही जीवन जीने का सही मार्ग है। बस बात इतनी-सी है कि हम प्रारब्ध (या नियति या विधि का विधान या कर्म की रेख या भाग्य) के अस्तित्व को स्वीकारें तथा बात-बात पर ख़ुद को (या दूसरों को) न कोसें। कभी-कभी इसी सोच से अपने मन को सांत्वना दें कि यही होना लिखा था।

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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

प्रश्न राजस्थानी भाषा के आठवीं अनुसूची में समावेश का

विगत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किए जाने से संबंधित याचिका पर निर्णय देते हुए इस संबंध में सरकार को कोई भी निर्देश देने से मना कर दिया तथा कहा कि ऐसा कोई भी निर्णय सरकार ही कर सकती है। न्यायालय का निर्णय उचित है। सरकार ही निर्णय कर सकती है। सरकार को ही निर्णय करना चाहिए। पर यह निर्णय तो दशकों से लंबित है। कब निर्णय होगा इस पर ? कब तक एक सुसमृद्ध भाषा अपनी ही भूमि में पराई बनी रहेगी ?  एक ऐसी भाषा जो अपने साथ शताब्दियों लंबा इतिहास लिए चलती है, कब तक अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित रखी जाएगी ? 

खेद का विषय है कि हिन्दी वाले ही अपनी बहन सरीखी भाषाओं को उनका अधिकार दिए जाने का विरोध करते हैं। यह बात समझ से परे है कि जब गुजराती, पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं को मान्यता दिए जाने से हिन्दी भाषियों को कोई कष्ट नहीं है तो राजस्थानी भाषा को मान्यता दिए जाने से उन्हें विरोध क्यों है। राजस्थानी देश के भौगोलिक दृष्टि से सबसे बड़े राज्य राजस्थान की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली जाती है जिसकी यह मातृभाषा है। ग्रामीण अंचलों में तो लोग हिंदी भलीभांति समझते ही नहीं, राजस्थानी ही समझते हैं। राजस्थानी भाषा का समृद्ध साहित्य है जो कई शताब्दियों में विकसित हुआ है। राजस्थानी लोकगीतों की परम्परा सदियों से अनवरत चली आ रही है। राजस्थानी भाषा का अपना विशाल शब्द भंडार है तथा अपना पृथक् व्याकरण है जो हिन्दी से सर्वथा भिन्न है। ऐसे में इसे इसका यथोचित अधिकार न देने का कोई कारण नहीं है। 

दक्षिण भारतीय राज्य तो हिन्दी थोपे जाने का मुखर विरोध करते हैं और करते आ रहे हैं। क्या राजस्थानी लोग भी ऐसा ही करें कि उन पर हिन्दी क्यों थोपी जा रही है ? इसे समुचित मान्यता मिलनी ही चाहिए। यह इसका अधिकार है जिसे देना सरकार का कर्तव्य है। राजस्थानी भाषा एक सम्पूर्ण भाषा है, कोई बोली नहीं है। यह ठीक है कि राजस्थान के विविध अंचलों में मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, बागड़ी आदि बोलियां प्रचलन में हैं किंतु ये सब समग्र रूप में राजस्थानी भाषा की ही अंग हैं। इनके अस्तित्व के कारण राजस्थानी भाषा के अस्तित्व को ही मान्यता न दिया जाना न्यायपूर्ण नहीं है। किसी भी भाषा में आंचलिक भिन्नता के कारण बोलियों के स्तर पर अंतर आ ही जाता है किंतु इससे भाषा की समग्रता पर प्रभाव नहीं पड़ता है। जिसे हम हिन्दी के रूप में लिखते हैं, वह खड़ी बोली है किंतु यह खड़ी बोली उत्तर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक एक ही प्रकार से नहीं बोली जाती है। अनेक परिवर्तन आते हैं इसमें। यह आंचलिक आधार पर स्वयं में अनेक बोलियों को समाविष्ट करती है जिनमें तुलसी की अवधी तथा सूर की ब्रज भी सम्मिलित है। अतः राजस्थानी भाषा को बोलियों की भिन्नता के आधार पर नकारा जाना सर्वथा अनुचित है। जब मैथिली भाषा को पृथक् रूप से आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जा सकता है तो राजस्थानी भाषा को क्यों नहीं ? 

प्रत्येक भाषा अपने साथ अपना एक इतिहास, एक संस्कार, एक संस्कृति तथा एक विशिष्ट धरोहर लेकर चलती है। यदि कोई भाषा पूर्ण या आंशिक रूप से समाप्त हो जाती है तो हजारों वर्ष पूर्व की पहचान, साहित्य, सूचनाएं, अनुभव, सांस्कृतिक विरासत आदि के लिए भी विलुप्त हो जाने का संकट उत्पन्न हो जाता है। अतः भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए। राजस्थानी एक स्वतंत्र भाषा है जिसका संरक्षण संविधान में मान्यता प्रदान करके किया ही जाना चाहिए। राजस्थानी समुदाय भारत ही नहीं, विश्व के विविध भागों में फैला हुआ है तथा वह अपने साथ राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं को लेकर जाता है। ऐसे में भाषारूपी सांस्कृतिक धरोहर को क्यों न सहेजकर रखा जाए ? राजस्थानी गीतों के माधुर्य को उन्हें सुनने वाले ही जानते हैं। आज भी हम पृथ्वीराज चौहान को चंद बरदाई की पृथ्वीराज रासो के माध्यम से ही याद रखते हैं। हम मीरा के भजन गाते हैं। रानी पद्मिनी के बलिदान और आल्हा-ऊदल के शौर्य को स्मरण करते हैं। ऐसे में उनकी भाषा को स्वीकृति देने में संकोच क्यों ? क्या बाधा है इसमें ? अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत को संजोकर रखना तो प्रत्येक सरकार एवं प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। सूर्यमल्ल मिश्रण तथा कन्हैयालाल सेठिया जैसे कवियों का कर्म हिन्दी कवियों के कर्म से कमतर नहीं आंका जा सकता। इनके जैसे प्रतिभाशाली राजस्थानी कलाकारों एवं साहित्यकारों को मान्यता एवं सम्मान तभी मिलेगा जब राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाएगा। अब इसमें और विलम्ब नहीं होना चाहिए। 

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शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

सूरज बड़जात्या का अयोध्या कांड

अब जबकि अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर का उद्घाटन होने जा रहा है, मुझे एक ऐसी हिन्दी फ़िल्म की याद आ रही है जो कि रामायण पर तो आधारित नहीं है किन्तु रामायण के अयोध्या कांड को आधुनिक परिवेश में आधुनिक पात्रों के साथ प्रस्तुत करती है। जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी तो यह मेरे तथा मेरे छोटे-से परिवार (मैं, मेरी पत्नी एवं मेरी नन्ही पुत्री) की पसंदीदा फ़िल्म बन गई थी। यह फ़िल्म है - 'हम साथ-साथ हैं' (१९९९)।

'हम साथ-साथ हैं' राजश्री बैनर के तले बनाई गई निर्माता-निर्देशक सूरज बड़जात्या की फ़िल्म है जिनकी इससे पहले बनी फ़िल्म 'हम आपके हैं कौन ?' (१९९४) व्यावसायिक रूप से अत्यधिक सफल रही थी एवं उसे भरपूर प्रशंसा भी प्राप्त हुई थी। मुझे वह फ़िल्म कुछ कम पसंद इसलिए आई थी क्योंकि उसमें जो परिवार दिखाया गया था, वह अत्यधिक धनी था एवं जीवन की दैनंदिन समस्याओं से सुरक्षित था। वस्तुतः वह राजश्री की ही पुरानी फ़िल्म 'नदिया के पार' (१९८२) का ही नगरीय संस्करण थी जो कि एक सादगी से परिपूर्ण हृदयस्पर्शी फ़िल्म थी। बहरहाल 'हम आपके हैं कौन ?' भारतीय सिने इतिहास की सफलतम फ़िल्मों में सम्मिलित हुई तथा सूरज ने अपनी अगली फ़िल्म 'हम साथ-साथ हैं ?' को लगभग उसी ढंग से बनाया। लेकिन फ़िल्म में कथा भी तो होनी चाहिए। सूरज को अपनी फ़िल्म की कथा गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के अयोध्या कांड में मिली।

अयोध्या कांड में राम के राजतिलक से पूर्व ही रानी कैकेयी द्वारा राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत हेतु राजपाट तथा राम हेतु चौदह वर्षों के वनवास का वचन मांगना, राम द्वारा पिता के वचन-पालन हेतु अपनी भार्या सीता एवं अनुज लक्ष्मण सहित वन-गमन, उनकी अनुपस्थिति में भरत द्वारा स्वयं को राजा न मानकर केवल अपने अग्रज राम की चरण-पादुका को सिंहासन पर रखकर उनके प्रतिनिधि के रूप में राज-कर्तव्य का पालन आदि प्रसंग सम्मिलित हैं। इसी कथा को सूरज बड़जात्या ने आधुनिक बाना पहना दिया है। राजा दशरथ के स्थान पर हैं एक उद्योगपति रामकिशन (आलोक नाथ), कैकेयी के स्थान पर हैं उनकी दूसरी पत्नी ममता (रीमा), राम के स्थान पर हैं उनकी दिवंगत प्रथम पत्नी से उत्पन्न पुत्र विवेक (मोहनीश बहल), भरत एवं लक्ष्मण के स्थान पर हैं ममता के पुत्र प्रेम (सलमान खान) एवं विनोद (सैफ़ अली खान) एवं सीता के स्थान पर हैं विवेक की पत्नी साधना (तब्बू). इस आधुनिक रामकथा में तीन भाइयों की एक बहन भी है - संगीता (नीलम) जो कि आनंद बाबू (महेश ठाकुर) से विवाहित है। रामकथा में सीता के पिता राजा जनक हैं तो यहाँ साधना के पिता आदर्श बाबू (राजीव वर्मा) हैं। अन्य पात्रों में एक ओर आनंद बाबू के बड़े भाई अनुराग बाबू (दिलीप धवन) एवं उनकी पत्नी (शीला शर्मा) हैं तो दूसरी ओर विवेक के अभिन्न मित्र अनवर (शक्ति कपूर)। संगीता एक बच्ची की माता है पर वह अपने जेठ के दो लड़कों को अपनी संतानों की तरह ही प्यार करती है तथा तीनों बालक साथ ही रहते एवं हंसते-खेलते हैं। 

अब चूंकि सूरज को एक नृत्य-गीतों वाली, मनोरंजन से युक्त व्यावसायिक फ़िल्म बनानी थी, तो उसने प्रेम एवं विनोद के लिए भी दो नायिकाएं प्रस्तुत कर दीं। हम चाहें तो प्रेम की बचपन की सखी एवं प्रेयसी प्रीति (सोनाली बेंद्रे) को रामायण की मांडवी मान लें तथा विनोद की बचपन की सखी एवं प्रेयसी सपना (करिश्मा कपूर) को रामायण की उर्मिला। दोनों के ही पिता रामकिशन के पुराने मित्र एवं उनके मूल गांव रामपुर के साथी हैं। प्रीति के पिता प्रीतम (सतीश शाह) एक हंसमुख स्वभाव के सरल व्यक्ति हैं जबकि सपना के पिता धर्मराज (सदाशिव अमरापुरकर) कुछ लालची एवं नाटकीय स्वभाव के व्यक्ति हैं। सपना की दादी (शम्मी) भी फ़िल्म में हैं। रामायण में कैकेयी को दिग्भ्रमित करने वाली दासी मंथरा है तो फ़िल्म में ममता की बुद्धि फेरने हेतु तीन-तीन मंथराएं (कुनिका, जयश्री तलपदे एवं कल्पना अय्यर) रखी गई हैं। इनके अतिरिक्त भी फ़िल्म में कुछ पात्र हैं जिनमें प्रमुख हैं ममता के वकील भाई (अजीत वाच्छानी) एवं उनकी पत्नी (हिमानी शिवपुरी)। 

अब ढेर सारे पात्र हैं तो सभी से दर्शकों को परिचित भी करवाना था एवं कथा में समायोजित भी करना था। आधुनिक कैकेयी ममता (जो आधुनिक राम विवेक को अपनी संतान की ही भांति प्रेम करती हैं) के मनोमस्तिष्क पर कुप्रभाव डालने वाली कोई घटना भी होनी चाहिए थी। अतः घर के दामाद आनंद बाबू के साथ उनके बड़े भाई अनुराग बाबू द्वारा अन्याय किया जाना दिखाया जाता है। इधर व्यवसाय के सर्वेसर्वा रामकिशन अपनी कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद (जो कि रामायण के राजपाट के सदृश ही है) अपने ज्येष्ठ पुत्र विवेक को सौंपने की घोषणा कर देते हैं जो न केवल इस परिवार को देखकर कुढ़ने वाले धर्मराज को वरन ममता की तीन सहेलियों (अर्थात फ़िल्म की मंथराओं) को विचलित कर देती है। चूंकि आनंद बाबू के साथ हाल ही में बुरा हुआ है, ममता को अपने पुत्र प्रेम की चिंता लग जाती है एवं वह व्यवसाय तथा संपत्ति के बंटवारे की मांग को लेकर कोपभवन (अपने कक्ष) में जा बैठती है। रामकिशन दुखी होते हैं किन्तु माता का मन शांत हो, इसके लिए विवेक तथा साधना उनके पैतृक गांव रामपुर जाने का निर्णय ले लेते हैं जहाँ उनका पुराना मकान है तथा रामकिशन द्वारा वहाँ एक नया कारख़ाना बनवाया जा रहा है। अपनी माता से रूष्ट विनोद भी उनके साथ लग लेता है।

रामायण के अयोध्या कांड में इन घटनाओं के समय भरत को अयोध्या से बाहर बताया गया है तो फ़िल्म में भी आधुनिक भरत प्रेम को उच्च शिक्षा हेतु विदेश गया हुआ बताया गया है। रामायण के भरत की ही भांति प्रेम भी लौटकर यह सब जानने के उपरांत अपनी माता से रूष्ट होता है एवं अपने बड़े भाई को मनाकर लौटा लाने का प्रयास करता है। अंततः वह कम्पनी के प्रबंध निदेशक का पद सम्भालता तो है किन्तु उस आसन पर नहीं बैठता एवं अपने आवास में भी विवेक के कक्ष में जाने के अपनी माता के आग्रह को ठुकरा देता है। चूंकि फ़िल्म का सुखद अंत करना था तो अनुराग बाबू का हृदय-परिवर्तन करवाया गया है जिससे आनंद बाबू तथा संगीता को उनका अधिकार पुनः मिलता है, इसका सकारात्मक प्रभाव ममता के मन पर पड़ता है, वह अपनी भूल को सुधारती है एवं विवेक व साधना की प्रथम संतान के जन्म के समय सम्पूर्ण परिवार का सुखद पुनर्मिलन होता है। 


सभी पात्रों तथा उनके पारस्परिक संबंधों से दर्शकों को परिचित करवाने हेतु फ़िल्म की शुरुआत पुराने ज़माने के पारसी नाटकों की तर्ज़ पर की गई है जहाँ प्रत्येक पात्र अपना परिचय देकर एक ओर हो जाता है तथा दूसरे पात्र को दर्शकों के समक्ष आने का अवसर देता है। इस हेतु रामकिशन एवं ममता के विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ को निमित्त बनाया गया है। विवेक के चरित्र को उभारने हेतु यह बताया गया है कि अपने अनुज को बचाने के प्रयास में उसका हाथ चोटग्रस्त हो गया था। वहीं इसी अवसर को विवेक तथा साधना का विवाह तय करने हेतु आधार बनाया गया है तथा विवाह समारोह, विवाहोपरांत घर में हुए (रिसैप्शन सरीखे) दूसरे समारोह, प्रेम व प्रीति की सगाई, हनीमून के लिए कहीं दूर जाने के स्थान पर विवेक तथा साधना द्वारा सभी को साथ लेकर रामपुर जाना, वहाँ सभी का हंसी-ख़ुशी समय बिताना और विनोद व सपना की सगाई आदि कार्यक्रमों के माध्यम से न केवल नाच-गाने फ़िल्म में डाले गए हैं बल्कि फ़िल्म का अधिकांश भाग इन्हीं सब मे व्यय किया गया है। कथानक में मोड़ तथा उससे जुड़े घटनाक्रम फ़िल्म के अंतिम घंटे में ही दर्शकों के समक्ष आते हैं। लगभग तीन घंटे लंबी यह फ़िल्म स्वस्थ एवं सम्पूर्ण मनोरंजन प्रदान करती है।

फ़िल्म अपने अधिकांश भाग में 'हम आपके हैं कौन ?' के ढंग से ही चलती है, संभवतः इसीलिए यह उससे कम सफल रही थी क्योंकि दर्शकों को दोहराव का आभास हुआ। फिर भी यह फ़िल्म पारिवारिक स्नेह एवं उसके महत्व को न केवल प्रभावी ढंग से दर्शाती है वरन अनेक स्थानों पर गुदगुदाती भी है विशेषतः उन दृश्यों में जो विनोद से संबंधित हैं। तीनों भाइयों के चरित्रों का विकास बहुत अच्छे ढंग से किया गया है तथा उनका पारस्परिक स्नेह ही फ़िल्म की हाईलाइट है। अपने प्रारंभ से ही यह फ़िल्म दर्शकों को पात्रों की गतिविधियों के साथ-साथ बहाती चलती है एवं उन्हें ऊबने का कोई अवसर नहीं देती यद्यपि प्रारंभिक दो घंटे केवल पात्रों द्वारा किसी-न-किसी अवसर की ख़ुशियां मनाने में ही बिताए जाते हैं। सूरज संभवतः किसी भी कथा के इसी पक्ष के चित्रण में सिद्धहस्त रहे हैं।

कमियां फ़िल्म के निर्देशन में हैं। फ़िल्म के  पात्रों के पास न केवल बहुत धन है बल्कि उसका आनंद उठाने हेतु बहुत सारा समय भी है। एक सम्पूर्ण पारिवारिक महिला होने पर भी ममता द्वारा तीन सोसाइटी गर्ल सरीखी स्त्रियों से प्रगाढ़ मित्रता रखना एवं उन्हें न केवल बढ़-बढ़कर बोलने की वरन अपने घर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की भी खुली छूट देना अस्वाभाविक लगता है। किसी भी धनी व्यावसायिक परिवार की गृहिणी बाहरी लोगों को ऐसा नहीं करने देगी। वस्तुतः इन फ़िल्मी मंथराओं के चरित्र तथा बातें व हावभाव ही फ़िल्म को स्वाभाविकता की पटरी से उतार देते हैं और ऐसा अनुभव कराते हैं मानो कोई दूसरे लोक से आए पात्रों को सिनेमा के पटल पर ले आया गया हो। फ़िल्म का सुखान्त भी बड़ी सुगमता से करा दिया गया है और संगीता व आनंद बाबू की गंभीर समस्या को भी चुटकी बजाने जैसी सरलता से हल होते दिखाया गया है। ये सब बातें फ़िल्म को गंभीरता से नहीं लेने देतीं तथा इसे केवल मनोरंजनार्थ ही रहने देती हैं। अंतिम एक घंटे में रामायण के अयोध्या कांड के प्रसंगों की नक़ल कुछ ऐसे की गई है कि नासमझ-से-नासमझ दर्शक भी जान लेता है कि फ़िल्म की कहानी किस स्रोत से फूटकर आ रही है। आख़िर जिन्होंने रामचरितमानस नहीं पढ़ी, सदियों से आयोजित होती आ रहीं रामलीलाएं तो उन्होंने भी देखी हैं।

रामलक्ष्मण का संगीत तथा जय बोराड़े का नृत्य-निर्देशन फ़िल्म का एक अत्यन्त सशक्त पक्ष है। रवींद्र रावल, देव कोहली, मिताली शशांक तथा आर. किरण द्वारा रचे गए अति-सुंदर गीतों पर मनमोहक धुनें बनाई गई हैं एवं उन पर किए गए नृत्य दर्शकों के नयनों को शीतलता प्रदान करते हैं। म्हारे हिवड़ा में नाचे मोरतथा एबीसीडीईएफ़जीएचआईविशेष रूप से उल्लेखनीय हैं किन्तु अन्य गीत भी संगीत-प्रेमियों के दिलों को लुभाने में पीछे नहीं रहे हैं। सुनोजी दुल्हन इक बात सुनोजीगीत में पिरोई गई विभिन्न पुराने गीतों की पैरोडियां भी ख़ूब मनोरंजन करती हैं।

ममता की सहेलियों के रूप में कुनिका, जयश्री तलपदे व कल्पना अय्यर तथा कुछ सीमा तक धर्मराज के रूप में सदाशिव अमरापुरकर के साठ के दशक से अस्सी के दशक वाली अति-नाटकीयता का स्मरण कराने वाले अभिनय को छोड़ दिया जाए तो सभी कलाकारों ने अपने-अपने चरित्रों के साथ पूरा न्याय किया है। भाइयों के रूप में मोहनीश बहल, सलमान खान एवं सैफ़ अली खान का प्रेम कहीं से भी फ़िल्मी नहीं लगतासच्चा लगता है। सैफ़ अली खान ने एक मस्तमौला युवक के रूप में अपने अभिनय से बाक़ी सभी कलाकारों को पीछे छोड़ दिया है। इस फ़िल्म में उनका अभिनय उनके सर्वश्रेष्ठ अभिनय-प्रदर्शनों में सम्मिलित किया जा सकता है।

अब यह रामायण तुलसीदास जी ने तो रची नहीं है किन्तु उनके द्वारा रचित चौपाइयां फ़िल्म के प्रथम दृश्य में एवं फ़िल्म के उत्तरार्ध के कतिपय दृश्यों में सुनी जा सकती हैं। सूरज बड़जात्या न तो तुलसीदास हैं, न बन सकते थे किन्तु उन्हें तुलसीदास जी का आभारी होना चाहिए कि उनकी रामायण के अयोध्या कांड ने उन्हें अपनी फ़िल्म की कथा प्रदान कर दी अन्यथा उनकी नवीनतम फ़िल्म ऊंचाईसे पूर्व मैं यही समझता था कि सूरज बड़े बजट की भव्य और संगीतमय फ़िल्म तो बना सकते हैं लेकिन किसी नई कथा का सृजन उनके वश की बात नहीं। ख़ैर, जब राम-सिया-लक्ष्मण हमारे मन में बसे हैं तो हम सम्पूर्ण परिवार के साथ इस फ़िल्म को भी देख सकते हैं एवं एक स्वस्थ, संगीतमय, पारिवारिक मनोरंजन प्राप्त कर सकते हैं।

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