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रविवार, 25 फ़रवरी 2024

प्रश्न राजस्थानी भाषा के आठवीं अनुसूची में समावेश का

विगत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किए जाने से संबंधित याचिका पर निर्णय देते हुए इस संबंध में सरकार को कोई भी निर्देश देने से मना कर दिया तथा कहा कि ऐसा कोई भी निर्णय सरकार ही कर सकती है। न्यायालय का निर्णय उचित है। सरकार ही निर्णय कर सकती है। सरकार को ही निर्णय करना चाहिए। पर यह निर्णय तो दशकों से लंबित है। कब निर्णय होगा इस पर ? कब तक एक सुसमृद्ध भाषा अपनी ही भूमि में पराई बनी रहेगी ?  एक ऐसी भाषा जो अपने साथ शताब्दियों लंबा इतिहास लिए चलती है, कब तक अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित रखी जाएगी ? 

खेद का विषय है कि हिन्दी वाले ही अपनी बहन सरीखी भाषाओं को उनका अधिकार दिए जाने का विरोध करते हैं। यह बात समझ से परे है कि जब गुजराती, पंजाबी, मराठी आदि भाषाओं को मान्यता दिए जाने से हिन्दी भाषियों को कोई कष्ट नहीं है तो राजस्थानी भाषा को मान्यता दिए जाने से उन्हें विरोध क्यों है। राजस्थानी देश के भौगोलिक दृष्टि से सबसे बड़े राज्य राजस्थान की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली जाती है जिसकी यह मातृभाषा है। ग्रामीण अंचलों में तो लोग हिंदी भलीभांति समझते ही नहीं, राजस्थानी ही समझते हैं। राजस्थानी भाषा का समृद्ध साहित्य है जो कई शताब्दियों में विकसित हुआ है। राजस्थानी लोकगीतों की परम्परा सदियों से अनवरत चली आ रही है। राजस्थानी भाषा का अपना विशाल शब्द भंडार है तथा अपना पृथक् व्याकरण है जो हिन्दी से सर्वथा भिन्न है। ऐसे में इसे इसका यथोचित अधिकार न देने का कोई कारण नहीं है। 

दक्षिण भारतीय राज्य तो हिन्दी थोपे जाने का मुखर विरोध करते हैं और करते आ रहे हैं। क्या राजस्थानी लोग भी ऐसा ही करें कि उन पर हिन्दी क्यों थोपी जा रही है ? इसे समुचित मान्यता मिलनी ही चाहिए। यह इसका अधिकार है जिसे देना सरकार का कर्तव्य है। राजस्थानी भाषा एक सम्पूर्ण भाषा है, कोई बोली नहीं है। यह ठीक है कि राजस्थान के विविध अंचलों में मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, हाड़ौती, बागड़ी आदि बोलियां प्रचलन में हैं किंतु ये सब समग्र रूप में राजस्थानी भाषा की ही अंग हैं। इनके अस्तित्व के कारण राजस्थानी भाषा के अस्तित्व को ही मान्यता न दिया जाना न्यायपूर्ण नहीं है। किसी भी भाषा में आंचलिक भिन्नता के कारण बोलियों के स्तर पर अंतर आ ही जाता है किंतु इससे भाषा की समग्रता पर प्रभाव नहीं पड़ता है। जिसे हम हिन्दी के रूप में लिखते हैं, वह खड़ी बोली है किंतु यह खड़ी बोली उत्तर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक एक ही प्रकार से नहीं बोली जाती है। अनेक परिवर्तन आते हैं इसमें। यह आंचलिक आधार पर स्वयं में अनेक बोलियों को समाविष्ट करती है जिनमें तुलसी की अवधी तथा सूर की ब्रज भी सम्मिलित है। अतः राजस्थानी भाषा को बोलियों की भिन्नता के आधार पर नकारा जाना सर्वथा अनुचित है। जब मैथिली भाषा को पृथक् रूप से आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जा सकता है तो राजस्थानी भाषा को क्यों नहीं ? 

प्रत्येक भाषा अपने साथ अपना एक इतिहास, एक संस्कार, एक संस्कृति तथा एक विशिष्ट धरोहर लेकर चलती है। यदि कोई भाषा पूर्ण या आंशिक रूप से समाप्त हो जाती है तो हजारों वर्ष पूर्व की पहचान, साहित्य, सूचनाएं, अनुभव, सांस्कृतिक विरासत आदि के लिए भी विलुप्त हो जाने का संकट उत्पन्न हो जाता है। अतः भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए। राजस्थानी एक स्वतंत्र भाषा है जिसका संरक्षण संविधान में मान्यता प्रदान करके किया ही जाना चाहिए। राजस्थानी समुदाय भारत ही नहीं, विश्व के विविध भागों में फैला हुआ है तथा वह अपने साथ राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं को लेकर जाता है। ऐसे में भाषारूपी सांस्कृतिक धरोहर को क्यों न सहेजकर रखा जाए ? राजस्थानी गीतों के माधुर्य को उन्हें सुनने वाले ही जानते हैं। आज भी हम पृथ्वीराज चौहान को चंद बरदाई की पृथ्वीराज रासो के माध्यम से ही याद रखते हैं। हम मीरा के भजन गाते हैं। रानी पद्मिनी के बलिदान और आल्हा-ऊदल के शौर्य को स्मरण करते हैं। ऐसे में उनकी भाषा को स्वीकृति देने में संकोच क्यों ? क्या बाधा है इसमें ? अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी विरासत को संजोकर रखना तो प्रत्येक सरकार एवं प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। सूर्यमल्ल मिश्रण तथा कन्हैयालाल सेठिया जैसे कवियों का कर्म हिन्दी कवियों के कर्म से कमतर नहीं आंका जा सकता। इनके जैसे प्रतिभाशाली राजस्थानी कलाकारों एवं साहित्यकारों को मान्यता एवं सम्मान तभी मिलेगा जब राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाएगा। अब इसमें और विलम्ब नहीं होना चाहिए। 

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12 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय सर आपने बिलकुल सौ प्रतिशत सच बात कही है,राजस्थान की भूमि से जन्म लिए हुए बलिदान की कहानियाँ हैं,बहां की भाषा की बात ही अलग है,वहाँ तो एक इतिहास वसता है ।

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  2. राजस्थानी भाषा में वास्तव में एक अलग तरह की मिठास है | मेघराज मुकुल जी के मुख से मैंने वहाँ की अनेक वीर गाथाएं कवि सम्समेलनों के मंच पर सूनी हैं | बहुत बहुत सुन्दर सार्थक लेख |

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  3. राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की मांग समय-समय पर उठाई जाती रही है पर न जाने कौन सी अड़चनें हैं जिनके कारण यह भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होने से वंचित रही है । विचारणीय आलेख ।

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  4. आपकी बात से सहमत हूँ कि राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाना चाहिए। हाँ, आखिरी पंक्ति से असहमति है कि राजस्थानी साहित्यकारों को तभी सम्मान मिलेगा जब भाषा इस सूची में सम्मिलित होगी। सम्मान तो तब होगा जब राजस्थानी लोग इस भाषा में लिखी गई कृति को महत्व देंगे। अगर वो महत्व देंगे तो लेखक सम्मानित होगा। वहीं अगर अनुसूची में सम्मिलित होने के बाद भी लोग नजरंदाज करेंगे तो सम्मान नहीं ही मिलेगा। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि गढ़वाली के लिए भी यह लड़ाई लड़ी जा रही है लेकिन लोग गढ़वाली संगीत छोड़कर उसके साहित्य के प्रति उदासीन हैं। यह उदासीनता जब तक नहीं जाएगी तब तक भाषा की स्थिति में सुधार नहीं होगा। अनुसूची में नाम दाखिल होने से तो अकादमी वगैरह ही बनेगी और उसमें सरकारी धन की रेवड़ियाँ ही अपनों को अधिक बांटी जाएगी।

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  5. तर्कपूर्ण और विचारणीय आलेख, जितेंद्र भाई।

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  6. सही कहा आपने यदि कोई भाषा पूर्ण या आंशिक रूप से समाप्त हो जाती है तो हजारों वर्ष पूर्व की पहचान, साहित्य, सूचनाएं, अनुभव, सांस्कृतिक विरासत आदि के लिए भी विलुप्त हो जाने का संकट उत्पन्न हो जाता है। अतः भाषाओं का संरक्षण होना चाहिए।
    बहुत सटीक सारगर्भित एवं सार्थक लेख ।

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