आज राजीव गाँधी का ७८ वां जन्मदिवस है । वे इक्कीसवीं शताब्दी में अवतरित होने जा रहे उन्नत प्रौद्योगिकी सम्पन्न आधुनिक भारत के स्वप्नद्रष्टा थे । इस अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं उनके जीवन एवं व्यक्तित्व का आकलन अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
गाँधीवादी सांसद फ़िरोज़ तथा लौह-महिला इन्दिरा के इस ज्येष्ठ
पुत्र ने माता और पिता दोनों ही के सद्गुण अपने व्यक्तित्व में पाए किन्तु राजनीति
में कभी रुचि नहीं ली और विमान-चालक बनकर ही प्रसन्न रहे । राजनीति का क्षेत्र
अपने अनुज संजय के लिए छोड़कर वे प्रेमिका से अर्द्धांगिनी बन चुकीं सोनिया तथा
दोनों के उत्कट और पवित्र प्रेम के प्रतीक दो नौनिहालों के साथ एक शांत और सुखी गृहस्थ
जीवन बिताते रहे । लेकिन जैसा कि कहते हैं - मेरे मन कछु और है,
विधना
के कछु और;
विधि
के विधान ने उनके जीवन को एक अप्रत्याशित मोड़ दे दिया जब संजय की अकाल-मृत्यु हो
गई एवं तदोपरांत राष्ट्रीय राजनीति में एकाकी अनुभव कर रहीं अपनी माता का संबल
बनने के लिए उन्हें अनिच्छा से राजनीति में प्रवेश करना पड़ा । अपने भ्राता संजय के
संसदीय क्षेत्र अमेठी को ही उन्होंने भी अपनी राजनीतिक कर्मभूमि चुना पर तीन वर्ष
से अधिक समय तक वे सुर्खियों से दूर ही रहते हुए भारतीय राजनीति की बारीकियाँ
समझते रहे । लेकिन ३१ अक्टूबर, १९८४ को
उनके
राजनीतिक जीवन का निर्णायक क्षण आ पहुँचा, फ़ैसले
की घड़ी आ गई । उनकी माता और भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या
ने उनकी नियति को सुनिश्चित कर दिया । तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की
आपत्तियों एवं चालों को अनदेखा करते हुए उनके परिवार के प्रति निष्ठावान ज्ञानी
ज़ैल सिंह ने भारत के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में अपने आपातकालीन संवैधानिक अधिकार
का उपयोग करते हुए उन्हें उसी दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी । इस तरह चालीस
वर्ष की आयु में वे भारत के ही नहीं वरन विश्व के सर्वाधिक युवा शासन-प्रमुख बने ।
अनुभवहीन एवं राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व राजीव गाँधी ने
पूर्ववर्ती मंत्रिपरिषद् को ही यथावत् रखा एवं इन्दिरा गाँधी की मृत्यु से उत्पन्न
समुदाय-विशेष को लक्ष्य करती हुई हिंसा की लहर से निपटने का दायित्व तत्कालीन गृह
मंत्री पी॰वी॰ नरसिंह राव पर डाल दिया जिसके निर्वहन में वे सर्वथा असफल रहे
क्योंकि हिंसक दंगे सहस्रों निर्दोष जीवनों को लील गए । ऐसे में उनकी अपरिपक्व
प्रतिक्रिया -'जब
कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है' मैंने
दूरदर्शन पर उनके मुख से सुनी और आज सैंतीस वर्षों के अंतराल के उपरांत भी मैं पाता हूँ कि
अंजाने में मुखर हुई उनकी उस अपरिपक्व वाणी को अब भी उनके राजनीतिक विरोधी उनके
विरुद्ध उद्धृत करते हैं । उन्हें और उनके राजनीतिक दल को देश का एक प्रमुख समुदाय
कभी क्षमा नहीं कर सका किन्तु उनकी माता की लोकप्रियता से उद्भूत सहानुभूति लहर ने
उन्हें अभूतपूर्व चुनावी सफलता दिलाई । तीन चौथाई से अधिक बहुमत पाकर वे पुनः भारत
के प्रधानमंत्री बने एवं नव-संकल्प, नव-उत्साह,
नव-दृष्टिकोण
के साथ देश की बागडोर संभाली । इस अवसर पर हिन्दी के मूर्धन्य कवि डॉ॰ हरिराम
आचार्य जी ने उनका मार्गदर्शन करने वाली एक प्रेरक कविता लिखी जिसकी कतिपय पंक्तियाँ
थीं :
ये
हार इसलिए तुझको पिन्हाये हैं हमने
कि
तुझे ध्यान रहे रास्ते के शूलों का
नये
सिरे से तेरा इसलिए है अभिनंदन
तुझे ख़याल रहे अब तलक की भूलों का
राजीव गाँधी ने अपनी भूलों से कुछ सबक सीखे,
कुछ
नहीं सीखे लेकिन उनके हृदय में राष्ट्र को प्रगति-पथ पर ले जाने की जो उदात्त एवं
निश्छल भावना थी, वही उनकी पथ-प्रदर्शक बनी । दंगों के दौरान अपने
कर्तव्य-निर्वहन में विफल रहे पी॰वी॰ नरसिंह राव के स्थान पर शंकरराव चव्हाण को
गृह मंत्री बनाकर उन्होंने नरसिंह राव को मानव-संसाधन विभाग में भेज दिया जबकि अति-महत्वाकांक्षी
प्रणब मुखर्जी को सीधे मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाकर स्वच्छ छवि वाले
विश्वनाथ प्रताप सिंह को वित्त मंत्री बनाया । अब राजीव गाँधी जनता और नौकरशाही
दोनों के समक्ष एक स्वप्नद्रष्टा के रूप में आए एवं यह सिद्ध करने में लग गए कि
युवा नेता के व्यक्तित्व ही नहीं, विचारों एवं
कार्यशैली में भी यौवन का उत्साह और सुगंध थी ।
स्त्री-पुरुष समानता एवं साथ ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण
एवं स्थानीय प्रशासन में जनसहभागिता में अटूट विश्वास करने वाले राजीव गाँधी ने
पंचायती राज की अवधारणा को प्रस्तुत किया जिसके आधार पर कुछ वर्षों के उपरांत
(उनके
देहावसान के उपरांत) संविधान का ७३ वां संशोधन पारित हुआ एवं पंचायती राज की
अवधारणा को प्रसृत किए जाने के साथ-साथ उसमें आधी जनसंख्या के यथेष्ट प्रतिनिधित्व
के निमित्त महिला प्रतिनिधियों हेतु ३३ प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया ।
उनके अपने ही दल द्वारा पोषित दलबदल के नासूर को मिटाने हेतु उन्होंने दलबदल
विरोधी विधान पारित करवाकर उसे संविधान की १०वीं अनुसूची में सम्मिलित करवाया । वे
स्वच्छ राजनीति में विश्वास रखते थे एवं सत्ता के कारण अपने दल में आई विकृतियों
को दूर करना चाहते थे । इसलिए दिसंबर १९८५ में बंबई में आयोजित कांग्रेस के
शताब्दी अधिवेशन में उन्होंने दल एवं सरकार को सत्ता के दलालों से मुक्त करने का
आह्वान किया तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार को साहसिक रूप से स्वीकार करते हुए कहा कि
सरकार द्वारा जनकल्याण हेतु भेजे गए एक रुपये में से केवल पंद्रह पैसे ही वास्तविक
लाभार्थियों तक पहुँच पाते हैं (बाकी पिच्चासी पैसे भ्रष्टाचारियों की जेबों में
चले जाते हैं) । उन्होंने उद्योगपतियों द्वारा फैलाए जा रहे भ्रष्टाचार तथा निर्भय
होकर कर-वंचन करने वालों पर अंकुश लगाने के लिए अपने वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप
सिंह को किसी भी प्रकार की कार्रवाई करने की खुली छूट दी जिसका लाभ उठाकर विश्वनाथ
प्रताप सिंह ने न केवल व्यवसाय एवं उद्योग जगत की बड़ी मछलियों पर जाल फेंका वरन
अपनी निजी छवि को भी चमकाया और अंततः सार्वजनिक जीवन में शुचिता के प्रबल पक्षधर राजीव
गाँधी को ही भ्रष्टाचार के आरोप में लपेटकर जनता-जनार्दन की दृष्टि से पतित कर
दिया । यह राजीव गाँधी की सरलता तथा विश्वासी स्वभाव (जो कि उन्हें अपनी माता से
मिला था) का ही परिणाम था जो विश्वनाथ प्रताप सिंह इस भाँति उनकी पीठ में छुरा
भोंक सके ।
राजीव गाँधी जब प्रधानमंत्री बने तो पंजाब,
असम
एवं मिज़ोरम जैसे राज्य हिंसक आंदोलन की अग्नि में झुलस रहे थे । राजीव गाँधी ने इन
राज्यों में शांति-स्थापना को सत्ता पर प्राथमिकता देते हुए आंदोलनकारी समूहों के
साथ समझौते किए एवं उन्हें चुनाव लड़कर मुख्यधारा में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित
किया । मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की वार्ता करने की प्रतिभा को
पहचानते हुए उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाकर राजीव गाँधी ने भारतीय राजनीति के सभी
विशेषज्ञों को चौंका दिया । अर्जुन सिंह ने स्वयं को सौंपे गए अत्यंत महत्वपूर्ण
एवं संवेदनशील दायित्व का भलीभाँति निर्वहन करते हुए अकाली दल के वरिष्ठ नेता
सरदार हरचरण सिंह लोंगोवाल के साथ केंद्रीय सरकार का समझौता करवाया जिसमें पंजाब
में दीर्घकाल से चल रहे आंदोलन से जुड़े सभी महत्वपूर्ण विवादों का समाधान निकालने
का प्रयास किया गया । इसी ढंग से असम के आंदोलनकारी छात्र-नेताओं के साथ असम
समझौता एवं मिज़ोरम में हिंसक आंदोलन कर रहे मिज़ो नेशनल फ्रंट के साथ मिज़ो समझौता
किया गया । ये समझौते राजीव गाँधी द्वारा जनहित में उठाया गया ऐसा कदम था जिसमें
उनके दल के सत्ता गंवा देने का पूरा-पूरा जोखिम था । लेकिन राजीव गाँधी ने जानते-बूझते
राष्ट्र और इन राज्यों के जनसमुदाय के हित में यह राजनीतिक जोखिम लिया और सिद्ध किया
कि वे सत्तालोभी नहीं थे वरन जनहित को सर्वोपरि मानने वाले राष्ट्र के सच्चे सेवक
थे । समझौतों के उपरांत हुए विधानसभा चुनावों में तीनों ही राज्यों में कांग्रेस
सत्ताच्युत हो गई । पंजाब में अकाली दल ने सरकार बनाई तथा सुरजीत सिंह बरनाला
मुख्यमंत्री बने । असम में असम गण परिषद ने सरकार बनाई एवं बत्तीस वर्षीय प्रफुल्ल
कुमार महंत देश के सर्वाधिक युवा मुख्यमंत्री बने । मिज़ोरम में मिज़ो नेशनल फ्रंट
ने सरकार बनाई एवं उसके नेता लालदेंगा मुख्यमंत्री बने । लेकिन सत्ता गंवाकर भी राजीव
गाँधी को अशांत राज्यों में शांति-स्थापना करने एवं सामान्य स्थिति को लौटाने का
सार्थक प्रयास करने का आत्मिक संतोष प्राप्त हुआ । आज लोकप्रिय-से
लोकप्रिय-राजनेता से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह सत्ता गंवाने का जोखिम
लेकर जनहित में कोई कार्य करेगा । ऐसा साहस एवं नैतिक बल अब किसी भारतीय राजनेता
में नहीं है । लेकिन राजीव गाँधी ने ऐसा किया और इसीलिए वे असाधारण थे । उनके मन
में राजनीतिक दावपेंचों के स्थान पर मूलभूत ईमानदारी और निश्छलता थी जो कि भारतीय
राजनीति में एक दुर्लभ वस्तु ही है ।
लेकिन देश के साथ-साथ पड़ोसी देश की भी शांति-स्थापना में
सहायता करने के चक्कर में अपनी अनुभवहीनता और अति-सरलता के चलते राजीव गाँधी से
गंभीर राजनीतिक भूल हुई । वे श्रीलंका के प्रजातीय समीकरणों को बिसरा कर वहाँ के
तत्कालीन राष्ट्रपति जे॰आर॰ जयवर्धने के कूटनीतिक जाल में फंस गए तथा अपने सम्मान
के लिए संघर्षरत तमिल विद्रोहियों के संगठन लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑव तमिल ईलम) से
लड़ने के लिए भारतीय शांति सेना को वहाँ भेज बैठे । उनकी इस भूल के कारण न केवल
राष्ट्र को भारी धनराशि तथा अनेक सैनिकों की आहुति उस व्यर्थ के हवन में देनी पड़ी
वरन वे स्वयं भी लिट्टे की दृष्टि में खलनायक बन गए जिसके कारण लिट्टे द्वारा रचे गए
एक वृहत् षड्यंत्र का शिकार होकर उन्हें अपनी इस भूल का मूल्य २१ मई,
१९९१
को श्रीपेरुम्बुदूर में अपने प्राणों के रूप में चुकाना पड़ा ।
अपने मन में सत्तामोह से रहित तथा निस्वार्थ होते हुए भी
संभवतः अपने इर्द-गिर्द उपस्थित गुट की ग़लत सलाहों के असर में राजीव गाँधी ने और
भी कई ग़लतियां कीं जिसने आगे चलकर उनके दल को सत्ता की सियासत में भारी नुक़सान
पहुँचाया । ऐसा कहा जाता है कि माखनलाल फ़ोतेदार, कैप्टन
सतीश शर्मा,
गोपी
अरोड़ा,
अर्जुन
सिंह आदि उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता तथा अनुभवहीनता का लाभ उठाकर उन्हें अनुचित
परामर्श देते थे । बहरहाल चाहे जिस कारण से भी सही, राजीव
गाँधी ने कई ग़लत कदम उठाए । उन्होंने एक ओर तो रामजन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवा
दिया और दूसरी ओर चर्चित शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को उलटने
वाला ‘मुस्लिम
महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम’ पारित
करवा दिया । इससे न केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही
समुदाय कांग्रेस दल से दूर हो गए वरन आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे प्रगतिशील विचारों
वाले युवा मुस्लिम नेता का साथ भी उनसे छूट गया । दलित समुदाय को तो पहले ही
कांशीराम बरगला कर अपने साथ ले जा चुके थे जिसका राजीव गाँधी को समय रहते भान तक
नहीं हुआ था । परिणाम यह हुआ कि देश के दो सबसे बड़े एवं राष्ट्रीय राजनीति के
दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में उनका दल अपनी राजनीतिक भूमि खो बैठा
।
राजीव गाँधी ने एक ओर तो मुफ़्ती मोहम्मद सईद जैसे ज़मीन से
जुड़े काश्मीरी नेता को अपने मंत्रिमंडल में लेकर काश्मीर से दूर कर दिया,
दूसरी
ओर फ़ारूक अब्दुल्ला जैसे मौकापरस्त और ग़ैर-जिम्मेदार नेता के नेतृत्व में कांग्रेस
को काश्मीर की सत्ता में साझीदार बना दिया । इससे मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने रुष्ट
होकर पहले मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दिया और अंततः कांग्रेस पार्टी ही छोड़ दी जिससे
कांग्रेस के अपने बलबूते पर जम्मू-काश्मीर की सत्ता में आने की संभावनाएं लगभग
समाप्त हो गईं । दूसरी ओर फ़ारूक अब्दुल्ला की नाकामियों का ठीकरा कांग्रेस के सर
पर भी फूटा ।
राजीव गाँधी ने देश के संवैधानिक प्रमुख ज्ञानी ज़ैल सिंह के
साथ मधुर संबंध बनाकर नहीं रखे और कमलकान्त तिवारी जैसे विवेकहीन मंत्री को उनके
विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करने की खुली छूट दे दी जबकि उनके प्रधानमंत्री बनने का मुख्य
श्रेय ज्ञानी जी को ही जाता था । आख़िर ज्ञानी जी ने अपनी ताक़त दिखाते हुए सेवानिवृत्त
होने से केवल एक दिन पहले राष्ट्राध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने की धमकी देकर राजीव
गाँधी को कमलकांत तिवारी को मंत्रिपरिषद से बाहर करने पर मजबूर कर दिया । इससे
राजीव गाँधी की सार्वजनिक छवि पर विपरीत प्रभाव ही पड़ा ।
लेकिन भूलें अपनी जगह हैं तथा योगदान अपनी जगह ।
सर्वगुणसंपन्न तो कोई भी नहीं होता । राजीव गाँधी भी मानव ही थे और मानव से भूलें
होती ही हैं । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि राष्ट्र के उन्नयन में उनके योगदान को
अनदेखा कर दिया जाए । उनका सबसे बड़ा योगदान राष्ट्र के विकास में आधुनिक
प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के रूप में रहा । वे सैम पित्रोदा के रूप में एक विशेषज्ञ
को आगे लेकर आए और देश में दूरसंचार तथा सूचना प्रौद्योगिकी क्रान्ति का सूत्रपात किया
। यह उनका स्वप्न था कि इक्कीसवीं शताब्दी का भारत कंप्यूटर से काम करने वाले,
दूरसंचार
के अत्याधुनिक साधनों से युक्त तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व
का मार्गदर्शन करने वाले नागरिकों का भारत हो । उनके इस स्वप्न का उनके राजनीतिक
विरोधी उपहास करते थे लेकिन आज हम देख सकते हैं कि उस स्वप्नद्रष्टा का स्वप्न
साकार हो चुका है । हर हाथ में मोबाइल है, कंप्यूटर
पर काम करना रोज़मर्रा की बात हो चुकी है, इंटरनेट के माध्यम
से हम सारे संसार से जुड़ चुके हैं एवं सभी महत्वपूर्ण घटनाओं की अद्यतन जानकारी अविलंब
हम तक पहुँचती हैं ।
अपनी स्वच्छ छवि तथा राजनीतिक ईमानदारी के चलते १९८५ में
राजीव गाँधी को 'मिस्टर क्लीन' के नाम से पुकारा
जाने लगा था । लेकिन इस 'मिस्टर क्लीन'
पर
बोफ़ोर्स तोप सौदे में दी गई कथित ६४ करोड़ रुपयों की दलाली की कालिख पोतने का काम
उन्हीं विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किया जिन्हें राजीव गाँधी ने बड़े विश्वास एवं आशाओं
के साथ वित्त एवं रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे थे । आज जब हजारों करोड़ के
घोटाले सामने आ चुके हैं और उनके आरोपी न्यायालय से दंड पा चुकने के उपरांत भी
सीना तानकर चलते हैं तो ६४ करोड़ रुपये की मामूली राशि के लिए राजीव गाँधी के नाम
को निराधार कलंकित किया जाना उनके प्रति घोर अन्याय ही है । विश्वनाथ प्रताप सिंह
तो उन पर यह झूठा आरोप लगाकर एवं उन्हें बदनाम करके प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने
में सफल रहे (कुर्सी को पाने के लिए राजीव गाँधी की पीठ में छुरा भोंकने वाले
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कुर्सी मिल जाने के उपरांत अपने पर अंधा विश्वास करने
वाले देश के करोड़ों युवाओं के साथ भी विश्वासघात ही किया) लेकिन अपने देहावसान के
तीन दशक बाद भी राजीव गाँधी के माथे पर बिना किसी प्रमाण के यह झूठा कलंक आज तक लगाया
जाता है । यह बात भी ग़ौरतलब है कि जिन बोफ़ोर्स तोपों की ख़रीद को मुद्दा बनाकर यह
सारा नाटक किया गया, उन्हीं बोफ़ोर्स तोपों ने १९९९ में कारगिल के युद्ध में
गरज-गरज कर दुश्मनों को मुँहतोड़ जवाब दिया ।
राजीव गाँधी के आकस्मिक निधन से उनके राजनीतिक दल को ही नहीं,
भारतीय
राजनीति तथा राष्ट्र को भी अपूरणीय क्षति पहुँची । उत्तर प्रदेश और बिहार में
कांग्रेस को अपना खोया हुआ जनाधार पाने में कभी सफलता नहीं मिली क्योंकि उसके
पुनरुत्थान के लिए कोई मार्गदर्शक एवं प्रेरक नेता ही नहीं रहा । इन दोनों ही
राज्यों की राजनीति सम्पूर्ण जनता के स्थान पर जाति विशेष एवं वर्ग विशेष पर
केन्द्रित होकर रह गई क्योंकि विभाजक दृष्टिकोण वाले नेताओं की बन आई । दलित
राजनीति का झण्डा कांशीराम-मायावती तथा रामविलास पासवान ने उठा लिया तो मण्डल आयोग
के प्रतिवेदन पर आधारित पिछड़े वर्गों की राजनीति पर यादवी कब्ज़ा हो गया । जात-पांत
तथा वर्ग-भेद के टुकड़ों में बंट चुकी इन दो वृहत् राज्यों की राजनीति से राष्ट्रीय
दृष्टिकोण तथा समष्टि के हित-साधन की भावना तिरोहित हो गई । यह हानि केवल दल-विशेष
की न होकर,
सम्पूर्ण
समाज एवं राष्ट्र की रही ।
आज जब हम स्मार्ट फ़ोन और इंटरनेट के माध्यम से संसार से
प्रतिपल जुड़े रहते हैं, ज्ञानार्जन करते हैं
तथा व्यवसाय के माध्यम से धनार्जन भी करते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि
हमारी इस प्रगति का स्वप्न साढ़े तीन दशक पूर्व हमारे युवा प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने
देखा था जो देश को कर्म और विचार दोनों ही से आधुनिक बनाना चाहते थे एवं बिना किसी
भेदभाव के सभी वर्गों व समुदायों के भारतीय नागरिकों के जीवन में गुणात्मक सुधार
लाना चाहते थे । उस कर्मशील स्वप्नद्रष्टा के योगदान को विस्मृत करना कृतघ्नता ही
होगी । और हम भारतीयों के संस्कार तथा हमारे शास्त्र हमें कृतज्ञता ही सिखाते हैं,
कृतघ्नता
नहीं ।
आज सद्भावना दिवस पर सर्वत्र सद्भावना के प्रसार में विश्वास
रखने वाले उस विशाल हृदयी स्वप्नदृष्टा को मेरा नमन ।
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