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बुधवार, 30 जून 2021

वो शाम जो भुलाए न भूले

डॉ. वर्षा सिंह के असामयिक निधन के उपरांत मेरा मन ब्लॉग जगत से उचाट हो गया है। न अब कुछ नवीन लिखकर यहाँ डालने का मन करता है, न ही साथी ब्लॉगरों के पृष्ठों पर जाने का उत्साह अनुभव होता है। किन्तु हाल ही में एक संस्मरण को पढ़कर अपना भी एक संस्मरण साझा करने की प्रेरणा मिली तो लिख रहा हूँ। यह घटना है उस शाम की जो आज से ठीक बीस साल पहले मेरी ज़िन्दगी में वाक़या हुई थी यानी तीस जून दो हज़ार एक को।

मैं राजस्थानी हूँ। जब मैंने भारतीय नाभिकीय ऊर्जा निगम में नौकरी स्वीकार की तो मेरी प्रथम नियुक्ति १९९९ में तारापुर परमाणु बिजलीघर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ से अपने गृह राज्य में स्थानांतरण के मेरे प्रयास जनवरी २००१ में जाकर फलीभूत हुए तथा मैं राजस्थान में कोटा नगर के निकट रावतभाटा नामक स्थान पर स्थित राजस्थान परमाणु बिजलीघर में आ पहुँचा। उस छोटे-से कस्बे से बिजलीघर के कर्मचारियों को कोटा ले जाने तथा वापस लाने के लिए दिन में तीन बार बिजलीघर की बस सेवा हुआ करती थी (अब भी होती होगी)। उस बस को 'कोटा मिनी बस' कहा जाता था जिसमें अपनी सीट पहले से आरक्षित करवानी पड़ती थी। उस समय मेरे माता-पिता मेरे मूल स्थान सांभर झील में रहा करते थे जबकि राजकीय सेवा में स्थित मेरी धर्मपत्नी एवं मेरी नन्ही पुत्री राजस्थान के बाड़मेर ज़िले में स्थित बायतु नामक गाँव में रहा करते थे जहाँ मेरी पत्नी की नियुक्ति एक अध्यापिका के रूप में वहाँ के राजकीय विद्यालय में थी। 

विद्यालयों में ग्रीष्मकालीन अवकाश के कारण मेरी पत्नी और पुत्री मेरे पास रावतभाटा आए हुए थे तथा एक जुलाई को विद्यालयों के पुनः खुलने पर मेरी पत्नी को ज्वॉइन करने के लिए लौटना था। मुझे मिनी बस में पत्नी के लिए सीट समय से बुक करवा लेनी चाहिए थी लेकिन मेरी लापरवाही का परिणाम यह निकला कि सारी सीटें बुक हो गईं और मैं सीट आवंटित नहीं करवा सका (तीस जून को शनिवार था तथा बहुत-से लोगों को कोटा जाना था, इसलिए सीटें जल्दी ही भर गई थीं)। मेरी पत्नी और पुत्री को कोटा से जोधपुर के लिए रात को नौ बजे संबंधित ट्रैवल एजेंसी के स्थान से चलने वाली बस पकड़नी थी जिसमें उनके लिए स्लीपर बुक था। लेकिन अब शाम को लगभग सवा पाँच बजे रावतभाटा में बिजलीघर की कॉलोनी से मिलने वाली मिनी बस में तो सीट उपलब्ध हुई नहीं थी। अतः राजस्थान रोडवेज की बस से कोटा तक की यात्रा करनी थी। 

वह बस लेने के लिए हमें कुछ ऊंचाई पर बसे हुए उस कस्बे में नीचे की ओर स्थित एक बस स्टैंड (जिसे फ़ेज़ टू कहा जाता था) पर जाना चाहिए था लेकिन न जाने किसके भ्रमित करने के कारण मैं पत्नी और पुत्री के साथ ठीक विपरीत दिशा में चारभुजा नामक स्थान पर नये बने बस स्टैंड पर पहुँच गया और वहाँ बहुत देर तक बस की प्रतीक्षा में समय नष्ट किया। परिणाम यह निकला कि वहाँ तो बस आई नहीं और जहाँ से मिलनी थी, वहाँ से भी छूट गई। रावतभाटा से कोटा जाने का एक विकल्प निजी जीपें भी हैं लेकिन वे तभी चलती हैं जब वे सवारियों से भर जाएं। उस दिन सवारियां न होने तथा मौसम भी बरसात का होने के कारण कोटा जाने के लिए कोई भी जीप उपस्थित नहीं थी। अब हमारी स्थिति बड़ी विकट हो गई। जाना ज़रूरी था। शैक्षणिक सत्र के प्रथम दिवस पर एक शिक्षिका के रूप में मेरी पत्नी की विद्यालय में उपस्थिति अपरिहार्य थी। अब हालत यह हो गई कि करें तो क्या करें। 

मेरी पत्नी और पुत्री मेरे साथ स्कूटर पर सवार थे। हरे रंग का बजाज सुपर स्कूटर मुझे विवाह में ससुराल वालों ने दिया था। वह स्कूटर मुझे अत्यन्त प्रिय था एवं विगत कुछ महीनों में मैंने रावतभाटा से कोटा तक की लगभग पचास किलोमीटर की दूरी कई बार उसी से तय की थी जिसमें मुझे ऊंचे-नीचे रास्तों, मोड़ों, चढ़ाइयों, घाटियों तथा जंगल (दरा अभयारण्य उसी क्षेत्र में है) से गुज़रने के बावजूद बहुत मज़ा आया था क्योंकि रास्ता ख़तरनाक तो था लेकिन उसमें कुदरत की ख़ूबसूरती भी थी। पर यह सफ़र मैंने सदा दिन के उजाले में ही तय किया था और वो भी अकेले। अब मैंने पत्नी के समक्ष एक जोखिम भरा प्रस्ताव रखा कि मैं उन्हें स्कूटर से ही कोटा में उनकी बस तक पहुँचा देता हूँ। मजबूरी में पत्नी ने मान लिया और मैंने पत्नी तथा पुत्री को उनके सामान के भारी बैग के साथ स्कूटर पर बैठाकर सफ़र शुरु कर दिया। उस समय शाम के लगभग साढ़े छः बजे थे। 

अभी रावतभाटा की सीमा से निकले ही थी कि बरसात शुरु हो गई। पहले बूंदाबांदी, फिर तेज़। ऊपर से अंधेरा रास्ता जिसमें स्कूटर की हैडलाइट की रोशनी में ही आगे देखते हुए स्कूटर चलाना था। हैडलाइट पर मच्छर और पतंगे मंडराने लगे। आँखों को उनसे बचाने के लिए हमने अपने पास मौजूद धूप वाले चश्मे लगा लिए लेकिन मेरे लिए चश्मा लगाकर स्कूटर चलाना सुविधाजनक नहीं था, अतः उसे उतार दिया। बुरी तरह बरसात में भीगते हुए मैं जैसेतैसे (और डरतेडरते) स्कूटर चलाता रहा। जंगल और कई जगह ख़तरनाक ढंग से बल खाए हुए ऊंचेनीचे रास्तों पर वह स्कूटर भागता रहा जिसे मैंने विवाह से लेकर अब तक सदा अपने परिवार का एक अंग ही समझा है। बरसात की बूंदें मेरी आँखों में गिर रही थीं लेकिन रुकना नहीं था। फिर भी बीच-बीच में कभी नन्ही पुत्री को तो कभी सामान के बैग को ठीक से समायोजित करने हेतु कुछ पलों के लिए रुकना भी पड़ा। लेकिन कुछ पलों के लिए ही। जंगल से गुज़र रहे थे तो रात्रि के अंधकार में किसी जंगली जानवर के भी आ जाने का भय था। पुत्री बहुत छोटी थी और परेशान थी लेकिन वह एक समझदार बच्ची बनकर अपने माता-पिता के साथ बारिश में भीगते-भीगते वह अनोखा सफ़र तय करती रही।

एक घंटे से अधिक की ड्राइव के उपरांत मार्ग में बोराबास नाम का एक छोटा-सा गाँव आया जहाँ मुख्य सड़क पर ही कुछ चाय की दुकानें और ढाबे बने हुए थे। हम वहाँ कुछ मिनटों के लिए रुके, चाय पी और इस ब्रेक के बाद सफ़र फिर से शुरु कर दिया। बारिश तो रुकी नहीं थी। स्कूटर के साथ यह तीन प्राणियों का परिवार भीगता रहा और अपने गंतव्य की ओर बढ़ता रहा। आख़िर कोटा नगर की सीमा में प्रवेश किया तो रोशनी में आए। ट्रैवल एजेंसी का स्थान अभी भी कुछ किलोमीटर दूर था (रोडवेज के नयापुरा बस स्टैंड के निकट)। जब स्कूटर वहाँ जाकर रुका तो नौ बजने ही वाले थे और जोधपुर की बस जाने के लिए तैयार ही खड़ी थी। पत्नी और पुत्री बस में सवार हुए और मैंने उन्हें विदा दी। वे मेरे लिए चिंतित थे क्योंकि उस ख़राब मौसम में रात के समय मेरा स्कूटर पर लौट पाना लगभग असंभव ही था। 

मैंने एक निकटस्थ होटल में कमरा लिया। स्कूटर को उसी होटल की पार्किंग में खड़ा किया। बदलने के लिए कपड़े नहीं थे। अत: होटल वालों का दिया हुआ तौलिया ही लपेटकर सो गया। सुबह देखा तो बरसात कभी की रुक चुकी थी और धूप निकली हुई थी। रविवार का दिन था, इसलिए नौकरी पर तो जाना नहीं था। सात बजे के लगभग होटल छोड़ा और स्कूटर को पुनः स्टार्ट करके वापसी की यात्रा आरंभ कर दी। अब न कोई जल्दी थी, न कोई डर। मौसम सुहाना था। अतः बेधड़क स्कूटर चलाते हुए लगभग नौ बजे रावतभाटा में अपने क्वार्टर पर पहुँच गया। रास्ते में केवल एक बार चाय पीने के लिए एक जगह रुका। पत्नी एवं पुत्री के सकुशल जोधपुर पहुँच जाने का समाचार फ़ोन से प्राप्त हुआ। स्कूटर की वफ़ादारी ने मेरा दिल जीत लिया था क्योंकि भीषण बारिश में लगातार भीगने के बावजूद न तो वह पिछले दिन कहीं रुका था, न ही उसने वापसी यात्रा में मुझे कोई कष्ट दिया। उस दिन यानी कि एक जुलाई को जब अपने घर पर मैं आराम से लेटा था, तब मैंने बीती शाम के बारे में सोचा तो यही पाया कि वह शाम कभी भुलाई नहीं जा सकेगी। आज बीस साल बाद भी यही लगता है जैसे कल-की-सी-बात हो।