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सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

मेरी लेखन-यात्रा का नया पड़ाव : किंडल तथा यूट्यूब पर पदार्पण

प्रत्येक शिक्षक दिवस पर मुझे अपने अंग्रेज़ी शिक्षक स्वर्गीय श्री सुरेन्द्र कुमार मिश्र की याद आ जाती है जो यदि मुझे न मिले होते तो मैं भी उन असंख्य राजस्थानी छात्रों की भांति अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान में दुर्बल ही रह जाता जो राजकीय विद्यालयों में हिंदी माध्यम से शिक्षार्जन करते थे (एवं अब भी करते होंगे) । वे अपना उपनाम मिश्र ही लिखते थे लेकिन मेरे गृहनगर (सांभर झील, ज़िला जयपुर) में सब उन्हें आदरपूर्वक मिश्राजी कहते थे । मिश्राजी ने मुझे नौवीं तथा दसवीं कक्षाओं में अंग्रेज़ी विषय पढ़ाया । यह वही समय था जब न केवल मेरी अंग्रेज़ी की लिखावट में सुंदरता आई वरन मुझे अपने मन से कुछ-न-कुछ लिखना भी अच्छा लगने लगा । यह मेरा परम सौभाग्य है कि मैं मिश्राजी का शिष्य बना जिसका परिणाम यह निकला कि न केवल मेरा अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान सुदृढ़ हुआ वरन मैंने वर्ष १९८५ में राजस्थान बोर्ड की हायर सैकेंडरी परीक्षा में सम्पूर्ण बोर्ड में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करके स्वर्ण पदक जीता तथा अंग्रेज़ी भाषा के प्रश्न-पत्र में पचास में से उनचास अंक प्राप्त करके सभी को चौंका भी दिया । मिश्राजी अब इस संसार में नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान सदा मेरे जीवन को आलोकित करता रहेगा एवं मैं जीवनपर्यंत उनका ऋणी रहूंगा । अंग्रेज़ी तथा हिंदी, दोनों ही भाषाओं की औपचारिक शिक्षा तो मेरे लिए केवल बारहवीं कक्षा तक ही चली । यह मेरे गुरू मिश्राजी के कारण ही संभव हो सका कि मैंने स्नातक तक की शिक्षा अपनी मातृभाषा हिंदी में प्राप्त की किंतु चार्टर्ड एकाउंटेंसी की परीक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से देकर उत्तीर्ण की एवं कुछ वर्षों के उपरांत जब मैं भारतीय सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण करके साक्षात्कार के स्तर तक पहुँचा तो भी मेरा माध्यम अंग्रेज़ी ही था लेकिन अंग्रेज़ी भाषा में पठन-पाठन अथवा कामकाज कभी मेरे लिए समस्या नहीं बना । 

मेरे पिता राजस्थान के थे एवं माता दिल्ली की । मेरा मूल स्वभाव मेरे पिता पर गया है जो कि अधिक शिक्षित नहीं थे (लेकिन एक राजकीय विद्यालय में अध्यापक ही थे) । उन्हें साहित्य, सिनेमा एवं ललित कलाओं में भी कोई रुचि नहीं थी । वे तो हिंदी भी बहुत कम बोलते थे एवं प्रायः राजस्थानी में ही बातचीत किया करते थे । लेकिन वे एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे जो किसी की भी दुख-तक़लीफ़ से पिघल जाते थे और अपने सीमित संसाधनों से उसकी भरसक सहायता करने का प्रयास करते थे जबकि हमारे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति कोई विशेष संतोषजनक नहीं थी । वे मज़हब और जाति-भेद की दीवारों से ऊपर उठकर सिर्फ़ इंसानियत में यकीन रखते थे । अपने हँसमुख स्वभाव के कारण वे दूसरों के साथ हँसते-बोलते हुए ज़िन्दगी के सारे रंजोग़म भुला देते थे । मैं भीतर से उन्हीं के जैसा संवेदनशील हूँ एवं मानवता को ही अपना धर्म मानता हूँ, अंतर इतना ही है कि मैं गंभीर प्रकृति का हूँ ।

मेरे गंभीर स्वभाव का कारण है मेरी साहित्यिक अभिरुचि तथा संगीत एवं सिनेमा से लगाव जिसका कारण है मेरे बाह्य व्यक्तित्व पर मेरी माता का प्रभाव । जैसे मिश्राजी के सौजन्य से मेरी रुचि अंग्रेज़ी भाषा में जागृत हुई, वैसे ही अपनी माता के सौजन्य से हिन्दी भाषा में । मेरी माता ने हिन्दी भाषा में 'प्रभाकर' की उपाधि प्राप्त की थी, उन्हें हिन्दी साहित्य के पठन में बहुत रुचि थी एवं उन्हें संगीत का भी सम्पूर्ण ज्ञान था । हिंदी भाषा तथा साहित्य में (तथा कुछ-कुछ उर्दू भाषा की ओर भी) मेरा रूझान उन्हीं के कारण बना । मुझे उर्दू लिपि नहीं आती लेकिन उर्दू शायरी, साहित्य, ग़ज़लें, नज़्में और नग़मे मुझे बहुत भाते हैं । उन्हें या तो मैं सुनता हूँ या देवनागरी लिपि में उपलब्ध हों तो पढ़ता हूँ । मेरे लिए दुख की बात यही है कि मैं स्वयं राजस्थानी होकर भी राजस्थानी भाषा प्रवाह में नहीं बोल पाता (समझ सकता हूँ, पढ़ सकता हूँ) । बहरहाल मुझे अंग्रेज़ी और हिन्दी दोनों ही ज़ुबानों से प्यार है और मैं इन दोनों में ही लिखना पसंद करता हूँ । मैं शुद्धतावादी (purist) हूँ तथा लिखने में हिंदी तथा अंग्रेज़ी की मिलावट मुझे उचित नहीं लगती । 

मैं संगीत तो नहीं सीख सका यद्यपि राजस्थान के रावतभाटा नामक स्थान पर रहते हुए मुझे पंडित नारदानन्द शास्त्री नामक वयोवृद्ध कलावंत से संगीत सीखने का अवसर अवश्य मिला (रावतभाटा वही स्थान है जहाँ आज की सुप्रसिद्ध पार्श्व-गायिका श्रेया घोषाल पली-बढ़ी थीं) । एक बार नारदानंद जी ने मुझे कहा कि संभवतः तुम्हारे भीतर संगीत सीखने की क्षमता नहीं है किन्तु तुम्हारा भाषा-ज्ञान बहुत अच्छा है, अतः तुम्हें गीत लिखने का प्रयास करना चाहिए । लेकिन मैंने पाया कि मैं गद्य में ही लिख सकता था, पद्य में नहीं । कभी कोशिश की थी शायरी करने की लेकिन महसूस हुआ कि रदीफ़ और काफ़िया तो ठीक बैठ पा रहे थे मगर उस शायरी में रूह नहीं थी । ऐसे में शायरी करना छोड़ देना ही मुनासिब लगा ।

आज मेरा हाल यह है कि मैं ख़ुद तो न कवि हूँ न शायर मगर अच्छी कविता, अच्छे गीत एवं अच्छी शायरी की समझ रखता हूँ; मैं चित्र नहीं बना सकता, मूर्ति नहीं गढ़ सकता लेकिन सुंदर चित्र एवं सुंदर शिल्प की सराहना कर सकता हूँ; मुझे न गायन आता है, न वादन, न नृत्य लेकिन मैं संगीत की गुणवत्ता को पहचानता हूँ एवं उत्कृष्ट गायन, वादन एवं नृत्य का आनंद उठा सकता हूँ; मैं कोई क़ाबिलेज़िक्र अदीब नहीं हूँ मगर अदब की दुनिया के आदाब समझता हूँ, अच्छे-बुरे अदब में फ़र्क़ कर सकता हूँ । 

सन २००३ में जब मैं रावतभाटा में भारतीय नाभिकीय ऊर्जा निगम की नौकरी कर रहा था तो वहाँ के अंतर-इकाई सांस्कृतिक कार्यक्रम हेतु मेरे मित्रों को एक हिन्दी नाटक की आवश्यकता पड़ी । अपने मित्रों की आवश्यकता की पूर्ति हेतु मैंने लेखनी उठाई एवं साम्प्रदायिक सौहार्द्र पर आधारित एकांकी – ‘दोस्ती’ लिखा । बाद में यह एकांकी संगठन की पत्रिका ‘अणुशक्ति’ में भी प्रकाशित हुआ तथा विभिन्न नाट्य-मंडलों ने इसका कई बार मंचन भी किया । इस समय यह यूट्यूब पर भी उपलब्ध है जिसका लिंक इस प्रकार है :

https://www.youtube.com/watch?v=x8oOe3CEOT4

कुछ साल बाद मैं नौकरी बदलकर दिल्ली चला गया । नवंबर २००८ में जब महाराष्ट्र विशेषकर मुम्बई उत्तर-भारतीय प्रवासियों के प्रति पथभ्रमित स्थानीय निवासियों की घृणा एवं हिंसा की अग्नि में झुलस रहा था तो मेरी लेखनी पुनः सक्रिय हुई एवं मैंने इसी विषय पर अपना दूसरा एकांकी – ‘भूमि-पुत्र’ लिखा । अपने इन दोनों एकांकियों को लेकर मैं दिल्ली के मंडी हाउस स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में गया ताकि उनका मंचन हेतु उपयोग किया जा सके किन्तु मैं किसी उपयुक्त व्यक्ति से नहीं मिल सका ।

पर लिखने का चस्का तो पड़ गया था । अब किस विषय पर लिखें ?  कहते हैं शक्करख़ोरे को शक्कर और मूज़ी को टक्कर मिल ही जाती है । जनवरी २००९ में मंगलौर के एक पब में श्रीराम सेने नामक संगठन के लोगों ने मदिरापान कर रही कतिपय महिलाओं पर आक्रमण किया, इसके अतिरिक्त वैलेंटाइन डे निकट आ रहा था एवं उसके विरोध तथा युवा युगलों को सताने को ही अपना धर्म मान बैठे तथाकथित संस्कृति-रक्षक सक्रिय हो उठे थे । इन्हीं तथ्यों में मुझे अपने नए एकांकी की विषय-वस्तु मिल गई । मगर उसे तहरीरी  जामा पहनाने के लिए मुझे कई महीनों तक ठीक से कुछ नहीं सूझा । आख़िर मई २००९ के अंतिम सप्ताह में जब मैं सपरिवार शिमला (तथा कुल्लू-मनाली-मणिकरण-सोलन आदि भी) घूमने के लिए गया तो उस यात्रा के पहले ही दिन संध्या के समय जब मैं शिमला के रिज पर अकेले ही टहल रहा था और इसी बाबत सोच रहा था तो अपने उस बहुप्रतीक्षित एकांकी का सम्पूर्ण ताना-बाना मेरे मनोमस्तिष्क में स्वतः ही बनता चला गया । दिल्ली वापस लौटते ही मैंने क़लम संभाली और मेरा वह एकांकी वजूद में आया जिसका नाम मैंने रखा – ‘प्रेम और संस्कृति’ ।

शीघ्र ही मैंने पुनः नौकरी बदली और इस बार हैदराबाद आ गया । नई नौकरी शुरु होने के कुछ ही दिनों बाद मैंने हिन्दी के एक अख़बार में एक लेख पढ़ा जिसमें महात्मा गांधी द्वारा सन १९०९ में रचित पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ की जन्मशती मनाए जाने का उल्लेख था । मैंने इसी तथ्य एवं गांधीवादी विचारों को आधार बनाकर एक एकांकी लिखना आरंभ कर दिया । लेकिन कुछ हिस्सा लिखने के बाद मेरी क़लम अटक गई क्योंकि मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए तथा कैसे क्लाइमेक्स पर पहुँचाकर ख़त्म किया जाए । मैंने उसे अधूरा ही छोड़ दिया और माउथशट डॉट कॉम नामक साइट पर हिन्दी फ़िल्मों तथा पुस्तकों की समीक्षाएं (अंग्रेज़ी में) लिखते हुए वक़्तगुज़ारी करने लगा हालांकि अपने उस काम को अधूरा छोड़ देना मुझे बहुत बुरा लग रहा था । उस साइट पर मेरा परिचय अनेक योग्य एवं विद्वान लोगों से हुआ  जिनमें से एक थीं बांग्ला एवं अंग्रेज़ी की जानी-मानी लेखिका, कवयित्री एवं समीक्षिका गीताश्री चटर्जी । उनसे मिलना तो आज तक न हुआ लेकिन एक बार जान-पहचान हो जाने के बाद कई बार फ़ोन तथा ई-मेल से सम्पर्क हुआ । उन्होंने ही मुझे प्रेरित किया कि चाहे जैसे भी हो, मैं अपने एकांकी को पूर्ण अवश्य करूं । अब मैंने नए जोशोख़रोश के साथ क़लम उठाई और इस बार अपने एकांकी को पूरा करके ही दम लिया । इस तरह जिस एकांकी की रचना का सूत्रपात २००९ में हुआ था, वह २०११ में जाकर पूर्णता को प्राप्त हुआ । मैंने उसका नामकरण किया – ‘चिराग़-ए-सहर’ । मेरे अंतिम तीनों एकांकी ‘भूमि-पुत्र’, ‘प्रेम और संस्कृति’ तथा ‘चिराग़-ए-सहर’ केवल कुछ गिने-चुने मित्रों द्वारा ही पढ़े गए हैं ।

जिस ज़माने में मैं विद्यालय का छात्र था, उस ज़माने में दूरदर्शन के सिवाय कोई चैनल नहीं हुआ करता था । और दूरदर्शन पर प्रति सप्ताह दिखाई जाती थी एक हिन्दी फ़िल्म । चूंकि मेरी माता को सिनेमा देखने का शौक़ था, यह शौक़ मुझे भी लग गया तथा सी०ए० करने के निमित्त मेरे (लगभग साढ़े तीन वर्षों के) कलकत्ता-प्रवास के दौरान भी यह जारी रहा । फ़िल्मों से संबंधित लेख तथा उनकी समीक्षाएं पढ़ना भी मुझे भाने लगा । लेकिन धीरे-धीरे मुझे लगने लगा कि कई अति-प्रतिष्ठित समीक्षकों तक की फ़िल्म समीक्षाएं वस्तुपरक एवं सम्पूर्ण न होकर पक्षपातपूर्ण एवं तथ्यहीन होती हैं और यह भी कि उनसे बेहतर फ़िल्म समीक्षाएं तो मैं लिख सकता हूँ । अतः अनेक वर्षों के उपरांत जब मैं माउथशट पर सक्रिय हुआ तो मैंने स्वयं फ़िल्म समीक्षाएं लिखना आरंभ किया । चूंकि इस साइट पर केवल अंग्रेज़ी में ही लिखा जा सकता है, अत: मैंने भी अंग्रेज़ी में ही लिखा । शीघ्र ही मुझे इस तथ्य ने प्रसन्न कर दिया कि मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षाएं पाठकों में लोकप्रिय होने लगीं तथा मेरे बहुत-से नियमित पाठक एवं प्रशंसक बन गए । अब मैंने पुस्तक-समीक्षाएं एवं ब्लॉग लिखना भी आरंभ कर दिया तथा वे भी वैसे ही लोकप्रिय हुए । अपनी इन फ़िल्म समीक्षाओं को मैंने आईएमडीबी डॉट कॉम पर भी डाल दिया । अब मेरे सभी अंग्रेज़ी लेख वर्डप्रेस डॉट कॉम पर भी उपलब्ध हैं ।  

अपनी मातृभाषा हिन्दी में लिखने के निमित्त मैं ब्लॉगर पर आया । उन्हीं दिनों मुझे हैदराबाद 'बी' रेडियो के 'प्रकाश किरण' नामक कार्यक्रम के लिए वार्ताएं देने का अवसर मिला । उसमें मेरी कुल चार वार्ताएं (मेरे ही स्वर में) प्रसारित हुईं जिन्हें मैंने ब्लॉगर पर अपने हिन्दी लेखों के रूप में डाल दिया । ये वार्ताएं अथवा लेख हैं - १. भावनाएं, २. संवेदना, ३. मर्यादा, ४. संत-सेवा । सन २०११ से इस क्रम को अनवरत रखते हुए मैं समय-समय पर हिन्दी लेख भी लिखकर ब्लॉगर पर डालता रहा । कुछ समय तक मैंने अपने हिन्दी लेख जागरण जंक्शन नामक साइट पर भी डाले । 

मेरी एक पुस्तक-समीक्षा पढ़कर गीताश्री चटर्जी ने मुझसे कहा कि मैं कोई उपन्यास क्यों नहीं लिखता । अब मैंने भी सोचा कि जब इतने उपन्यास पढ़ डाले हैं तो स्वयं लिखने का प्रयास क्यों न किया जाए ? अपने कुछ निजी अनुभवों को आधार बनाकर मैंने एक रहस्यकथा (मर्डर मिस्ट्री) का ताना-बाना बुनना आरंभ कर दिया । नौकरी के साथ-साथ इस लेखन को करता रहा और डेढ़ वर्ष के अथक परिश्रम के उपरांत ही उपन्यास को पूर्ण कर पाया क्योंकि लेखनी बार-बार अटक जाती थी । उपन्यास के नामकरण हेतु मैंने गीताजी द्वारा ही लिखी गई अगाथा क्रिस्टी के एक उपन्यास की समीक्षा के शीर्षक (Murder is a habit) को उधार लिया एवं अपने उपन्यास का नाम रखा - 'क़त्ल की आदत' ।  

अब लिख तो लिया पर छापे कौन ? काग़ज़ पर तो यह आज तक न छप सका । ई-पुस्तक के रूप में सर्वप्रथम यह पोथी डॉट कॉम नामक साइट पर छपा जहाँ यह अभी भी उपलब्ध है । कुछ समय तक यह न्यूज़हंट या डेलीहंट पर भी रहा तथा पाठकों की खट्टी-मीठी प्रतिक्रियाएं मुझे प्राप्त हुईं । कई समीक्षकों ने इसकी हिन्दी एवं अंग्रेज़ी में समीक्षाएं भी लिखीं जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ । हाल ही में मैंने इसे अमेज़न किंडल पर डाल दिया है । काग़ज़ पर यह न जाने कब प्रकाशित होगा लेकिन इसके ई-पुस्तक संस्करण निम्नांकित लिंकों पर उपलब्ध हैं : 

1. 

https://store.pothi.com/book/ebook-%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A5%E0%A5%81%E0%A4%B0-%E0%A5%98%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4/ 

2. 

https://www.amazon.in/-/hi/%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A5%E0%A5%81%E0%A4%B0-ebook/dp/B0899QTWF1

इस उपन्यास के लिए मैंने एक पृष्ठ (उपन्यास के नाम से ही) फ़ेसबुक पर भी बनाया हुआ है जिसका लिंक इस प्रकार है :

https://www.facebook.com/pages/category/Book/%E0%A5%98%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%A4-585891931517016/

मेरा पुत्र सौरव Beyblade Legends के नाम से एक लोकप्रिय  यूट्यूब चैनल चलाता है । उसने मेरे (हिंदी) सिनेमा संबंधी ज्ञान को देखते हुए मेरे लिए भी एक यूट्यूब चैनल आरंभ कर दिया है जिसका नाम है - 'Forgotten Bollywood Gems' जिसमें मैं भूली-बिसरी बॉलीवुड फ़िल्मों के विषय में बताता हूँ    मुझे तकनीकी ज्ञान न होने के कारण मैं उस पर केवल अपने स्वर में (हिन्दी भाषा में बोलते हुए) फ़िल्म के संबंध में जानकारी देता हूँ जबकि उसे अंतिम रूप देने हेतु आवश्यक संपूर्ण कार्य मेरा पुत्र ही करता है ।  

अपने परिवार से दूर रहने के कारण (मेरी नौकरी इस समय विशाखापट्टणम में है जबकि मेरा परिवार पुणे में रह रहा है) इस चैनल पर अधिक वीडियो नहीं डाले जा सके हैं । अब तक जितने भी वीडियो डाले गए हैं उनके यूट्यूब लिंक मैं यहाँ दे रहा हूँ :        

१. इंसाफ़ का मंदिर (१९६९)

https://www.youtube.com/watch?v=Yt5Atd8BmmM

२. ख़्वाब (१९८०)

https://www.youtube.com/watch?v=VfrHRH2EbHk

३. घुंघरू की आवाज़ (१९८१)

https://www.youtube.com/watch?v=DbXAYG0S4Zc

४. काला आदमी (१९६०)

https://www.youtube.com/watch?v=_biImWcDopY

५. प्रेम विवाह (१९७९)

https://www.youtube.com/watch?v=LQL_pna7NsU

६. बड़ा दिन (१९९८)

https://www.youtube.com/watch?v=ry4vmlVDWEQ

७. एक नज़र (१९७२)

https://youtu.be/JEz22TU8Dl8

८. शोला और शबनम (१९६१)

https://youtu.be/MuKr5JU8i-A

९. बेरहम (१९८०)

https://youtu.be/fZZK1CvuCwc

१०. तुम से अच्छा कौन है (२००२)

https://www.youtube.com/watch?v=w6531byM6Dc

११. जॉगर्स पार्क (२००३)

https://www.youtube.com/watch?v=v5gIjY_G2-s

१२. सोने की चिड़िया (१९५८)

https://youtu.be/cVhzPKWH2vI

१३. पूनम की रात (१९६५)

https://youtu.be/iupeOXw0qYs

१४. ये फ़ासले (२०११)

https://www.youtube.com/watch?v=q1Em0vvtYDs

१५. नरम गरम (१९८१) 

https://youtu.be/BZjTj83qHP0

१६. परवाना (१९७१) 

https://youtu.be/zwmDZnbhwts

१७. हमराही (१९६३) 

https://youtu.be/NjID4HPbqH8

१८. रिश्ता काग़ज़ का (१९८३) 

https://youtu.be/LkTPxgu5GL0

१९. ईमान (१९७४)

https://www.youtube.com/watch?v=_p_0ArNDgtk

इस प्रकार किंडल एवं यूट्यूब पर पदार्पण विगत वर्ष में मेरी लेखन-यात्रा का नया पड़ाव बना । यहाँ तक पहुँचने के लिए मैं अपने सभी प्रशंसकों एवं आलोचकों का हृदय से आभारी हूँ (एवं सदा रहूंगा) जिन्होंने मेरे सृजन को अपने ध्यानाकर्षण एवं अवलोकन के योग्य पाया । स्वर्गीय मिश्राजी की भांति ही मैं भी यह मानता हूँ कि व्यक्ति को आजीवन एक विद्यार्थी बने रहना चाहिए क्योंकि सीखना एक अनवरत प्रक्रिया है जिसके कभी न थमने में ही एक सृजनशील व्यक्ति के जीवन एवं सृजन की सार्थकता निहित है ।

22 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लेखन यात्रा प्रेरक है। ऐसे ही निरन्तर लिखते रहें।

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  2. बहुत ही प्रेरणादायी आलेख है जितेन्द्र जी, जीवन में अगर आपको एक शिक्षक मिश्रा जी तरह मिल जाय, तो आपके जीवन का कठिन से कठिन मार्ग सुगम हो जाता है, इसी प्रकार माँ की हर नन्ही से नन्ही बात जीवन के अंतिम छोर तक प्रेरणा देती है, आपको उपन्यास लेखन की हार्दिक शुभकामनायें..

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  3. इतने बड़े विचारक, चिंतक, लेखक,समीक्षक को पढ़ रही हूं..बहुत बड़ा सौभाग्य है..आपकी लेखनी अमर रहे..
    शुभ कामनाएं..

    सादर नमन..

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  4. आपके बारे में इतना विस्तार से जानकर बहुत अच्छा लगा सर!
    इस पोस्ट को बुकमार्क कर लिया है, सभी लिंक्स पर जाने का प्रयास रहेगा।

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  5. निरंतर जिज्ञासु रहना एक व्यक्ति को उस मज़िल तक ले जाता है जिस की उम्मीद भी उसने नहीं की होती।लेखन से लेकर किंडल तथा यूट्यूब तक की आपकी यात्रा बहुत रोचक और प्रेरक है। मिश्रा जी जैसे समर्पित शिक्षक, सरल पिताजी और प्रबुद्ध, विचारशील माँ के सनेहिल सानिध्य में आपने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का भरपूर दोहन किया है। आपकी सूक्ष्म समीक्षा दृष्टि कमाल है। आपके एकांकी, वार्ताएं और समीक्षाएं पाठकों को बाँधने में सक्षम हैं। आपके चैनल पर कई समीक्षाएं सुन चुकी हूँ। सभी पाठकों से विनम्र आग्रह है कि संवेदनाओं से भरी फिल्मों की ये समीक्षाएं जरूर सुनें, उन्हें बहुत आनंद आयेगा और बड़ा दिन जैसी भूली बिसरी पर मार्मिक फिल्म के बारे में जानने का अवसर भी मिलेगा। आपको बहुत -बहुत शुभकामनाएं। ये लेखन यात्रा यूँ ही चलती रहे 🙏🙏

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  6. आपको ढेरों शुभकामनाएँ जितेन्द्र जी। आपका जीवन तो खुद एक बहुत बड़ा कथा साहित्य है! आपको हार्दिक बधाई। आपके उपन्यास के लिये आपको शुभकामनाएँ।

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  7. सबसे पहले मै आपको बधाई देतीं हूँ, राजस्थान बोर्ड की हायर सैकेंडरी परीक्षा में सर्वोच्च स्थान और स्वर्ण पदक के लिए. आपकी यात्रा बड़ी रोचक है. आपके परिवार के बारे में जान कर ख़ुशी हुई.
    आपके चैनल और किंडल के लिए शुभकामनाएँ.

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  8. आदरणीय जितेंद्र जी,आपका ये लेख तो मैंने बहुत पहले ही पढ़ लिया था मगर प्रतिक्रिया देने में बिलंब हुआ इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। आपके लेखन का सफर बड़ा ही धैर्यपूर्ण रहा है जिसके लिए आपको सत-सत नमन। जीवन में गुरु का बड़ा ही महत्व है जो आपके भविष्य को एक सही दिशा प्रदान करते हैं। साथ ही साथ माँ-पापा का व्यक्तित्व भी आपके व्यक्तित्व को निखारने में समर्थ होता है जो आपको मिला। आप बेहद सौभाग्शाली हैं। मैं कामना करती हूँ की आपकी ये लेखन-यात्रा काभी ना रुके ना थके,सादर नमन आपको

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  9. आपने अपने शिक्षक ,एवम मातापिता के गुणों को आत्मसात किया है,ये आपके आलेखों की भाषाशैली में दृष्टिगोचर होता है,मानवीय गुणों से लबरेज़ व्यक्ति ही संवेदनशील होता है और अगर उसकी भाषा पर अच्छी पकड़ हो तो लेखनी धन्य हो जाती है।आप पर माँ सरस्वती की विशेष अनुकम्पा है। यूं ही लिखते रहें और एक स्तरीय साहित्य का सृजन होता रहे।

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    1. आपने इसे पढ़ने हेतु समय निकाला तथा प्रशंसा से ओतप्रोत अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा मनोबल बढ़ाया, इसके लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूं ।

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